नारद: साहित्य एक विज्ञानं है

Monday, March 12, 2012

साहित्य एक विज्ञानं है



चौंकिये मत, आज मै सिद्ध कर दूँगा साहित्य कैसे विज्ञान है, आब आप कहेंगे कि भला घोडा घास से दोस्ती कर सकता है  क्या ? जी हाँ जब हिंदू राष्ट्र में, हिंदू बहुल स्थान पे किसी  समुदाय विशेष  द्वारा शिवलिंग पे मूत्राशय किया जा सकता है तो साहित्य भी विज्ञान हो सकता है .

साहित्य और विज्ञान का बहुत गहरा नाता है, या यूँ कहे की सारा साहित्य विज्ञान आधारित है. एक तो सीधा सीधा की विज्ञान भी जब किताब किताब के रूप में आता है तो साहित्य का ही भाग होता है क्योंकि उसमे भी  एक भाषा शैली होती है.  मै इस वाले वैज्ञानिक साहित्य की बात नहीं कर रहा या जो साहित्य विज्ञान आधारित लिखे जाते हैं मै उसकी भी बात नहीं कर रहा. 

मै बात कर रहा हूँ उन साहित्य की जिनकी रचना विज्ञानं के सिद्धांतों पे आधारित होती है. 

आईन्स्टीन नामक एक महान वैज्ञानिक ने कहा था की  किसी भी वस्तू का बस स्वरुप बदलता है, वो न नष्ट की जा सकती है न समाप्त की जा सकती है हाँ रूप का परिवर्तन अवश्य किया जा सकता है. आज कल साहित्य भी कुछ ऐसा हो गया है और साहित्यकार इस विधा के वैज्ञानिक बन चुके है. अब चुकी चोर कहने में मुझे अभद्रता महसूस हो रही है सो इस तरह के साहित्यिक चोरों के लिए वैज्ञानिक शब्द उचित है, कम से कम मुझे आह तो न लगेगी किसी चोर की. 

किसी  की भी कोई भी रचना उठा लो, थोडा कांट छांट कर के नयी बोतल में नयी ब्रांडिंग के साथ पुरानी छकी हुई शराब उतार दो.  कुछ वैज्ञानिक  जो अमेरिका का अनुपालन करते हैं, स्वरुप बदलने तक की जहमत नहीं उठाते बल्कि ज्यों का त्यों अपने नाम से पटेंट करा लेते है, उखाड लो क्या उखाड सकते हो. 

एक और महान विज्ञानिक न्यूटन ने क्रिया- प्रतिक्रिया का नियम था. आज के साहित्य में भी कुछ वैसा ही है. एक किसी के धर्म  पे लिखता है "खराब है" तो दूसरे के प्रतिक्रिया आती है मेरा झकास उसका अंड-बंड. और इस क्रिया प्रतिक्रिया में भी बस वस्तुवों या उर्जा का रूप बदलता है और बदलकर वैमनस्य में परिवर्तित हो जाती है. 

एक और वैज्ञानिक डार्विन ने उत्तम की प्रगति टाइप का सिध्धान्त प्रतिपादित किया था.तो जिसकी रचना जितनीं अच्छी या यूँ कह ले विवादी वो उतनी ही चमकती है. उदाहरणार्थ सलमान रश्दी, डा जाकिर नायक.  और  इस तरह के वैज्ञानिको को पिटने का भी कोई भय नहीं होता, प्रयोग सतत पूरी निष्ठां के साथ जारी रहता है. 

और जो साहित्यकार इन वैज्ञानिक अवधारणाओ को अपनी रचनाओ में नहीं उतरता वो बिचारा अन्ना के आंदोलन की तरह एक किनारे पड़ा रहता है. 

अब मै ठहरा मंद बुद्धि, विज्ञान को ड्राकुला समझता रहा डरता रहा भयभीत हो के भागता रहा, सोचता हूँ कि इन पद्द्यतियों को अपन्नाया जाये लेकिन पक्के घड़े पे पे कहीं मिट्टी चढ़ती  है क्या?? अब मै इन्तजार कर रहा हूँ कि कोई वैज्ञानिक पक्के घड़े पे मिट्टी चढ़ाने के तकनीक का आविष्कार हो तो मेरा भी कुछ कल्याण हो. 

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