नारद: August 2012

Wednesday, August 22, 2012

अबू आजमी के दो करोर


मुंबई के मुसलमान बहुल क्षेत्र के नेता  अबू आजमी ने राज ठाकरे से दो करोर की शर्त लगा दी इस बात का सबूत देने के लिए की उनके क्षेत्र मे एक भी बांग्लादेशी नहीं है. इनकी ये बुध्धिमानी कही जाए या मूर्खता ??? पहली बात तो नेता है तो दिमाग का होना दूर की कौड़ी, ऊपर से इस्लामी नेता. 

२१ अगस्त को राज ठाकरे द्वरा अबू आजमी को "भडुआ" की उपाधि दी गयी थी, मुझे थोड़ी बहुत मराठी आती है सो मै समझ पाया नहीं तो मिडिया के ट्रांसलेटर पूरा अनुवाद नहीं करते थे, दी गयी उपाधि सही है या गलत ये तो राज ठाकरे या अबू आजमी ही बता सकते है लेकिन अबू आजमी का शर्त लगाना इस बात गवाह है की अमर जवान समरक तोडने वाला भारतीय मुसलमान ही था, क्योकि उनके क्षेत्र मे एक भी बांग्लादेशी नहीं. इस तरह से देखा जाए तो सारा कांड बंगला देशियों के मत्थे फोड राज ठाकरे ने एक तरह से भारतीय मुसलमान की तरफ दारी ही की थी, लेकिन अबू आजमी के शर्त के साथ ही ठाकरे की बात ख़ारिज कर सिध्ध करने की कोशिश की है भारतीय मुसलमान भी भारत के शहीदों  के प्रति सम्मान  नहीं रखता,  क्योकि मूर्तियां  या स्मारक  अल्लाह की उस तथाकथित  किताब मे नहीं. 

अब अबू आजमी से पूछा जाना चाहिए की भाई ये दो करोर रूपये लाओगे  कहाँ से ?? मुसलमानों से जेहादी चंदा इकठ्ठा कर के, या अपने पद का दुरुपयोग करके, क्योकि जहाँ तक मुझे मालूम है एक विधायक की इतनी तनख्वाह नहीं होती की वो दो करोर यूँ ही अपने शर्त पे लगा सके, वो भी ये सिध्ध करने के लिए की भारतीय मुसलमान गद्दार है. अपना शाशन ठीक ठाक प्रत्यारोपित करने के चक्कर मे इन्होने भारतीय मुसलमानों को ही गद्दार बना दिया.  या ये हो सकता है की कोई अरब या पाकिस्तान सम्बन्धित संस्था ने इनको दो करोर फाईनेंस किया हो, क्योकि किसी भी इस तरह के चीजों मे भारतीय का हाथ  नहीं होता, ये तो बस बिचारे साधन होते है. और इस बात से इनकार ही नहीं किया जा सकता. जब असम , म्यांमार के मुसलमानों के लिए भारत मे दंगा, तोड़ फोड , आगजनी हो सकती है तो इस्लाम के नाम पर बाहर से फंडिंग होने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता. क्या कोई इनसे पूछेगा की ये दो करोर रूपये अपने इस शर्त शौक कजे लिए कहाँ से पैदा करेंगे ??? 

अब इस बात को वो गैरमुसलमान भारतीय भी नहीं झुठला  सकते जिनको सेकुलरिज्म का कीड़ा काट बैठा है. 
यानि अब  मान लेना चाहिए की मुसलमानों का देश से कोई लेना देना नहीं होता, ये मै नहीं अबू आजमी कह रहे है, बांग्लादेशियों के शामिल होने का कयास ख़ारिज करते अबू आजमी जी को हम लोग हार्दिक धन्यवाद देते है, कम से कम सच तो बोला, उपद्रवी वो भारतीय मुस्लिम थे, बांग्लादेशी नहीं . 

कस्तूरी


आज अंजू जी और मुकेश जी की सम्पादित काव्य संग्रह "कस्तूरी" का उद्घाटन था माफ करिये लोकार्पण था. उद्दघाटन और लोकापर्ण मे बड़ा अंतर है, यदि कोई जूता व्यवसाई किसी नेता- मंत्री शुभारम्भ करवाता है तो उद्घाटन होता है, बिचारा निरीह नेता  खुद नहीं जान पाता, यही जूते आगे उसके पड़ने वाले है, और जब लिखने पढ़ने वाले चीज का शुभारंभ किसी साहित्यकार के हाथो हो तो  लोकार्पण कहलाता है, लोकार्पण अर्थात लोक को अर्पण यानि हे लोक वालो ये लो एक और किताब जिसमे घोटालों के कोई दस्तावेज नहीं है तो आशा ही है शायद पसंद आये, क्योकि आजकल चर्चा भी घोटालों वाले किताबो को मिलती है, न की अंतरात्मा की चीजों को, मिले भी क्यों ?? अंतरात्मा की चीजे है अंतरात्मा मे रखो लोक को अर्पण  करने का क्या मतलब है ?? अब लोक का टेस्ट बदल चूका है, अब लोक घोटालात्मक चीजों को अपने अंतर्मन मे बसने लगे है.  

पुस्तक का लोकार्पण प्रोफ़ेसर नामवर जी के हाथो होना था, समय नियत था, लेकिन ये इंडिया है, एक तो प्रोफ़ेसर दूजे हिंदी का यानि "तीत्लौकी दूजे नीम चढा" लेकिन फिर भी हिसाब किया जाए तो नामवर जी नियत समय से पहले आये. क्योकि जाते ही मैंने हिसाब लगा लिया था, एक प्राईमरी स्कुल का मास्टर रोज दो घंटे लेट जाता है, साथ की जगह पांच घंटे पढाता है, हाईस्कुल वाला, तीन घंटे, इंटर वाला रेसस के बाद, और कॉलेज वाला सप्ताह मे तीन दिन, प्रोफेसर बात ही निराली, जब मूड किया तो ठीक  नहीं तो खाली समय आपका है अपना मूड बना लो. 

पहुचते ही अंजू जी नमस्कार किया, आशर्वाद स्वरुप उन्होंने भी मुझे एक अध्यापक से परिचय कर दिया, बात चीत से पता चला आप भी कवि है, गजल लिखते है, अच्छा लगा, यानि सही हाथ मे पड़ा गया, मेरा कोई दुरपयोग नहीं हुआ. हम अगली पंक्ति मे थे, बड़ा असहज महसूस हो रहा था, जिंदगी भर से जिसको पीछे बैठने की आदत हो और उसे आगे बैठा दिया जाना एक प्रकार से मानसिक आघात देना है जैसे किसी दलित को उठा चारपाई पे बिठा देना. मौका ताड़ तत्काल दलित बन पीछे की सीट पकड़ लिए. इससे नजर पैनी होती है. पीछे जाने पे नजर पड़ी की अतिथि पंक्ति मे नाम पट्टिकाएं छः थी और कुर्सियां सात, कहीं ये किसी नेता परेता की संगोष्ठी होती तो कुर्सियों के लाले पड़ जाते.   फायदा ये की सुजान जी बातचीत भी सुभीते से होने लगी, उन्होंने भी अपनी एक पुस्तक "सीने मे आग " सप्रेम भेंट की जिसपे नजर डालने पर लगा की वास्तव मे उम्दा संग्रह है.  आपका नाम है सुजान सिंह. मौका मिलते ही मैंने अपनी शंका का संधान करना चाहा, 
"आप अध्यापक है, बच्चो को बहुत पिटते होंगे" 

"नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रहे हो ?" 

"मैंने सुना जब बच्चो की गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाती है, बच्चे फूल टाईम घर पे रहने लगते है तो अध्यापक जमात अपने बच्चो पर पिटाई का रिहल्सल करती है ताकी अगला सीजन अच्छा जाए" 

वो जोर जोर से हसने लगे. 

संचालक महोदय ने सभी कवियों को ढाई मिनट का समय दिया, ये बड़ा अन्याय था, कम से कम दस मिनट का होना चाहिए था, कौन जाने सोचा हो आजकल लोगो मे सहने की क्षमता कम है, लेकिन ऐसा नहीं था, यहाँ जो भी आये थे दिल पे पत्थर रख नहीं बल्कि काव्यानंद लेने आये थे. 

सब बारी बारी से पानी कविताये पढ़ने लगे, इस तरह की संगोष्ठियों  के लिए मै पहला था, या यूँ कह लीजिए के ये मेरे लिए पहली संगोष्ठी थी, पता नहीं था ताली कब कब बजाना है, सो मै हर बार बजा देता, ताकि सब मे फिट हो जाए. 

कुछ कवि लेखक अपने लिखित भाषण के साथ अपनी जमा पूंजी स्वरुप बच्चे भी लाये थे, बच्चे क्या बल्कि कह ले पुरे सोलह आना ब्रह्मास्त्र  थे, ऐसे छूटते  की ब्रम्हा भी तहस नहस होने से नहीं बचा सकता था,  जो कुर्सियां किसी तशरीफ़ के इन्तजार मे थी, वो सब अलट पलट गयी,  फालोड बाई रोनागान, तभी उनके तरकश प्रकट हो जाते और ब्रह्मास्त्र  तरकश के साथ हाल से बाहर हो जाता.

भाषण,कविता पढ़ लेने के बाद कवियों के मुख मंडल एक विशेष प्रकार की आभा आ जाती, संतोषजनक संतोष छा जाता मानो  बीस सदस्यों वाले घर के एक मात्र बाथरूम से कोई सफलता पूर्वक निकल आया हो. 

आयोजन बेहतरीन तरीके से सम्पन्नता की ओर पहुँचा, सुजान जी पहली बार मिले थे इन्हें हरियाणा जाना था,  इनकी धैर्य परीक्षा लेने के लिए मै इन्हें  हिंदी भवन से रेलवे स्टेशन तक इन्हें पैदल ही पंहुचा दिया, मैंने वहाँ से ऑटो ली घर आ गया. आशा है सुजान  जी पहुच गए होंगे. कस्तूरी पुस्तक कल आर्डर होगी मेरे फ्लिक्पार्ट  एकाउंट से, इसके बारे मे पढ़ने के बाद लिखूंगा. 

निमंत्रण के लिए अंजू जी को हार्दिक धन्यवाद. 

Saturday, August 18, 2012

हाईस्कूल

डब्बल गाँव का एक सीधा साधा लड़का था, मेहनती, जुझारू, बुध्धिमान, आज्ञाकारी, बडो का सम्मान करने वाला, बस उसमे एक कमी थी, इस साल वो तीसरे बार हईसकूल की परीक्षा मे बैठ रहा था.  आज की डेट मे कहे तो, दो बार के फेल्यौर ने उसको मनमोहन घोषित कर दिया था, सब तरह से उम्दा लेकिन परिणाम विहीन. 

भक्त आदमी थे, सुबह चार बजे से छः बजे तक पूजा, छः बजे से आठ बजे तक गाय गोरू, आठ बजे से दस बजे तक पुरे गाँव भर ढूंढ ढूंढ सभी बच्चो बच्चियों को सकुल भेजते थे, जब तक इनका खुद का स्कुल लेट हो जाता  था. 

लेकिन आप अब्राहम लिंकन से प्रभावित थे, " वो तो रात मे स्ट्रीट लाईट के नीचे भी पढ़ लेता था, तो मै लेट हुआ तो क्या?? कक्षा के सामने गुरु जी के मुह को देख के समझ जाऊंगा की वो क्या बोल रहे है, तुमने एकलव्य का नाम नहीं सुना ?? वो तो मूर्ति तक से सलाह ले लेता था, तो क्या मै जीते जागते गुरु की भाव भंगिमा नहीं पढ़ सकता? 

आप सर्वश्रेष्ठ थे, ऐसा आप मानते थे, बाकी आपके श्रेष्ठता को ध्यान रख दूर से कल्टी हो जाते थे. "अबे देखो आ रहा है, खसको नहीं तो तीन घंटा खराब", जो खसक लेते आपके ज्ञान से वंचित रह जाते, जो गलती से फँस जाते वो कान मे रुई डाल आपकी सारी बाते ग्रहण कर लेते. आप जानते थे की लोग अज्ञानी है सो कभी कभी चुपके पाँव आ उनको आश्चर्य जनक रूप से ज्ञान दे जाते, जिससे उनके ज्ञान का कोटा हफ्ते तक पूरा हो जाता , वो आपके रास्ते मे कई हफ्ते तक नहीं आते.   

आपके माता पिता को आप पर बड़ा गर्व था, हमारे घर के सामने अक्सर आपकी योग्यता का परिचय दे जाते "अरे दो साल हईसकुल मे फेल हुआ है तो का ?? हर साल चार कुंतल गेहूँ की पैदावार इसकी देख रेख मे होता है, एक ये आपका विवेकवा है (घर का मेरा नाम विवेक ही है ) दिन भर कापी गोदता है, किताब उलट पुलट के उसके पन्नों को परेशान करता है".  जैसे डब्बल जी का ज्ञान गावँ के बच्चे लेते थे उसी प्रकार उनके पिता श्री का ज्ञान हमारे घर के लोग भी ले तत्काल उनको गुड पानी पीला सादर विदा करते, सादर इसलिए की जरा भी उनको एहसास हो की की  "सादर" नहीं हुआ तो कुर्सी मगाने लग जाते. सो गाव के सभी लोग उनका बड़ा सत्कार करते थे.आजकल  शनि का सत्कार भी सभी करते है सिर्फ शनि को टरकाने के लिए. 

आपको जब एक साल पढके फेल होने का अनुभव हो चूका था तो उन दिनों मै हाईस्कूल पास कर ग्याराव्ही के लिए एक अदद स्कुल खोज रहा था. हमारे गावं की सरहद जहाँ खत्म होती थी वही एक बड़ा इंटर कालेज था जहाँ आप पढते थे, आप मेरे पास आये, " अरे यही नाम लिखा लो पास हो जाओगे "  मैंने कहा आप कहाँ हुए ?? मै आपकी तरह "हाईस्कूल अनुभवी"  नहीं होना  चाहता. तब आपकी भुजाएं फडक उठती और कहते " तुम्हे क्या लगता है ? साल के अंत मे, ये तीन घंटे का पन्ना गोदना मेरे योग्यता को परख लेगा? "  तभी मै कहता "गुरु आपकी वाणी मे बड़ा ओझ है, आप नेता बन जाओ, लेकिन भाषण बिना माला पहने  मत दिया करो, क्रेडिट खराब होता है." तब आप प्रसन्न हो गए और गोलगप्पा खिलाने का प्रस्ताव दिया, पहली बार मेरे मन का काम किया. मुझे टेक्निक पता चल चुकी थी, इसी टेक्निक के सहारो मैंने कई सालो तक गोलगप्पा खाया और दोस्तों भी खिलाया.  

वैसे आपकी बात मुझे भी जाँच गयी थी, घर के पास का कालेज, घंटी बजाने की आवाज आये तब भी पहुँच जाओ, घर बगल मे सो रुआब गाठने का मजा अलग, "कालेज हो जिसके घर के सामने, सिकंदर भी फेल उसके सामने" की तर्ज पे मूड  बन गया. लेकिन भाई साहब को पसंद न था की मै गाव के कालेज मे पढू, "जो भी हो कल्याण सिंह के जमाने मे ७०% बिना नक़ल लाना आसान काम है क्या ?? " तुम शहर के सबसे बढ़िया कालेज मे पढोगे." मै समझ गया, आगे अन्धो मे काना राजा जैसी हालत होने वाली है. 

बनारस का एक नामी कोलेज था "उदय प्रताप स्व्यत्शाशी कालेज"  १९०९ मे बना, २५० एकड़ मे फैला  यह कोलेज देश के किसी भी विश्वविद्यालय से टक्कर ले सकता है (सिवाय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के) यहाँ शिशु बम, गदहिया गोल (आज का एल के जी , अपर के जी ) से ले के शोध तक की पढाई एक ही परिसर मे की जा सकती है. इसी परिसर मे इंटर तक की पढाई  का भव्य परिसर परिसर के शुरुवात मे पड़ता था. 

उस ज़माने मे (शायद आज भी) यहाँ प्रवेश के लिए बड़ी मार-काट  थी, और उस समय मै गाँधीवादी था, सो  अहिंसा को ध्यान रख प्रवेश परीक्षा छोड़ दी, जिससे भाई साहब बड़े नाराज हुए,  लेकिन वो ठीक ठाक आँख वाले को काना राजा बनाने की ठान चुके थे, पेशे से वकील जो थे. 

सो अपने प्रभाव का प्रयोग किया. राम्लालित सिंह जी (नाम जानबूझ कर सही नहीं दे रहा, आजकल सरकार का भरोसा नहीं), जो वही पे शिक्षक थे और उत्तर प्रदेश के क एक बहुत ही मशहूर लेखक थे ( अंग्रेजी ग्रामर के) ,उनसे कह मेरा नाव लिखवा दिया गया.  सच बताये तो कत्तई वो कालेज मुझे पसंद नहीं था, एक तो अनजान जगह (उस समय १५ किलोमीटर का जगह भी अनजान लगता था) ऊपर से मै हाफ पैंट पहनने वाला आदमी, यहाँ साले सभी फुल पैंट पहनते थे, रेंजर साईकिल से चलते थे, सीधी हैंडिल के साईकिल  पे पता नहीं क्या साधते थे पुरे कैम्पस मे घूम घूम के.  

कहते हैं महाराजा  गोंडा उदय प्रताप जी  के कोई संतान नहीं थी, सो उनके जीवन जीवन का  लक्ष्य हजारों जुझारू बच्चे पैदा करने का  था, बिना खुद जुझारू बने, सो इस कालेज का निर्माण कराया, ठीक उसी समय महारानी के भी कोई संतान नहीं थी, उन्होंने भी बीड़ा उठाया. महाराजा को लडके पसंद थे, और महारानी को लडकी, सो लडको के लिए "उदय प्रताप कालेज " और लड़कियों के लिए "रानी मुरार कालेज" का निर्माण हुआ जो एक ही परिसर मे था.   

महारानी जानती थी, की महाराज के लड़के महराज की ही तरह जुझारू होंगे और हमरी लडकियों के परिसर के सामने चौबीस घन्टे खड़े होंगे, इनमे से कोई एक भी पास हो गया तो इनके बच्चे कहा जायंगे ?? सो उसी परिसर मे एक बच्चो का परिसर  भी है जिसको "शिशु विहार " कहते है . 

महारानी का अंदेशा गलत भी नहीं था.  उदय प्रताप के लडके कक्षा खत्म होते है रानी मुरार के के गेट पे खड़े हो जाते , और छांटना शुरू कर देते, " लंबी वाली मेरी, छोटी वाली तेरी"  कभी कभी तो दो पक्षों मे मार भी हो जाती, और बिचारी लंबी और पतली इन दोनों लडको की मारा पीट देख निकल जाती,  शायद उनको पता तक न था की ये जो भविष्य के नेता लड़ाई कर रहे है उनकी संसदीय सीट हम ही है. "मुर्गा जान से गया, क़त्ल करने वालो को इल्म भी न हुआ". इस प्रक्रिया मे "रानी मुरार" की न जाने कितनी लड़कियों का  अपने मा बाप से मोहभंग "उदय प्रताप" के लडको ने कर दिया,  सो उनके साथ भाग खड़ी हुयी. आज कल शिशु विहार इन्ही लोगो के काम आता है, "डबल एलुमनी वेटेज" के तहत. 

खैर प्रवेश हो चूका था, मै हाफ पैंट के सहारे  अपनी तशरीफ़ सायकिल के सिट को समर्पित कर १५ किलोमीटर की एक तरफा दुरी रोज तय करनी शुरू कर दी. 

कालेज १० बजे का था, घर से मै ८ बजे निकलता था, डेढ़ घंटे जाने मे लगते थे, और आधे घन्टे समोसा लौंगलता मे, एक दिन निकला ही था की दूर से "आप"  लोटा ले के वापसी कर रहे थे (उन दिनों गावों मे शौचालय सबके यहाँ नहीं होते थे)  मै बड़े धर्म संकट मे पड़ा, अपने जो रोक लिया तो सब दिन खराब, एक ही रास्ता, कही दाए बाए से कोई पगडण्डी होती तो कटा लेता, लेकिन दोनों तरफ गेहू के हरे भरे खेत, वापसी करू और आप देख ले तो आपकी नाराजगी से गोलगप्पा मैनेजमेंट भी खराब. उपाय सुझा, जैसे ही पास पंहुचा सधे तरीके से साईकिल गिरा दी , पेट पकड़ लिया "गुरु जरा लोटा देना मामला  गडबड हो गया है एकाबैक, इमरजेंसी है,"  गुरु लोटा दे पुलिया पे बैठ गए शायद इस आश मे की हल्का हो तो मेरे ज्ञान का वजन सहने लायक हो जायेगा, "अरे बैठो मत जाओ, निपट के लोटा झोला मे रख लूँगा, पेट गडबड है , कौन जाने रस्ते मे एक दो बार और काम आये, शाम को वापिस दे दूँगा"  मैंने कहा. 

गुरु  लोटा दे और बिना ज्ञान दिए भारी मन से घर की ओर रवाना हुए ताकीद के साथ की शाम को आग से शुध्ध करके देना, उसके वैज्ञानिक कारण ... "   बात खिचने ही वाले नजाकत देखते हुए मैंने कहा " गुरु तुम्हारे  ज्ञान के चक्कर मे  पैंट खराब हो जाएगा" . 

किसी तरह मै आपसे समय और जान छुड़ा वहाँ से निकल लिया, हाँ जो समय "आपके" साथ   लगा था उसको मैंने समोसा और लौंगलता का त्याग कर एडजस्ट कर लिया था. 

(वैसे तो ये लेख मैने कोशिश कर किसी तरह पूर्ण कर दी है , यदि आप लोगो को अच्छी लगे तो इसका अगला भाग भी आएगा, लेकिन आप लोगो के प्रतिक्रिया के बाद) 

कमल कुमार  सिंह 

Friday, August 17, 2012

कही ये सरकार की चाल तो नहीं ???

भ्रष्टाचार के मामले मे आज सरकार और उसके गठबंधन हर तरफ से घिरे जा रहे है, धन के चक्कर मे ये सरकार और उसके मंत्री भूल गए की इमानदारी ही नैतिकता रूपी कपडे को मजबूत बनाती है और भ्रस्टाचार चूहा स्टाईल मे इस इमानदारी कुतर डालती है.  धन के लालच मे ये सरकार खुद चूहा टाइप भ्रस्टाचार से अपने कपडे कुतरवा के इमानदारी को कमजोर चुकी है जहाँ से इनके मन के काले धब्बे और कारनामे दिखने शुरू हो गए है, इमानदारी  का कपडा एक जगह से फटता है तो दूसरे जगह से ढकने की कोशिश कर रही सरकार अपने कारनामे छुपाने मे असफल है तो देल्ही की कुर्सी भी इन्हें पतिता मान तलाक देने का मन बना चूका है.  अब ये क्या करे ??  कमासुत खसम चला जायेगा तो फिर इन्हें पूछने वाला कौन ?? ये क्योकि कुर्सी को धर्म नहीं बल्कि खसम से जादा कुछ मानते भी नहीं. ये शायद भूल गए है जो खसम आपकी तीमारीदारी, परवाह  इनकी पवित्रता पे करता था, जिसको अब इनके अपवित्र होने का सबूत मिल चुका है, शायद तलाक भी दे सकता है. 

साम्प्रदायिकता का कार्ड खेल कोंग्रेस ने सरकार तो बना ली, (अनावश्यक तुष्टिकरण साम्प्रदायिकता का एक निम्नतम रूप है जिससे अलग अलग धर्मो के बीच दूरियाँ बढती है). लेकिन जब मुसलमान  भी समझने लगे  की हमें तो बेवकूफ बनाया गया, हमारा तो कोई विकास नहीं हुआ, भाषणों सिर्फ आरक्षण, और सुरक्षा के दावे खोखले पड़ने लगे, ऊपर से इनके रोज रोज के घतोत्कछ्छी, डायनासोर टाइप के घोटाले देख जनता पूरी तरह से  टूट गयी , पक गयी और पूरा मन २०१४ मे इनके तलाक दिलवाने के वकील भूमिका मे आने लगी तो इनके माथे पे पसीना आने लगा. 

और ये पुख्ता जानकारी दिलाई शोशल मिडिया ने, मेंन  मिडिया कितना भी चिल्ला ले की वो बिकी हुयी नहीं है लेकिन असलियत सबको मालूम है, कोठे पे बैठी हुयी वेश्या पवित्रता का चाहे जितना दंभ भर ले लेकिन संस्कार से अछूता नहीं रह सकती. 

अब ये क्या करें ? तो इन्होने एक तीर से दो निशाना साधा, पहला अपना वोट बैंक साधने का और दूसरा शोशल मिडिया पे लगाम लगाने का. मजे की बात ये है की वोट साधने का काम भी शोशल मिडिया से ही करवाया. 

हर पतिता को मालूम होता है की उसका भांडा एक दिन फूट जायेगा, सो वो पहले ही आपातकालीन परिस्थिति मे एक विश्वशनीय गवाह तैयार कर लेती है, अब गवाह किसको बनाए जिससे खसम को एहसास कराया जा सके की ये अभी भी विश्वनीय और पवित्र है ?? जिस साम्प्रदायिकता का कार्ड खेल एक खास कौम को अपना गवाह बनाया था वो समझदार हो चला था, इनको पता था अबकी बार ये साथ न देंगे, सो बंगलादेशियो को पहले ही तैयार कर रखा था. 

नियत समय पर शुरू कर दिया अपना खेल, करवा दिया दंगा आसाम मे, जिसमे लाखो लोग बेघर हो गए, इनको पता था की जनता हमारे मिडिया पे भरोसा करे या न करे लेकिन शोशल मिडिया तक ये बाते  हर जगह पहुच जायेगी, जिससे देश मे अशंतोस  फैलेगा, और फैला भी.. आखिर विदेशियों को अपने जमीन पे खुरापात करते कौन देखना चाहेगा ??  इससे होगा ये जो मुसलमान समझदार हो इनका साथ छोड़ इनके साथ हो गए थे वो एक बार फिर से भयभीत हो जायेंगे, और उनका ध्रुवीकरण एक बार फिर से इनकी तरफ हो सकता है, दूसरे ये शोशल मिडिया को आड़े हाथ ले सकते है. 

फिर असम, म्यामार और बर्मा के समर्थन मे मुंबई मे रैली निकलवा फिर हिंसा करवाई क्योकि सिरफिरे लोग हर कौम मे होते है और जब हजारों नेता ही पैसो के लिए कुछ भी करने को तैयार है तो २० -२५ हजार भाड़े के टट्टू जुटा के ये सब करना कौन सी बड़ी बात  है ?? और ये जरुरी तो नहीं की मुंबई दंगे मे हर टोपी पहनने वाला मुसलमान ही रहा हो या हो भी सकता है, जिसका जिम्मेदार मै सीधे सीधे सरकार को मानता हूँ नहीं तो कोई कारण नहीं था शहीद स्मारक तोडने वाले आतंकी को जब  मुंबई के "डी सी पी" ने पकड़ा तो कमिश्नर ने उनको भी धमका दिया जैसे वो "डी सी पि" नहीं बल्कि कोई चपरासी हो.  और ये भी ध्यान देने योग्य बात है की दोनों ही दंगा कोंग्रेस शासित प्रदेशो मे हुए जिससे ये  पुख्ता हो जाता है की "सरकार का हाथ इन आतंकियों के साथ". फिर  मुसलमान सोचने लगेंगे की ये सरकार हमारे गुनाहों पे कितना पर्दा डालती है, इनसे अच्छा हमारे  लिए कोई हो ही नहीं सकता.(मुसलमान भाईयो सावधान ये सब आपको बरगलाने के लिए किया जा रहा है और हिन्दुओ को भड़काने के लिए). 

ध्यान देने योग्य बात ये है की कुछ भी मेंन मिडिया मे जानबूझकर नहीं दिखाया जा रहा था ताकि हिन्दुओ मे अशंतोश फैले जिससे इनका आधा काम हो गया दूसरा की फिर ये बाते शोशल मिडिया से जन जन तक पहुचेंगी  जिससे ये बहाना ले के शोशल मिडिया पे नकेल कस सकेंगे जो आज इनकी सबसे  बड़ी दुश्मन है. 

अब इनका अगला पड़ाव था विपक्ष पे निशाना साधना, सो कर्णाटक मे कौन जाने अफवाह भी इन्ही के गुर्गो ने फैलाई हो ??ताकि हिंदू भी भडके की ये सरकार भी ठीक नहीं ताकि कुछ हिन्दुवो का भी ध्रुवीकरण इनकी तरफ हो सके. यहाँ गौर काने लायक बात ये है राज्य सरकार के (जो की केन्द्रीय सरकार की विपक्षी पार्टी है ) कोई कदम उठाने से पूर्व ही कोंग्रेस सरकार ने बैंलोर से कई ट्रेने चलवा दी, ताकि बंगलौर मे इन्ही के द्वारा फैलाई अफवाह पुख्ता हो जाये, लोग दहशत मे आ जाये. बजाय की शांति बहाल करने मे राज्य सरकार का साथ देने इन्होने अफवाहों को पुख्ता ट्रेने चला अफवाहों को पुख्ता करना जरुरी समझा.  

फिर हैदराबाद के संसद मे एक सांप्रदायिक सांसद का  साम्प्रदायिक बयांन, यहाँ भी ध्यान देने योग्य बात ये है की यहाँ भी कोंग्रेस की ही सरकार है. 

इसका परिणाम ये हुआ की देश भर मे असमिस भाईयो के मन मे असुरक्षा की भावना पैदा हो गयी और वो पलायन करने लगे, 

इन सब कांडो से देश भर के मुसलमानों मे भी अशंतोश आ गया की शायद अब गाज उनपे भी गिरने वाली है या कौन जाने वहाँ भी किसी ने उनको भडकाया हो, क्योकि आज देश मे मुसलमानों को गलत राह पे ले जाने वाले इनके धर्म गुरु ही है, जब इनके धर्मगुरु गुस्से मे अपनी एक आँख बंद और मुह टेढा करके ये कहते है की अब तुम एक हो जाओ तुम सुरक्षित नहीं तो जाहिराना तौर पर इनपर दिमागी असर तो होता ही है. क्योकि जिसको हम अपना बड़ा मानते  है , पथ प्रदर्शक मानते है उस पर विश्वाश भी करते है, अब ये तो उस पथ प्रदर्शक पे निर्भर करता है की वो पथभ्रष्ट न हो, लेकिन आज के ९९% मौलवी नेतावो के चंगुल मे है और उनके लिए कार्य करते दिखाई पड़ते है, ये सब बाते तब पुख्ता हो जाती है जब इमाम भुखारी जैसे लोग मुलायम के पास अपने दामाद के लिए टिकट लेने पहुच जाते है.  अब आज दिनांक १७ अगस्त २०१२ को लखनऊ मे भी उसी खास समुदाय द्वारा हिंसा करवाई गयी, फिर कानपुर मे, फिर अलाहाबाद मे कर्फुयु और मजे की बात ये की ये भी टी वी पे नहीं दिखाया जा रहा, जाहिर सी बात है की बाते भी शोशल मिडिया द्वरा ही जनता मै फैलेगी और फिर ये सरकार  योजनानुसार इस सूचना साधन को भडकाऊ घोषित कर लगाम लगाने की कोशिश करेगी. 

इन सारी बातो से अलग एक आबत प और ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा की उत्तर प्रदेश मे भी कोंग्रेस समर्थक की ही सरकार है, अब आप खुद विश्लेषण कर लीजिए, और मान भी लीजिए की अब  आगे जहाँ जहाँ भी दंगे होंगे वो कोंग्रेस शाषित राज्य ही होंगे ताकि मुसलमानों के वोटो का ध्रुवीकरण हो सके, शायद ही अपने दिमाग पे किसी ने जोर दे के सोचा हो की, मध्यप्रदेश, गोवा, कर्नाटक, बंगाल, और गैर कोंग्रेसी राज्यों मे क्यों नहीं हो रहे ? हाँ अब यदि आगे होते है तो ये भी इन्ही की कोई चाल होगी.

सरकार एक तीर से कई निशाने साध रही है.. वोटो का ध्रुवीकरण, शोशल मिडिया पे लगाम, और घोटालों पर से जनता ध्यान हटा साम्प्रदायिकता की आग झोकना. लेकिन इसकी सबसे जादा त्रासदी कौन झेलेगा ?? सिर्फ और सिर्फ मुसलमान, उनको एक बार फिर से शक कि नजरो से देखे जाने लायक बना सरकार मन ही मन खूब खुश होगी क्योकि धार्मिक विभाजन के खाई मे ही ये अपने दुश्मनों को धकेल सकते है, खाई के बीच यदि कोई पुल बनायेंगे तो नुक्सान सरकार का ही है.. 
हिंदू एक बार फिर से किसी आशंका से ग्रस्त हो इनसे नफरत करने लगेंगे, और भगवान न करे कुछ हुआ तो एक बार फिर पूरा देश असम की आग मे जलने लगेगा. 

अतः मुसलमानों से निवेदन है धैर्य बनाए रखे गलत को गलत कहने की ताकत लाईये चाहे वो कोई भी हो,  किसी भी मुल्ले मौलवी के बहकावे मे न आये, क्योकि टारगेट आप ही है, और साधक सरकार के "साधन" भी, सरकार भी यही चाहती है की कुसूरवार भी आप ही को बनाया जाये लेकिन साधक के साधना के बाद जब सिध्धि प्राप्त हो जाए. 

सादर 

कमल कुमर सिंह 
१७/ अगस्त २०१२ . 

Thursday, August 16, 2012

जाके पाँव न फटे बिवाई

पता नहीं इस हालत मे मुझे इस तरह के लेख लिखना चाहिए या नहीं,  यदि मै लिख रहा हूँ तो इसका मतलब ये भी नहीं की जो कुछ भी  असम के भाईयो के साथ हो रहा है मै उससे सहमत हू, या निंदा नहीं करता हूँ. जो कुछ भी हो रहा है वो बिलकुल निंदनीय है खासकर की तब जब ये सब विदेशी विस्थापितों के कारण हो, और उससे भी निंदनीय ये कि इन विस्थापितों के समर्थन मे कोई भारतीय कौम आ जाता है, और हद तो तब हो जाती है, जब हैदराबाद का एक सांसद अकबरुद्दीन ओवेसी आतंकी मुद्रा मे हिंसा होने की वकालत करता है, जो की एक निनांत असामाजिक और वृहद सांप्रदायिक है, और इन सबसे बढ़ कर निंदनीय की इन्ही के कौम के जो ये जुमले बोलते हैं "वो भटके हुए है  "उनके विरोध मे सडको पे नहीं उतरते  जबकि उनके मजहब ही बात हो तो शहीद स्मारक तोडने से भी नहीं चुकते. 

मामले की लीपापोती करने के लिए सरकार और मिडिया ने बढ़िया शब्द इजाद किया है, "अफवाह" यानि अफवाह की परिभाषा ही बादल गयी है, अब यदि कोई कहे दंगाई कौम ने शहीद स्मारक तोड़ा तो क्या अफवाह है ?? यदि कोई कहे दंगाई कौम ने गाडी फूंकी  तो क्या ये अफवाह है ??  यदि कोई कहे दंगाई कौम ने पुलिस महिलाओं के साथ अभद्रता किया  तो क्या अफवाह है ?? यदि कोई कहे दंगाई कौम ने मिडिया को निशाना बनाया  तो क्या अफवाह है ?? असम का प्रायोजित दंगा बांग्लादेशी मुसलमानों की वजह से है क्या ये अफवाह है ? हैदराबाद मे १४ अगस्त को पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है क्या ये अफवाह है?? बरेली मे शिव कावडियो पर दंगाई कौम द्वरा हमला क्या अफवाह है ?? अकबरुद्दीन ओवेसी आतंकी मुद्रा मे हिंसा होने की वकालत करता हैक्या ये अफवाह है ??? आखिर आप किन किन चीजों को अफवाह कह के झुठला सकते है ??? या आप जो फैला रहे हैं  वो खुद अफवाह है ?? खैर इसका जवाब मिडिया या सरकार शायद ही दे पाए. 

अब सच्चाई को अफवाह का नाम दे कर  सच्चाई को वाष्पित कर भाईचारा रूपी आसमान मे विलय कर दिया जायेगा जो की कोरी कल्पना है, वाष्प कभी आसमान छू पाया है ?? बल्कि आधे रस्ते से ही वापिस आ  जाता है , ये कितना भी झूठ को वाष्पित करने की कोशिश करे सच तो सच है. 

दंगा एक बदबू की तरह होता है, जो फैलाता कोई है और तेजी से बढता हुआ सबके नथुनों तक पहुच जाता है यहाँ तक उसके पास भी जो  भाई चारा डीओडेंट्र लगाया हुआ है जो की सिर्फ एक  के बदन पर ही चिपका रह जाता है. 

आज स्थिति इतनी भयावह हो गयी की असम के भाई बंधू दंगाई कौम से डर कर हदस गए, और पलायन जारी है.. आज शायद इन  असम के भाईयो को भी समझ आ रहा  होगा की ये स्थिति कितनी दुखदायक होती है, कितन पीड़ा  दायक होती है , इस तरह का जिल्लत तिरस्कार झेलना कितनी बड़ी त्रासदी होती है ये या तो असम के भाई बहन जान सकते है या वो उत्तर भारतीय / हिंदी भाषी जिनको इन असम के बंधुओ ने कुछ वर्ष पूर्व पलायन करने पर मजबूर कर दिया था, चाहे कारण कुछ भी रहा हो. 

किसी ने ठीक कहा है  "जा के पावँ न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई" कारण कुछ भी हो. 

Tuesday, August 14, 2012

स्किल डेवलपमेंट योजना : प्रधान मंत्री


अभी अभी मै प्रधानमन्त्री जी का भाषण सुन रहा था , हमारे आदरणीय प्रधानमन्त्री, जो बुध्धि और व्यक्तित्व मे अतिविकसित रोबोट को पीछे कर रखा है, ने घोषणा की, कि पुरे देश मे स्किल डेवलपमेंट योजना चलाई जायेगी, ताकि वो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और यह योजना बहुत बड़ी और भव्य होगी. 

पहली बात ये स्किल डेवलपमेंट योजना  का असली फायदा कौन उठाएगा ??? जनता या मंत्री ??? 

यदि योजना बड़ी होगी तो स्किल जनता का कम मंत्रियो का जादा बढेगा, मंत्रियो का "परम्परागत स्किल" जनता भी "इन्तजार धैर्य और अगले वादे " सुनने की स्किल मे इजाफा  जरुर कर लेगी .

तब इस योजना का फायदा  क्या??जनता तो वैसे भी धैर्य और इन्तजार के स्किल मे परफेक्ट है, और मंत्री,नेता का भी परम्परागत स्किल का फिगर भी  फिट है, जो की संसद रूपी जिम जाने से हुआ है. 

हाँ एक फायदा होगा, अगले साल फिर इस  योजना लागू करने के श्रेय लाल किले से खुद ले सकते हैं अपने "परम्परागत मौलिक  मौन स्किल " को कम करते हुए.   

जनता सुनना चाहती थी की असम के दंगे, और मुंबई के पचास हजार मुसलमानों को क्या सन्देश देंगे ?? या देश को शेखुलर से सेकुलर बनाने के लिए क्या कदम होगा ?? कम कम से मैंने तो यही सोच के टी वी खोला था ?? क्योकि एक आदमी जिसके पास जरा भी बुध्धि है उसे पता है की ये सारी योजनाये मंत्रियो के स्किल का निर्माण करती है, और इसी स्किल से वो शेखुलारिज्म (सेकुलर्जिम नहीं) फैलाते हैं. 

लेकिन वास्तव मे एसी चीजों की आशा रखना हम जैसो की गलती है, क्योकि वो गलतियाँ मुसलमानों ने की है हिन्दुवो ने नहीं.,. जो उनके मुखांगो से इसके बारे मे निकले. यही  जो  ५० हजार तो छोड़ा जनाब सिर्फ सौ पचास हिंदू ऐसा कुछ करता तो तो जरा अंदाजा लगाईये क्या क्या हो सकता था ??  सारे संघटन एक होके भगवा आतंकवाद का नारा दे देते, सारे हिन्दुओ को आतंकवादी और नफरत बढ़ाने वाला घोषित कर दिया जाता ," कट्टर हिंदू " होने का तमगा दे दिया जाता, अब इनको कौन समझाए हिंदू जब भी कट्टर होगा उसकी सहिष्णुता बढाती जायेगी क्योकि हिंदू धर्म यही कहता है "सर्व धर्म सामान " यानि जो हिंदू जितना कट्टर होगा होगा वो उतना ही सहिष्णु होगा, मुसलमान तो बाद मे  पहले अपने ही "शेखुलर" सीना पिटने आ जाते ... और मजे की बात ये है आज भी मुंबई और  असम पे ये शेकुलर लेखक कुछ नहीं बोलते न लिखते बल्कि जो निंदा करता  या लिखता मिल रहा है उसकी निंदा कारते हुए दलीले दे रहे हैं की नफरत न फैलाओ .. समझ नहीं आता इनकी सोच पे हँसू या रोऊ ?? ...वैसे भी कहा जाता है जहाँ प्यार होता है वहाँ नफरत भी होती है, और जहाँ नफरत वहाँ प्यार. शायद उनकी भी सोच यही हो.

 अपने प्रधान मंत्री इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है, की दंगा हो रहा है, तो सद्भावना के लिए, क्योकि चक्र पलटता है,  सद्भावना  फैलाने के लिए तो देश मे तो काफी दंगे हो ही रहे थे, चाहे कोसीकला का मुसलमानों द्वारा बाल्त्कार से शुरी की हो  या प्रताप गढ़  या बरेली के शिव  कावरियो पे मुसलमाओ का हमला, कोई टेंशन नहीं जहाँ नफरत होती है प्यार भी अपने आप हो जायेगा, लेकिन अपनी सरकार भारत के अलावा दूसरे देशो से भी अच्छे सम्बन्ध  रखना चाहती है, पडोसी बंगला देश था तो सोचा इन्ही  से संबंध सुधार की शुरुवात की  जाय, सो बुला बुला के दंगा करना शुरू किया, आखिर जहाँ नफरत है प्यार भी वही होगा..तो असम का दंगा पड़ोसी देशो से संबंध सुधार के एक अंग है.  पाकिस्तान से तो पहले ही शुरुवात कर दी गयी है. 

भ्रस्टाचार का भी मुद्दा गायब ही रखा, पिछले सालो मे कई बड़े आन्दोलन हुए बाबा के नेतृत्व मे, लेकिन ये भी मनमोहन जी की स्किल बड़ा गया, "मौलिक मौन स्किल". 
या कौन जाने ये सोचा हो की "भ्रष्टाचार" तो अपने घर की बात है, इसको पब्लिक मे उछलना ठीक नहीं , कोई भी अपने घर की इज्जत बाहर नहीं उछलता. 

काला धन पर भी चुप रहे, काला धन ?? ये क्या होता है ? अरे धन भी कही काला होता है ? धन तो बस धन होता है, अबला के पास हो तो काला और सबला के पास हो तो सफ़ेद.. और ये ध्यान रखे की नोटों पे गांधी जी का चित्र होता है  जिन्होंने अफ्रीका के कालो के लिए लड़ाई लड़ी थी, जिसका कुछ प्रभाव भारतीय नोटों पे उनका चित्र छपने की वहज से  आ ही गया तो  इतना हल्ला क्यों ??, उलटे  कलाधन को कालों के लिए संघर्ष का धन मानना चाहिए, आखिर यही संघर्ष धन तो चुनावो के समय  संघर्ष करने के काम आता  है.  

अब आईये प्रधान मंत्री के स्किल डेवलपमेंट पे, किस तरह का स्किल  बढ़ाएंगे ?? कहीं पॉकेटमार भी न आन्दोलन कर दे की हमारे  लिए उन्नत यंत्र  मंगवाओ,  आजादी के पैंसठ सालो बाद भी हमें पाकेट मारने चोरी करने मे दिक्कत आती है,  डाकू समूह मांगो को पूरा करेंगे?? वैसे काफी हद तक कर दिया है, डाकुओ मओवादियो को मुख्य धारा मे लाया जा रहा है , नौकरिया दी जा रही है, और देश का रिटायर्ड बुजुर्ग पेंशन तक के लिए दर दर की ठोकर खा रहा है. ऐसे बुजुर्गो को पैरागोन के चप्पल दे के शायद चक्कर लगवाने की स्किल डेवलप करवाई जाए या इमानदारी लाने के लिए देश का टाटा नमक सबको खिलवाया जाए.. कम से कम संसद कैंटीन के भोजनो मे तो इसका इस्तमाल जरुरी करवाया जाए. 

अब इन्तजार है लाल किले से अगले साल के भाषण का... 

नमस्कार . 

सादर कमल 

Sunday, August 12, 2012

संस्कारित शान्ति

दिलचस्प ढंग से जिंदगी जीना भी एक कला है, कुछ लोग दिलचस्प जीवन जीने का दंभ तो भरते है लेकिन वास्तव मे होता वो नकारत्मक जीवन जी रहे होते है जो उन्हें भी नहीं पता होता, ठीक वैसे ही जैसे इस्लाम का अंधा सिर्फ एक  हरे रंग को ही सतरंगा मानता है या यों कहले की मुसलमान भाईचारे का दंभ भरते हैं.  

दिलचस्प जीवन जीने के लिए ये आवश्यक है की  जिंदगी मे कुछ नया होता रहे, सीधा सादा जीवन नीरस होता है उबाऊ होता है इसके लिए कुछ होना जरुरी है, जैसे एक कवि किसी "रचना" के लिए रचना रच के प्रसन्न हो सकता है, चित्रकार किसी "चित्रलेखा" का चित्र बना खुश हो लेता है,अपने जीवन को दिलचस्प बनाता है, ये तरीके सकारात्मक कहलाते है, जो औरो को यदि सुख न दे तो कम से कम तकलीफ नहीं देते, लेकिन कुछ लोग दिलचस्प बनाने के लिए कई प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं, जो उनके हिसाब से  निश्चय सांस्कृतिक है, जो वास्तव मे संस्कारित होते हैं. 

धीरे धीरे अब  मुझे समझ आने लगा है की इस्लामी शांति क्या है ?? इस्लामी शांति वो है, जो शांति पूर्वक गैर मुसलमानों की शांति भंग करने से मिलती है, और इस प्रकार के जीवन से मुसलमानों को काफी सुकून भी मिलता है, और इस प्रकार के शान्ति को प्राप्त करने के लिए किये गए संस्कारित सांस्कृतिक कार्यक्रममो से मुसलमानों  का जीवन भी दिलचस्प बना रहता है. 

सन ८९-९० के दौरान जब कश्मीर जैसा दिलचस्प जगह के बाहुल्य लोगो के जीवन मे नीरसता आई तो उन्होंने भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा, "हिंदू भगाओ कार्यक्रम", कारण था हिन्दुवो का शांत स्वभाव होना, हिंदुओं के इस शांत स्वभाव ने मुसलमानों की संस्कारित शांत स्वभाव मे खलल डाला था अतः  हिन्दुओ के शांत  स्वभाव से आतंकित मुसलमानो ने एक फैसला किया, जब तक ये हिंदू कश्मीर छोड़ नहीं जाते तब तक हम शांति पूर्वक इनका क़त्ल करते रहेंगे, आदरपूर्वक इनकी महिलाओ का बाल्त्कार करते रहेंगे. किया भी यही, उस समय की पूरी बात समझने के लिए कृपया दिया हुआ  विडियो लिंक जरुर देखे :-  इस्लामी शान्ति 

इस तरह से एक पंथ और दो काज हो जाते हैं, एक जीवन दिलचस्प बना रहता है दूसरे इनको शान्ति का आभास  होता है. 

इनकी शान्ति इनके भाईचारा मे निहित होता है, अर्थात गैरमुस्लिम भाईयो का चारा छीन लो, नहीं मिल रहा तो क़त्ल कर दो,  इस्लामिक क्षेत्र मे ही इनकी शांति निहित होती है, अतः ये हमेशा इसके लिए सतत प्रयास रत रहते हैं.  जहाँ इनकी संख्या कम रहती है वहाँ ये खून का घूट पी कर सब कुछ सहते है, गैर मुसलमानों की शांति भी इनके संस्कारित शांति मे खलल तो डालती है जिससे इनका जीवन नीरस हो जाता है, अतः हमेशा ताक मे रहते हैं, प्रोग्राम सेट करते हैं, और मौका मिलते ही धमाका वमाका कर बता देते हैं, गैर मुसलमानों की शांति कितनी खतरनाक  होती है. 

इनकी कौम हमेशा अपने तरह के शांति टाइप भाई खोजते हैं, उनका समर्थन करते हैं, उनके ऊपर कोई आंच नहीं आने देते, यदि कोई पडोसी देश का मुसलमान भारत मे आ के कष्ट सह रहा है तो जाहिरान तौर पे गलत है, भले ही मूल निवासी  लेकिन गैर  मुसलमान  इन विस्थापितों से तंग आ चुका हो. 

शांति लाने के लिए ये जरुरी है की संख्या जादा हो, अतः नसबंदी हराम होता है, खैर ये भी संस्कार है जो बचपन से सिखाया  जाता है, और जैसे ही संख्या ठीक ठाक पहुच जाती है, ये अपना सांस्कृतिक  कार्यक्रम शुरू कर देते है.  सबसे मजे की बात ये की मुसलमान इसे खारिज कलर देते हैं, उन्हें ये कहते हुए भी पाया  जाता है की हम हुंडी टाइप के शांति के समर्थक है, लेकिन सिर्फ कहते हैं, विरोध मे सम्मलेन वगैरह नहीं होता  है, कारण ??? मुह मे आम बगल मे केवांच(एक जहरीला पौधा), लेकिन हाँ यदि इस्लामी शांति पर आंच आये तो तत्काल शांति सम्मलेन की घोषणा होती है, जिसमे ये आगजनी उपद्रव, हिंसा कर तुरंत शांति बहाल करने का  कार्य करते है. 

अभी हाल मे ही  रमजान के पवित्र महीने मे इन्होने पुणे मे शान्ति  बहाल कायम करने की कोशिश की थी,  जो सफल न हो पाया अतः जरुरी था की अपने बंगला देशी(इस्लामी देशी-बाकि तो सब बिदेशी ) भायियो के विरोध मे सड़क पर उतरे, ये हुआ भी, जम के तोड़फोड़ हिंसा के बाद इनका कुछ मनोरंजन तो अवश्य हुआ जिससे शांति बहाल होने मे मदद मिलेगी.  मुंबई भाई चारा सम्मलेन का ये  वीडियो भी जरुर देखें :-  

भगवान इन्हें शांति दे , आमीन
मुंबई मे अमर जवान ज्योति को तहस नहस करता एक शांति  एवम भाईचारा प्रेमी 

Saturday, August 4, 2012

सेलेक्शन कमेटी की चूक : ओलम्पिक


ओलम्पिक मे भारत की दुर्दशा ये दर्शाती है, की भारत अब खेल कूद से ऊपर उठ चूका है, खेल -कूद तो निठ्ठलों का काम है, बुध्ध्जिवी देश की जनता को बस देश दुनिया पे नजर रखनी चाहिए, न की खुद शामिल होना, कभी किसी बुध्ध्जिवी को प्रायोगिक रूप मे  आजतक कुछ करते देखा है ??? 

अपने प्रधानमन्त्री भी एक बुध्धिजीवी  है, शायद ही किसी ने कुछ करते देखा हो?  आजादी के बाद देश प्रगति पे था और बुध्द्जिवियों की खेती की जा रही थी, तो कुछ लोगो का रुझान "कुछ" खेलो मे था, बेहतरीन सफलता भी मिली, लेकिन  कालांतर मे ब्लड टेस्ट से डोम्पिंग मे पकड़ लिए, बदले मे उन्हें एक जीता जागता मेडल मिला, अपने खिलाडी महाराज बड़े उदार थे, भागते फिरते थे, प्रदर्सन मे अव्वल आने  के बाद भी इन्होने मेडल को स्वेच्छा  से त्याग दिया, बोले देश का देश को समर्पित, लेकिन मेडल भी बहुत जिद्दी निकला, बोला हम तो आपको ही डिजर्व करते हैं..  विश्व इतिहास मे शायद पहली बार किसी मेडल ने खिलाडी के लिए क्लेम किया है.. ऐसा है अपना देश, महान भारत, जहाँ खिलाडी फर्स्ट क्लास प्रदर्शन के बाद भी मेडल नहीं स्वीकारता जबकि मेडल खुद दौड़ा दौड़ा जबरजस्ती सीने पे चढ़ कोदो(मूँग) दरता है.  खैर ये तो था उस ज़माने के खेल जिसका मेडल अब मिला.

और तो और अपने अन्ना जी भी मनमोहन के मित्र होने जा रहे हैं, डेढ़ साल से करेंगे करेंगे लोकपाल लेंगे नहीं तो जान दे देंगे, मर जायेंगे मिट जायेंगे, सरकार हिला देंगे, लेकिन हाय रे पेट, भूख ने ऐसा हिला दिया की भगत सिंह का भूत १९४२ का  गांधी बन केजरीवाल से असहयोग आन्दोलन कर भाग बैठा..और नेहरु वाले भूत ने अरविन्द को  लेडी माउंटबटन एडविना  समझ मोहब्बत का इजहार किया. 

कालांतर मे सरकार ने खेलो पे खूब ध्यान दिया, खेलो ने खूब प्रगति की, कलमाड़ी जी इसके एक बेहतरीन उदाहरण  है, विश्व मे पहली बार किसी आयोजक ने खिलाडियों के खिलाड़ी बन अपने  बेहतरीन प्रदर्शन से देश का नाम ऊँचा किया. बोले इतने खिलाडियों को जब हम खुद खिल्वायेंगे तो हम खुद क्यों न खेले, बस खेल दूसरा था, अपनी अपनी पसंद.

अब आईये लन्दन पर, एक दो खिलाड़ी जो बुध्ध्जिविता से उब कर खेल वाले  खिलाड़ी बने तो उनको मिला क्या, कांस्य या चांदी, लेकिन इनके साथ अफसरों की चांदी जरुर  हुयी, फ्री मे लन्दन विसिट, बोले जीत गए ताली बजायेंगे, हार गए तो हमें क्या तुसाद गैलरी और लन्दन ब्रिज तो देख ही लिया.

वास्तव मे जानबूझकर अधिक मात्र मे  ऐसे खिलाड़ी भेजे गए जिनमे बुध्ध्जिविता जादा हो उससे इन अफसरों का ही फायदा था, जादा हारेंगे तो अगली बार फिर कहीं और जायेंगे, एक और ट्रिप पक्का.

वास्तव मे ओलम्पिक मे भेजने से पहले सरकार और अफसरों को पुरे देश मे खिलाडियों की खोज करनी थी, फेसबुक से , ट्विटर से जैसा की आजकल अन्ना टीम करती है, अरे भाई इन सब साधनों से जब  जनता जुटाई जा सकती  है तो खिलाड़ी ढूढना कौन सी बात है, लेकिन नहीं.. सरकार को आम तौर पर आम जनभागी नहीं चाहिए होता है .

सुबह कोने वाली दूकान पर चाय नाश्ता कर रहा था तभी, मेरे पड़ोस के पडोसी चले  आये, बोले यार देखो सारे देश इतना चांदी सोना लूट रहे हैं एक अपना भारत है ..

मैंने कहा तो ??

"तो क्या ?? मोहल्ले का "आदेश" क्या बुरा है, छंटा हुआ बदमाश है, पितौल चलाना जानता है, सोने से कम पे नहीं मानता, या तो निशाने से सोना लाता, न जीतता तो वही पितौल दिखा के ले आता.  या फिर "धमरुवा" को ले जाना था, आज भी गुलेल से सही आम तोड़ लेता है.".

मैंने सहमति मे हाँ हिलाई, उनकी आदत है, जो उनकी सहमति मे सर हिला दे उसके चाय नाश्ता का बिल वो खुद भर देते है.

फिर कहा "भागने की प्रतियोगिता मे अपने अन्ना जी को ले जाना था, जो देल्ही से मुंबई , मुंबई से रालेगन , राले गण से भर देल्ही, और फिर देल्ही से दूसरा ट्रेक पकड़ सकता है उसके सामने तो पि टी उषा भी फेल है , पक्का सोना  आता, जो न जीत पाते तो फोर्ड वाले कुछ सहायता कर देते इस मामले मे". \

मैंने फिर सहमति मे सर हिला दिया .

"तैरने वाले मे केजरीवाल को ले जाना था, इसमें वही जीत सकता है जो दूसरों को डुबाने का माद्दा रखता हो, इसने तो पुरे जनता को डूबाया और खुद तैर के भाग लिया.".

मैंने फिर सहमति मे हाँ की,

भईया कुल आज के २० रूपये और हफ्ते का मिला के १३०, चाय वाले की आवाज आयी..

मैंने देने के लिए जेब मे हाथ डाला, तभी सर हिलाने का मुवावजा देने के लिए शर्मा जी ने कहा, "आप जाओ सिंह साहब, मै दे दूँगा अभी मै कुछ देर और बैठ ओलम्पिक का जनमत करूँगा".

मैंने फिर सहमति मे सर हिलाया, समय हो चुका था, लिखने का. 

Wednesday, August 1, 2012

हैपी रमजान शिंद जी,

जनाब  शिंद जी,                                                दिनांक - ३१ जुलाई २०१२ 

सलाम वालेकुम, 

शुन्य माता को मेरा सादर चरण स्पर्श कहियेगा, और अमूल भईया को के नमस्ते, आशा है वो लोग कुशल मंगल होंगे. उनकी कुशलता मे ही आपकी-हमारी कुशलता है, उनकी प्रसन्नता मे प्रसन्नता. 

रमजान के पाक महीने मे बिजली गुल करते ही अल्लाह ने आपकी  जिस प्रकार से आपकी बरकत दी है, उससे हमें  भी सुकून है की हमारी  भी बरकत होगी. आज शाम हम रमजान के पवित्र महीने और  आपके पदोन्नति के उपलक्ष मे धमाके बाजी कर खुशी का इजहार करेंगे, खुशी छोटी सी ही सही लेकिन कई बार मे मनाई जायेगी, क्या करे अभी कसाब भाईजान की तरह अल्लाह हम पर नजरे इनायत नहीं रखता, लेकिन  जब भी मौका मिलेगा हम एक बड़ी खुशी मनाएंगे इंशा अल्लाह,  इसी बहाने हमारी प्रक्टिस भी हो जायेगी. हाँ हम वादा करते हैं की मालो असवाब को कोई नुक्सान न होगा, रमजान के महीने मे इतना डिस्काउंट तो चलता है. हम उदार ब्लास्टर है..

आपके देश मे हमारे ही भाई हमें पसंद नहीं करते, कहते मुसलमान आतंकी नहीं हो सकता, अल्लाह उनको जल्द रास्ते पे लाये, दो चार तो आ भी गएँ हैं, क्या आप भी मानते है की हम मुसलमान नहीं?? दिग्गी अंकल ने हमारे धरम पिता "ओसामा जी"  का जो सम्मान किया उसको देखते हुए भी इस देश के मुसलमान भाईयों की शंका नहीं जाती. आशा इस दिशा मे आप कुछ नए कदम उठाएंगे. 

भारत - पकिस्तान मित्रता का जो कदम आपकी सरकार ने उठाया है वो काबिले तारीफ़ है, दो देश मित्र तभी हो सकते हैं जब दोनों की विचारधारा एक हो, हमारे यहाँ के साथ साथ आपके यहाँ भी धमाके हों, तब दर्द दूसरे दर्द को समझ पायेगा. हम आप मिलकर दोनों देशो के सम्बन्ध को और मजबूत बनायेंगे इशा अल्लाह. 

आशा है खुशी मनाने के इस तरह के तरीकों पे आपको एतराज न होगा, यहाँ की जनता भी इस प्रकार के जश्न की आदि हो गयी है, और आवाम भी खुश होती है, आपकी मिडिया को हमारा शुक्रगुजार होना चाहिए, कम से कम पचास घंटे का मैटर उनको भी मिलेगा.. साथ साथ आपकी सरकार को  भी, कुछ देर के लिए ही सही लेकिन अन्ना आन्दोलन से सबका ध्यान जरुर भटकेगा. 

 कृपया आप अपना विसिट कैंसिल कर दे, खामख्वाह लोग बाते बनायेंगे.  

रमजान मुबारक , 

शब्बा खैर. 

टेरिरिस्ट वेलफेयर असोसियेशन 

(भाईयों जितनी उर्दू आती है उसी हिसाब से लिखा है, बाकी खुद समझ लीजियेगा)