नारद: मियाँ लखुर्र्दीन

Wednesday, March 21, 2012

मियाँ लखुर्र्दीन



मिया लफडूद्दीन बड़े दिलकश इंसान थे,एक दम मस्त अपने किस्म के इकलौते तो इतने कि संग्रहालय के डायनासोर तक जलते. बनारसी पान मुह डाल के चलते तो रंगरेजों का जी होता कि मुह से ललाई निकाल के अपने कपडे रंग लें. कुछ लोगो का शक था कि सूर्य के लाल होने में इनके मुह के पान का हाथ है. 

दिल से भी बड़े साफ़ पाक, पुरे मोहल्ले कि चिंता रखते, हाल चाल पूछते, एक बार किसी बनिए से  हाल पूछ लिया, "लाला पिछले हफ्ते पुलिस वाले ने पीटा था, अब तबियत कैसी है ?" सुन  लाला ने चार सुना दिए, "हाल पूछ रहे हो या जले पे नमक छिड़क रहे हो?, तुम्हारे भी तो बाल झड रहें हैं" . 

इन सब से ऊपर उन्हें अपने जूते से बड़ा लगाव था. कहते थे जूता महाराज बनारस ने उपहार में दिया था. ये उनके बड़े दिल होने का परिचायक था कि जूता पा के भी वो खुश थे. 

उनके इस जूता प्रेम के कारण  बरसात में मोहल्ले वाले भी खुश होते, वो इसलिए कि मियाँ जी जब भी किसी रास्ते पे चलते वहाँ ईंट पत्थर डालते चलते, मोहल्ले वालों को बना बनाया रास्ता तैयार मिलता और मुन्शिपलटी वाले भी निश्चिन्त हो जाते. उन ईंटो पे इतनी नजाकत से चलते कि हिरनी भी अपने बच्चो को उनके चलने कि कहानियाँ सुनाये.  

अपने जूते को वो हातिम ताई के जूते से कमतर न आंकते, अपना जूता उनको दूसरे के मुह से कीमती लगता, "जूता मारूंगा" एसी भाषा शायद ही किसी ने सुनी हो उनके मुह से.

एक बार किसी बात पे उखड उनकी बेगम ने वो जूता उनके सर पर दे मारा, बहुत उखड गए मियाँ जी, तुरंत जूता उठा उसको सहलाने लगे और बेगम को ताकीद कि,"आईन्दा ऐसा नहीं होना चाहिए, जूते खराब हो जाएँ तो ? बेशक किसी और चीज का प्रयोग कर लें".

किसी यदि उनसे कोई बात मनवानी होती तो जूते कि कसम पकड़ा देता, यदि किसी सबूत देना हो तो वो अपने जूते कि कसम खा लेते. 

सजीव और निर्जीव, जड़-चेतन का ऐसा रिश्ता अब तक विश्व में  देखा -सुना न गया था और आगे भी शायद जूते के इतिहास में मियाँ जी के जूतों का जिक्र जरुर हो,  कौन जाने इतिहास वाले पुरात्विक महत्व का जूता घोषित कर दें.

मोहल्ले वाले उनकी चुटकियाँ लेते, "भाभी जान से निकाह क्यों किया? अपने जूते कि सौत लाने के की क्या जरुरत थी" ?? 

जूते अब पुराने हो चले थे, और मिया जी कि उम्र भी, कभी मिया अपने उम्र और कभी जूतों को देखते थे. तो अपने कोहिनूरी जूते का इस्तमाल भी कम ही कर दिया था, खास खास मौको पर ही पहनते थे, जादा दिन हो जाने पे  उनके शुभचिंतक उनके जूते का हाल चल पूछते.

एक बार मियाँ जी को पता चला कि मोहल्ले वाले किसी मशहूर दरगाह कि और रवाना  हो रहे हैं, उनका भी जी मचल पड़ा. बेगम से सलाह मशविरा किया और मोहल्ले वालो को दरख्वास्त कि, उन्हें भी ले चला जाए. मोहल्ले तैयार तो हो गए लेकिन शाशर्त, कि रास्ते भर कुछ नहीं बोलेंगे, किसी से उसका हाल चाल नहीं पूछेंगे , न कि जूता पुराण का कोई अध्ध्याय सुनायेंगे. मियाँ जी से दबे मन से हामी भर दी थी.

काफिला रवाना  हुआ दरगाह कि ओर, आदतन मियाँ जी चुप न रह सके "अरे हजरत यदि हमारा ये जूता नया होता तो हम कब के पहुच के आप लोगो कि खातिरदारी कि तैयारियां करने लगते."

काफिला चिढ गया, और आपस में   कुछ  काना फूसी कि.

काफिला दरगाह पहुँचा, सबने मन्नते मुरादें मांगी, मियाँ जी ने भी अपने जूतों कि सलामती के लिए चद्दर चढाया, दुवाएं मांगी.  आत्मा को सूकून मिला उनके कम से कम एक नेक काम तो कर गए जूतों के साथ.

अब सोचा चलो आस पास का इलाका घूम लिया जाये, पता नहीं फिर कब आना हो.

लेकिन ये क्या?? उनके प्राण सुख गए थे, यहीं तो उतारी थी. रूह के बराबर जूता गायब था. मियाँ जी अब रोने को आये " अब तक साथ निभाया था थोड़े दिन और रुक जाते तो क्या जाता ? "

"अरे वही कहीं पड़ी होगी देख लो मिया जी कायदे से" किसी ने आवाज लगाई.

मिया जी बेतहाश हो के इधर उधर खोजने लगे, हर दूसरे जूते पे नजर पड़ती लगाता कि उन्ही का , पास जाते तो निराशा हाथ लगती. मिया जी हालत उस आशिक कि तरह हो गयी थी जिसकी महबूबा छोड़ के चली जाए तो हर हुश्न में अपनी महबूबा दिखती  थी. 

पागलो कि तरह खुदा को और मजार वाले बाबा को कोसना शुरू कर दिया, "आज ही दुआ मांगी थी और आज ही हाथ साफ़ कर दिया, पूरा मोहल्ला तो जलाता ही था मेरे जूते से आपसे भी न देखा गया", इत्यादि.

अब घर वापिस कैसे जाते? मियाँ जी हालत वैसी हो गयी थी जैसे जंग में बिना हथियार के सिपाही. थोड़ी देर में संयत हुए. आस पास उनके सहयात्रियों का जमावड़ा लग गया. ढाढस बधाना शुरू किया.

 "कैसे हुआ ? कब हुआ ? बहुत बुरा हुआ. कोई नहीं अल्लाह जो करता है कुछ सोच समझ के करता है." निराश मत होईये मिया जी, उसका साथ बस यही तक था."

 अब बेगम को क्या मुह दिखायेंगे. उनका आत्म सम्मान उन्हें झंझोंड गया. समय भी कम था, यदि दो चार घंटे में आस पास कहीं उस तरह के बन जाते तो शायद बनवा भी लेते. लेकिन ये सब बस  खयाली पुलाव् थे.

काफिला वापसी कि ओर चला लेकिन मियाँ जड़ बने मजार में सर धुनते, कि शायद मजार वाला पीर कोई उपाय सुझाए या अल्लाह कि रहमत से ऊपर से जूते ही भेज दे, उन्होंने जन्नत के हूरों से समझौता भी कर लिया  ७२ कि जगह ७० ही मिले लेकिन एक जोड़ी जूते भेज दें. लेकिन ऐसा कोई चमत्कार नहीं हुआ.

थक हार कर मजार के बहार आये , इधर देखा, उधर देखा और अल्लाह के किसी नीक बंदे का नेक जूते अपने पाँव  में सजा के ऐसे भागे जैसे दोजख का शैतान पीछे लगा हो.

घर वापसी तो हो गयी लेकिन अब मियाँ का  माहौल और  मिजाज दोनो बदल चूका था. कुछ दिन बाद मियाँ इसी सदमे से निकल लिए अपने जूतों के पास .

सादर
कमल
२१ / ३ / २०१२ 

5 comments:

रविकर said...

प्रस्तुती मस्त |
चर्चामंच है व्यस्त |
आप अभ्यस्त ||

आइये
शुक्रवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.com

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत बढ़िया व्यंग्य है जनाब!

संजय भास्‍कर said...

बहुत बढ़िया औत सटीक व्यंग्य है कमल जी

संजय भास्‍कर said...

पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...

Dinesh pareek said...

बहुत उम्दा

मेरी नई रचना

खुशबू

प्रेमविरह