नारद: November 2012

Tuesday, November 27, 2012

प्रगतिवादी मुस्लिम की व्यथा


कट्टरता से भला भी हो सकता है बुरा भी, यदि कट्टरता सकारत्मक हो तो परिवेश बदल सकता है, नकारात्मक  हो तो विध्वंशक हो जाता है. 

बाबरी मस्जिद काण्ड नकारत्मक कट्टरता का ही एक नमूना है, उसका इतिहास चाहे जो भी रहा हो, भले ही वह हमारे धर्म से सम्बन्धित न रहा हो, लेकिन फिर भी वह हमारी धरोहर है, क्योकि भारत में है, हमारे देश में है और हिन्दू मुसलमान सबका है. लेकिन इसी तर्ज पे कट्टरवादी मुसलमान चार हाथ और आगे है, हाल में ही शांति के प्रतिक बुध्ध्द जी की प्रतिमा का लखनऊ में तोड़े जाना इसी  बात का प्रतिक है, मुसलमान दशको पहले बाबरी का रोना तो रोते हैं लेकिन ठीक वही काम वो आजतक करते आ रहे हैं. 

इन सब के पीछे क्या कारण है ? कुरआन ? क्योकि मुल्ले (मुसलमान नहीं ) हर बात पे ईश्वरीय वाणी का हवाला दे हर बात पे बरगलाते हैं. ये हर मुसलमान के मन में भर दिया जाता है की कुरआन ईश्वरीय वाणी है. सारी जड बस यहीं से शुरू होती है. 

जिस समय कुरआन की रचना हुयी उसका उद्देश्य बड़ा स्पष्ट था, मानव जाती को सुधारना न की बिगड़ना. इसी सोच के साथ उन्होंने कुरआन की रचना की. उन दिनों अरब में शिखर तक लुट मार और पापाचार फैला हुआ था, औरतो का बिकना, हत्या, लूटमार, वहां का लोकाचार था. जिससे मोहम्मद दुखी रहा करते थे, शायद  वो एक सदात्मा थे .. तब उन्होंने अरब वासियों को सुधारने के लिए कुरआन लिखा (लिखवाया). 

और अपने विचारो से सबको अवगत करने की सोची.लेकिन बदलाव किसको पसंद है ? लोगो ने विरोध किया, यहाँ तक की लोग मोहम्मद के दुश्मन भी हो गए, मोहम्मद भागे भागेफिरने लगे, फिर उन्हें एक उपाय सुझा, क्यों न इश्वर  का सहारा ले कर इनको इंसान बनाया जाए, कहते हैं न की हिम्मते मरदा मददे खुदा, फिर उन्होंने अपनी बातो को इश्वर वाणी बताई ताकि कम से लोग उनको सुने, यदि  मन मात्र के भले के लिए कोई झूठ बोले तो उसे पाप नहीं माना जा सकता.जिससे लोगो में बदलाव हुआ, लोग रस्ते पे आना शुरू हुए. उनको ये नहीं पता था की  मानव इतना नीच है की उनके जाने के बाद कालांतर में ये मानव अपने कुकर्मो का बिल भी उन्ही के नाम पे फाडेगा. बाद में स्वार्थी मुल्ले मौलवी मोहमद के नाम पर ही उल जलूल व्याख्या कर लोगो को कट्टर बनाने का काम शुरू किया सिर्फ अपने फायदे के लिए, बिना ये समझे की मोहम्मद ने इसको इश वाणी का नाम क्यों दिया. किसी भी चीज के दो पहलू होते है, इश्वर के नाम पे सुधार की शुरुवात मोहम्मद ने  की और बिगाड़ की शुरुवात इनके स्वार्थी अनुयायियों ने. 

कुरआन पढ़ने से स्पष्ट मालूम पड़ता  है की वो सिर्फ अरब वासियों को ध्यान में रख कर बनाया गया था. अब आप ही सोचिये यदि कुरआन भगवान्/परमेश्वर का होता तो सिर्फ अरब आधारित क्यों लिखा जता ?? सारे तथ्यों का आधार अरब ही क्यों होता ? या तो उसमे पूरी दुनिया के बन्दों को मुसलमान मानना चाहिए क्योकि इश्वर ने सारे दुनिया के हर इंसान, जीव को बनाया है.  लेकिन उसमे गैर मुसलमान का जिक्र क्यों ?? क्या बाकी भगवान् के पुत्र/या उनके बनाये नहीं है ? क्या इश्वर कभी ये कह सकता है की तुम मेरे बेटे हो और वो नहीं ? क्या इश्वर भी धर्मांध हो सकता है. हाँ  चाहे तो वो ये कह सकता था की अच्छा मुसलमान और बुरा मुसलमान, बुरे मुसलमान अपने पे ईमान लाये, न की इश्वर "गैर मुसलमान" शब्द का प्रयोग करता. क्या इश्वर मानव को दो भागो में विभक्त करना चाहता था ?  भाई धर्म अच्छी चीज है, उसका उपयोग गलत और सही हो सकता है. धरम ग्रन्थ हमारे लिए हैं हम धर्म ग्रंथो के लिए नहीं,  ठीक वैसे ही जैसे ताला चाभी घर के लिए बनाया जाता है, किसी घर को ताला चाभी के लिए नहीं बनाया जाता, क्योकि यदि हम धर्म के नाम पर धर्मांध हो गए तो हमारा फायदा, मुल्ले/पंडित/ पादरी और इन सबके पिता जी - नेता लोग उठा ले जाते है..और हमारे दिमाग में भी ये बाते बस इसीलिए भरी जाती है की हम इनके लगाम में रहे है. 

कालांतर में कुरआन में गुपचुप तरीके से न जाने कितने बदलाव हुए लेकिन ये बाहर नहीं आने दिया जाता की हमने कुछ बदलाव किया है, वो बदलाव नकारात्मक है.इन मुल्लो की परेशानी ये थी कुरआन को पूरी तरह से बदल भी नहीं सकते थे, क्योकि कुरआन आते ही कुछ अच्छे आलिम लोगो के हाथ में भी पहुची, वो इन मुल्लो का पोल खोल देते, इसलिए इन मुल्लो ने बड़े सुनियोजित ढंग से कुरआन में चुपके चुपके बदलाव किया. कई पीदियो तक.... मेरी बात की सत्यता जाचना चाहते हैं तो कुरआन की ही कई लेखको द्वारा टीका पढ़िए, सबने अपने अपने हिसाब से टिका  लिखा है. ये हाल सिर्फ कुरआन के साथ ही नहीं बाकी सारे धर्म ग्रंथो के साथ भी है . तो जब बदलाव हो ही रहा है तो सकारत्मक क्यों न हो. क्यों हम इश्वर के पाँव में जंजीर जंजीर बाध् उनको भी अपने बुरे कामो में घसीटते रहे ? 

कुरआन बस एक साहित्य है, किसी के अपने निजी विचार, जो मानव मात्र के भलाई के लिए बनायीं गयी और असरदार ढंग से काम करे इसलिए इश्वर का सहारा लिया गया. इससे जादा और कुछ नहीं ये कोई इश्वर की किताब नहीं. अब मुसलमान भाई कहते हैं, की कुरआन जैसी एक आयत लाओ जो "डिफरेंट" हो. भाई हर लेखक  अपना विचार होता है. अब मई ये कहूँ की तुम प्रेमचंद्र जैसी जैसे कोई एक कहानी लाओ, बिलकुल डिफरेंट, माने लोचा , कुरआन जैसी भी हो और डिफरेंट भी हो. अजब दिल्लगी है भाई.

फिर कहते हैं हिन्दू को धर्म नहीं, रामायण या गीता में कहीं भी इस शब्द का कोई उपयोग नहीं. बिलकुल सत्य वचन. हमारे परिवेश के कारन  हमें हिन्दू कहा गया. और रामायण और गीता में हिन्दू या किसी धर्म का नाम न होना ही उसका बड़प्पन है. क्योकि ये साहित्य मानव मात्र के कल्याण  के लिए है न की किसी विशेष धर्म या समुदाय के लिए.और इसके विपरीत कुरआन में मुसलमान का जिक्र आया है क्योकि उस जगह की परिस्थितिया और अरब जगह मुसलमान ही थे. मोहम्मद साहब ने बस इस शब्द का उपयोग न कर "बुरे" या "अच्छा"  मानव का शब्द इजाद किया होता तो शायद ही आज कोई वैमनस्यता होती. मुसलमान भाई भी कहते है की कुरआन किसी धर्म या समुदाय के लिए नहीं, बजाय इसके की यही सबसे उच्च धर्म है,और मुसलमान सबसे बेहतर है.

 हम बेहतर है" वाला ऐटीटयूट भी गलत नहीं है, बशर्ते इसी को कर्मो द्वरा पूरा किया जाये बजाय की दुसरे धर्मो और उनके प्रतीक चिन्हों पे आघात करना, जरा सोचिये किसी की भावनावो पे चोट कर क्या आप इश्वर को खुश कर सकते हैं ? जरा सोचिये दुनिया की तस्वीर क्या होगी जब "हम बेहतर है" दिखाने के लिए सारे धर्म वाले आपस में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा बेहतर से बेहतर कार्य के लिए करे. मुसलमान कहे हम बेहतर है  हमने १० को सहारा दिया, हिन्दू कहे की नहीं भाई हम भी है, हमने भी ५ को सामर्थ्यनुसार तो सहारा दिया है, इसाई कहे की हम ३ का पालन पोषण करते है. बुराई तब आ जाती है जब हम बिना कुछ किये दुसरे को कहने लगते है की तुम खराब हो.

एक प्रगतिवादी मुसलमान भाई के दिल की कसक ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ :- 
एक बात जो इस्लाम में बहस का मुद्दा हो सकती है या कहुं की सरे मज़हब का सुधर कर सकती है की क्या कुरआन और शरियत के बहार जाया जा सकता है क्या आज के समय के हिसाब से चला जा सकता है , तो में यही कहूँगा ( चाहे इसके बाद मेरे खिलाफ फतवों की बारिश भी हो जाये ) हाँ बिलकुल जाना चाहिए , और ये मुहम्मद सल्लालाहू अ.व ने भी कहा था की जब किसी नतीजे पर न जा सको तो अपने दिमाग से काम लेना हो सकता है हर बात का जवाब कुरान या हदीस न दे पाए. एक समय जो इस्लाम का सुनहरा दौर कहा जाता है उस वक्त तब एक शब्द का ज्यादा इस्तेमाल होता था एवं उसे ‘इज्तीहाद कहा जाता था। इस शब्द का अर्थ है स्वतंत्र चिन्तन। व्यवहार में यह शब्द हर आदमी औरत को यह आज़ादी देता था कि वे महजबी सीखों को आज के दौर की कसौटी पर कसें एवं फिर उन पर अमल करें। किन्तु जैसे-जैसे मुस्लिम साम्राज्य स्पेन से बगदाद तक फैला मुफ्तियों ने इस सल्तनत की रक्षा के लिए स्वतंत्र चिन्तन के द्वार बन्द कर दिये। इस तर्क एवं चिन्तन का स्थान फतवों ने ले लिया एवं मुसलमानों को सिखाया गया कि वे खुद सोचने की जगह इन फतवों पर अमल करें। इस्लाम के वर्तमान युग की त्रासदी यही है कि मुसलमान अपने दिमाग में उठने वाले सवालों को खुले में उठाने से डरते हैं एवं मुल्ला मौलवियों द्वारा जो कुछ भी कहा जाता है उस पर अमल करते हैं। और यही सरे फसाद की जड़ है ,
मेरा सभी मुसलमान भाई और बहनों से निवेदन है की ज़रा इस बात पर ज़रूर गौर करें.

अगर हम अपने उलेमा, राजनीतिज्ञों एवं मुल्लावों की तकरीरों को सुने तो वे हमेशा पश्चिमी सभ्यता के खोट गिनाते दिखेंगे किन्तु वही मुल्ला एवं पालिटीशियन अपने बच्चों को अमेरिका के स्कूल एवं कॉलेजों में दाखिले के लिए जमीन आसमान एक किये रहते हैं। तमाम अमीर मुसलमान परिवार पश्चिम में छुट्टियाँ मनाते नजर आते हैं। यहाँ तक कि धन से भरपूर खाड़ी के देशों में भी वहाँ की अवाम अपने को सोने के पिंजरे में बन्द महसूस करती है। आखिर क्या वजह है कि इस्लाम रचनात्मकता, नई सोच और मानवाधिकारों का गला घोटने वाला मजहब बन गया है। पाकिस्तान १९४७ में वजूद में आया था लेकिन एक साल बाद जन्म लेने वाले इजराइल से कहीं पीछे रह गया है।इस्लाम के पिछड़ेपन की एक बड़ी वजह यह भी है कि इस मजहब का जन्म अरब में हुआ जहाँ घुमन्तु रेगिस्तानी कबीले रहा करते थे। कबीलों की एक विशेष संस्कृति होती है। उनका अस्तित्व किसी शेख का हुकुम मानने पर निर्भर करता है। वहाँ मर्द राज करता है एवं औरत की कोई अहमियत नहीं होती।
आज भी अरब लोग खुद को असली मुसलमान और बाकी इस्लामी दुनिया को धर्मान्तरित मुसलमान समझते हैं। बाकी दुनिया के मुसलमान भी इसी अरबी मानसिकता को पालने एवं रीति रिवाजों की नकल करना चाहते हैं। मांजी का मत है कि मुस्लिम जगत पर औरतों की यह पकड़ दुनिया का सबसे बड़ा उपनिवेशवाद है। इक्कीसवीं सदी में जरूरत इस बात की है कि दुनिया के बाकी मुसलमान अरबों की इस कबीलाई सोच एवं रीति रिवाजों से छुटकारा पायें।
आप अरबी मुसलमान नहीं हैं आप हिन्दुस्तानी मुसलमान हैं और हमको चाहिए की जो रिवाज हमारे हैं अगर हम गोर करें तो कहीं भी इस्लाम के खिलाफ नहीं हैं बल्कि अरब मुल्कों से कहीं ज्यादा बेहतर हमारे मुल्क के रिवाज हैं हमको खुद को अपने मज़हबी दायरे में रहकर खुद में बदलाव लाना चाहिए जो आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है.
अगर किसी को मेरी बात से दुःख या टेस लगे तो माफ़ करना लेकिन हकीकत से मुहं छुपाना कायरता होती है.

सम्बंधित लेख (क्लिक करें)  :- ये जाहिल है, मुसलमान नहीं
सादर

कमल कुमार सिंह
२७ नवम्बर २०१२

Sunday, November 25, 2012

साध्वी प्रज्ञा जी की चिठ्ठी


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. जो उन्हों ने जेल से लिखी.. 


मैं साध्वी प्रज्ञा चंद्रपाल सिंह ठाकुर, उम्र-38 साल, पेशा-कुछ नहीं, 7 गंगा सागर ...अपार्टमेन्ट, कटोदरा, सूरत,गुजरात राज्य की निवासी हूं जबकि मैं मूलतः मध्य प्रदेश की निवासिनी हूं. कुछ साल पहले हमारे अभिभावक सूरत आकर बस गये. पिछले कुछ सालों से मैं अनुभव कर रही हूं कि भौतिक जगत से मेरा कटाव होता जा रहा है. आध्यात्मिक जगत लगातार मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था. इसके कारण मैंने भौतिक जगत को अलविदा करने का निश्चय कर लिया और 30-01-2007 को संन्यासिन हो गयी.
जब से सन्यासिन हुई हूं मैं अपने जबलपुर वाले आश्रम से निवास कर रही हूं. आश्रम में मेरा अधिकांश समय ध्यान-साधना, योग, प्राणायम और आध्यात्मिक अध्ययन में ही बीतता था. आश्रम में टीवी इत्यादि देखने की मेरी कोई आदत नहीं है, यहां तक कि आश्रम में अखबार की कोई समुचित व्यवस्था भी नहीं है. आश्रम में रहने के दिनों को छोड़ दें तो बाकी समय मैं उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में धार्मिक प्रवचन और अन्य धार्मिक कार्यों को संपन्न कराने के लिए उत्तर भारत में यात्राएं करती हूं. 23-9-2008 से 4-10-2008 के दौरान मैं इंदौर में थी और यहां मैं अपने एक शिष्य अण्णाजी के घर रूकी थी. 4 अक्टूबर की शाम को मैं अपने आश्रम जबलपुर वापस आ गयी.

7-10-2008 को जब मैं अपने जबलपुर के आश्रम में थी तो शाम को महाराष्ट्र से एटीएस के एक पुलिस अधिकारी का फोन मेरे पास आया जिन्होंने अपना नाम सावंत बताया. वे मेरी एलएमएल फ्रीडम बाईक के बारे में जानना चाहते थे. मैंने उनसे कहा कि वह बाईक तो मैंने बहुत पहले बेच दी है. अब मेरा उस बाईक से कोई नाता नहीं है. फिर भी उन्होंने मुझे कहा कि अगर मैं सूरत आ जाऊं तो वे मुझसे कुछ पूछताछ करना चाहते हैं. मेरे लिए तुरंत आश्रम छोड़कर सूरत जाना संभव नहीं था इसलिए मैंने उन्हें कहा कि हो सके तो आप ही जबलपुर आश्रम आ जाईये, आपको जो कुछ पूछताछ करनी है कर लीजिए. लेकिन उन्होंने जबलपुर आने से मना कर दिया और कहा कि जितनी जल्दी हो आप सूरत आ जाईये. फिर मैंने ही सूरत जाने का निश्चय किया और ट्रेन से उज्जैन के रास्ते 10-10-2008 को सुबह सूरत पहुंच गयी. रेलवे स्टेशन पर भीमाभाई पसरीचा मुझे लेने आये थे. उनके साथ मैं उनके निवासस्थान एटाप नगर चली गयी.
यहीं पर सुबह के कोई 10 बजे मेरी सावंत से मुलाकात हुई जो एलएमएल बाईक की खोज करते हुए पहले से ही सूरत में थे. सावंत से मैंने पूछा कि मेरी बाईक के साथ क्या हुआ और उस बाईक के बारे में आप पडताल क्यों कर रहे हैं? श्रीमान सावंत ने मुझे बताया कि पिछले सप्ताह सितंबर में मालेगांव में जो विस्फोट हुआ है उसमें वही बाईक इस्तेमाल की गयी है. यह मेरे लिए भी बिल्कुल नयी जानकारी थी कि मेरी बाईक का इस्तेमाल मालेगांव धमाकों में किया गया है. यह सुनकर मैं सन्न रह गयी. मैंने सावंत को कहा कि आप जिस एलएमएल फ्रीडम बाईक की बात कर रहे हैं उसका रंग और नंबर वही है जिसे मैंने कुछ साल पहले बेच दिया था.

सूरत में सावंत से बातचीत में ही मैंने उन्हें बता दिया था कि वह एलएमएल फ्रीडम बाईक मैंने अक्टूबर 2004 में ही मध्यप्रदेश के श्रीमान जोशी को 24 हजार में बेच दी थी. उसी महीने में मैंने आरटीओ के तहत जरूरी कागजात (टीटी फार्म) पर हस्ताक्षर करके बाईक की लेन-देन पूरी कर दी थी. मैंने साफ तौर पर सावंत को कह दिया था कि अक्टूबर 2004 के बाद से मेरा उस बाईक पर कोई अधिकार नहीं रह गया था. उसका कौन इस्तेमाल कर रहा है इससे भी मेरा कोई मतलब नहीं था. लेकिन सावंत ने कहा कि वे मेरी बात पर विश्वास नहीं कर सकते. इसलिए मुझे उनके साथ मुंबई जाना पड़ेगा ताकि वे और एटीएस के उनके अन्य साथी इस बारे में और पूछताछ कर सकें. पूछताछ के बाद मैं आश्रम आने के लिए आजाद हूं.
यहां यह ध्यान देने की बात है कि सीधे तौर पर मुझे 10-10-2008 को गिरफ्तार नहीं किया गया. मुंबई में पूछताछ के लिए ले जाने की बाबत मुझे कोई सम्मन भी नहीं दिया गया. जबकि मैं चाहती तो मैं सावंत को अपने आश्रम ही आकर पूछताछ करने के लिए मजबूर कर सकती थी क्योंकि एक नागरिक के नाते यह मेरा अधिकार है. लेकिन मैंने सावंत पर विश्वास किया और उनके साथ बातचीत के दौरान मैंने कुछ नहीं छिपाया. मैं सावंत के साथ मुंबई जाने के लिए तैयार हो गयी. सावंत ने कहा कि मैं अपने पिता से भी कहूं कि वे मेरे साथ मुंबई चलें. मैंने सावंत से कहा कि उनकी बढ़ती उम्र को देखते हुए उनको साथ लेकर चलना ठीक नहीं होगा. इसकी बजाय मैंने भीमाभाई को साथ लेकर चलने के लिए कहा जिनके घर में एटीएस मुझसे पूछताछ कर रही थी.

शाम को 5.15 मिनट पर मैं, सावंत और भीमाभाई सूरत से मुंबई के लिए चल पड़े. 10 अक्टूबर को ही देर रात हम लोग मुंबई पहुंच गये. मुझे सीधे कालाचौकी स्थित एटीएस के आफिस ले जाया गया था. इसके बाद अगले दो दिनों तक एटीएस की टीम मुझसे पूछताछ करती रही. उनके सारे सवाल 29-9-2008 को मालेगांव में हुए विस्फोट के इर्द-गिर्द ही घूम रहे थे. मैं उनके हर सवाल का सही और सीधा जवाब दे रही थी.
अक्टूबर को एटीएस ने अपनी पूछताछ का रास्ता बदल दिया. अब उसने उग्र होकर पूछताछ करना शुरू किया. पहले उन्होंने मेरे शिष्य भीमाभाई पसरीचा (जिन्हें मैं सूरत से अपने साथ लाई थी) से कहा कि वह मुझे बेल्ट और डंडे से मेरी हथेलियों, माथे और तलुओं पर प्रहार करे. जब पसरीचा ने ऐसा करने से मना किया तो एटीएस ने पहले उसको मारा-पीटा. आखिरकार वह एटीएस के कहने पर मेरे ऊपर प्रहार करने लगा. कुछ भी हो, वह मेरा शिष्य है और कोई शिष्य अपने गुरू को चोट नहीं पहुंचा सकता. इसलिए प्रहार करते वक्त भी वह इस बात का ध्यान रख रहा था कि मुझे कोई चोट न लग जाए. इसके बाद खानविलकर ने उसको किनारे धकेल दिया और बेल्ट से खुद मेरे हाथों, हथेलियों, पैरों, तलुओं पर प्रहार करने लगा. मेरे शरीर के हिस्सों में अभी भी सूजन मौजूद है.

13 तारीख तक मेरे साथ सुबह, दोपहर और रात में भी मारपीट की गयी. दो बार ऐसा हुआ कि भोर में चार बजे मुझे जगाकर मालेगांव विस्फोट के बारे में मुझसे पूछताछ की गयी. भोर में पूछताछ के दौरान एक मूछवाले आदमी ने मेरे साथ मारपीट की जिसे मैं अभी भी पहचान सकती हूं. इस दौरान एटीएस के लोगों ने मेरे साथ बातचीत में बहुत भद्दी भाषा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. मेरे गुरू का अपमान किया गया और मेरी पवित्रता पर सवाल किये गये. मुझे इतना परेशान किया गया कि मुझे लगा कि मेरे सामने आत्महत्या करने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है.

14 अक्टूबर को सुबह मुझे कुछ जांच के लिए एटीएस कार्यालय से काफी दूर ले जाया गया जहां से दोपहर में मेरी वापसी हुई. उस दिन मेरी पसरीचा से कोई मुलाकात नहीं हुई. मुझे यह भी पता नहीं था कि वे (पसरीचा) कहां है. 15 अक्टूबर को दोपहर बाद मुझे और पसरीचा को एटीएस के वाहनों में नागपाड़ा स्थित राजदूत होटल ले जाया गया जहां कमरा नंबर 315 और 314 में हमे क्रमशः बंद कर दिया गया. यहां होटल में हमने कोई पैसा जमा नहीं कराया और न ही यहां ठहरने के लिए कोई खानापूर्ति की. सारा काम एटीएस के लोगों ने ही किया.

मुझे होटल में रखने के बाद एटीएस के लोगों ने मुझे एक मोबाईल फोन दिया. एटीएस ने मुझे इसी फोन से अपने कुछ रिश्तेदारों और शिष्यों (जिसमें मेरी एक महिला शिष्य भी शामिल थी) को फोन करने के लिए कहा और कहा कि मैं फोन करके लोगों को बताऊं कि मैं एक होटल में रूकी हूं और सकुशल हूं. मैंने उनसे पहली बार यह पूछा कि आप मुझसे यह सब क्यों कहलाना चाह रहे हैं. समय आनेपर मैं उस महिला शिष्य का नाम भी सार्वजनिक कर दूंगी.

एटीएस की इस प्रताड़ना के बाद मेरे पेट और किडनी में दर्द शुरू हो गया. मुझे भूख लगनी बंद हो गयी. मेरी हालत बिगड़ रही थी. होटल राजदूत में लाने के कुछ ही घण्टे बाद मुझे एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया जिसका नाम सुश्रुसा हास्पिटल था. मुझे आईसीयू में रखा गया. इसके आधे घण्टे के अंदर ही भीमाभाई पसरीचा भी अस्पताल में लाये गये और मेरे लिए जो कुछ जरूरी कागजी कार्यवाही थी वह एटीएस ने भीमाभाई से पूरी करवाई. जैसा कि भीमाभाई ने मुझे बताया कि श्रीमान खानविलकर ने हास्पिटल में पैसे जमा करवाये. इसके बाद पसरीचा को एटीएस वहां से लेकर चली गयी जिसके बाद से मेरा उनसे किसी प्रकार का कोई संपर्क नहीं हो पाया है.

इस अस्पताल में कोई 3-4 दिन मेरा इलाज किया गया. यहां मेरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था तो मुझे यहां से एक अन्य अस्पताल में ले जाया गया जिसका नाम मुझे याद नहीं है. यह एक ऊंची ईमारत वाला अस्पताल था जहां दो-तीन दिन मेरा ईलाज किया गया. इस दौरान मेरे साथ कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं रखी गयी. न ही होटल राजदूत में और न ही इन दोनो अस्पतालों में. होटल राजदूत और दोनों अस्पताल में मुझे स्ट्रेचर पर लाया गया, इस दौरान मेरे चेहरे को एक काले कपड़े से ढंककर रखा गया. दूसरे अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद मुझे फिर एटीएस के आफिस कालाचौकी लाया गया.
इसके बाद 23-10-2008 को मुझे गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तारी के अगले दिन 24-10-2008 को मुझे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, नासिक की कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां मुझे 3-11-2008 तक पुलिस कस्टडी में रखने का आदेश हुआ. 24 तारीख तक मुझे वकील तो छोड़िये अपने परिवारवालों से भी मिलने की इजाजत नहीं दी गयी. मुझे बिना कानूनी रूप से गिरफ्तार किये ही 23-10-2008 के पहले ही पालीग्रैफिक टेस्ट किया गया. इसके बाद 1-11-2008 को दूसरा पालिग्राफिक टेस्ट किया गया. इसी के साथ मेरा नार्को टेस्ट भी किया गया.

मैं कहना चाहती हूं कि मेरा लाई डिटेक्टर टेस्ट और नार्को एनेल्सिस टेस्ट बिना मेरी अनुमति के किये गये. सभी परीक्षणों के बाद भी मालेगांव विस्फोट में मेरे शामिल होने का कोई सबूत नहीं मिल रहा था. आखिरकार 2 नवंबर को मुझे मेरी बहन प्रतिभा भगवान झा से मिलने की इजाजत दी गयी. मेरी बहन अपने साथ वकालतनामा लेकर आयी थी जो उसने और उसके पति ने वकील गणेश सोवानी से तैयार करवाया था. हम लोग कोई निजी बातचीत नहीं कर पाये क्योंकि एटीएस को लोग मेरी बातचीत सुन रहे थे. आखिरकार 3 नवंबर को ही सम्माननीय अदालत के कोर्ट रूम में मैं चार-पांच मिनट के लिए अपने वकील गणेश सोवानी से मिल पायी.

10 अक्टूबर के बाद से लगातार मेरे साथ जो कुछ किया गया उसे अपने वकील को मैं चार-पांच मिनट में ही कैसे बता पाती? इसलिए हाथ से लिखकर माननीय अदालत को मेरा जो बयान दिया था उसमें विस्तार से पूरी बात नहीं आ सकी. इसके बाद 11 नवंबर को भायखला जेल में एक महिला कांस्टेबल की मौजूदगी में मुझे अपने वकील गणेश सोवानी से एक बार फिर 4-5 मिनट के लिए मिलने का मौका दिया गया. इसके अगले दिन 13 नवंबर को मुझे फिर से 8-10 मिनट के लिए वकील से मिलने की इजाजत दी गयी. इसके बाद शुक्रवार 14 नवंबर को शाम 4.30 मिनट पर मुझे मेरे वकील से बात करने के लिए 20 मिनट का वक्त दिया गया जिसमें मैंने अपने साथ हुई सारी घटनाएं सिलसिलेवार उन्हें बताई, जिसे यहां प्रस्तुत किया गया है.

(मालेगांव बमकांड के संदेह में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा नासिक कोर्ट में दिये गये शपथपत्र पर आधारित.)

Thursday, November 15, 2012

क्षेत्रीय हिन्दू ह्रदय सम्राट - बाला साहब ठाकरे


श्री केशव सीताराम एक उच्च कोटि के समाजसेवी, लेखक, और विद्वान थे. केशव जी को "प्रबोधन" ठाकरे के नाम से भी जाना जाता है. प्रबोधन नाम  इनके लेखन  ने दिलवाया, आप बहुत  ही प्रगतिवादी एवं जातिवादी के विरोधी थे. सीताराम के मामा राजनारायण जी आपको बचपन में पनवेल से अपने साथ देवास "मध्यप्रदेश" ले आये और आपका नामांकन विक्टोरिया कालेज में करवा दिया. काफी दिनों तक  वो मध्य प्रदेश में रहे जब तक वहां प्लेग का प्रकोप न फ़ैल गया. इसके बाद सीताराम जी के पिता केशव जी, आपको लेके वापिस  पनवेल पहुच गए. देवास मध्यप्रदेश का वह जगह हैं जहाँ भारतीय करेंसी छपती है . मई  इस जगह के बारे में इस लिए जनता हूँ की मई यहाँ कई बार गया हूँ चुकी मेरे आधे घर वाले यहीं रहते हैं . 

यहीं पनवेल में बाला साहब ठाकरे का जन्म २३ जनवरी  सन १९२६ में हुआ. आप पर आपके पिता का रचनात्मकता का प्रभाव पड़ा, और आप अपने करियर के शुरुवाती दौर में चोटी के कार्टूनिस्ट थे.चुकी आपका पिता जी के जुड़ाव जनता से बेहद करीबी रूप से था सो आप  फिर राजनीति में उतरे. आप मुस्लिम तुष्टिकरण के निति से बेहद दुखी थे, आप उनके दुश्मन नहीं थे फिर भी उनकी हर नाजायज मांगो की  पूर्ति आपको नहीं सुहाती थी, एसा आपका मानना था विरोधियों का नहीं, सो इसी दिशा में आपने १९ जून सन १९६६ में "शिव सेना "  का गठन किया जो पूर्ण रूपेण हिंद्वादी संगठन के रूप में जाने जाने लगी. कहते हैं की महाराष्ट्र में एक पत्ता भी आपके मर्जी के बिना नहीं हिलता,  मैंने भी  एक व्यंगकार से सुना था की मुंबई में सुनामी इस लिए नहीं आती क्योकि आपको पसंद नहीं .

बाला साहब ठाकरे का व्यकतित्व अपने स्पष्टवादिता के कारन के कारण  काफी विवादित रहे, आपकी  बेबाक टिप्पड़ी ने आप पर हमेशा सवाल उठाया, आपको विवादित बनाया. आपने हिंदुत्व का दायरा समेट कर सिर्फ महाराष्ट्र तक ही कर दिया था, या यों कह ले की आपकी नजर में हिन्दू सिर्फ महाराष्ट्रियन ही  थे. क्योकि गैर महाराष्ट्रियन को आप और आप की पौध शक की दृष्टि से देखती थी. मुझे नहीं पता की आपकी इस हिन्दुत्व  और क्षेत्रवादी वादी सोच से किसी हिन्दू का भला हुआ या नहीं लेकिन आपकी इस सोच से हुए मार काट और दंगो ने  महाराष्ट्र में एक इतिहास लिखा है. आक्रमण कारी और आगंतुक में बहुत फर्क होता है, आक्रमण कारी सिर्फ लूटना जनता है जबकि आगंतुक कुछ सीखना, लेकिन आपने दोनों में  कभी कोई भेद रखना नहीं सीखा. 

जो भी हो  लेकिन इसके बावजूद भी एक बड़ा तबका आपको भारत भर में अपना आदर्श मानता है. जो भी हो भारत में  नकारात्मक  जेहादी की सोच रखने वालो में आप भय के पर्याय थे. आपका वाणी और  व्यकतित्व अनोखी थी जो किसी पर भी अपना गहरा प्रभाव छोड़ जाती थी. आपके प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं रहा, क्या नेता और क्या अभिनेता. दुसरे के लिए कितने भी बुरे होने वाले  बाला साहब मराठियों के लिए किसी भगवान् और कम नहीं थे.

जिन जेहादियों और कट्टर पंथियों  की  आपके सामने जबान नहीं खुलती थी वो आज आपको हस्पताल में देख शेर बने हुए थे, और अब शायद गधे भी दहाड़ने लगे तो डार्विन का सिध्धांत लागू न होगा.

ताउम्र जो  हिंदुत्व के लिए लड़ता रहा,
तभी शायद यमराज भी डरता रहा ,
रखने  को आबरू  कैफियत देवों की
मान गया , यमराज साथ चलता गया, 

Sunday, November 4, 2012

सत्ता ब्यूटी पार्लर है



आयरलैंड में एक प्रसिध्द व्यक्ति  और लेखक हुआ, जार्ज बनार्ड शा,  वह "लन्दन स्कुल आफ इकोनोमिक्स" के संस्थापको में से एक था.वह इंग्लैंड के साम्राज्यवाद निति से बड़ा दुखी रहता था, वह इंग्लैंड "कु-निति "का आलोचक था. उसका कहना था  इंग्लैंड वाले बनाने में बड़े निपुण हैं, सामान और लोगो को भी. नया सामान जब खपत न होता तो इंग्लैंड वाले अपने पादरी दुसरे देशो में भेज देते, बाद में उस देश में पादरियों पे उत्पीड़नका आरोप लगा जहाजो में अपने सैनिक भेज उसपे कब्ज़ा जमा अपना नया बाजार  तैयार कर लेते.

पादरी, इश्वर ही नहीं बल्कि नया बाजार भी उपलब्ध करवाता है. सन १६०० के आस पास उसने भारत के लिए भी यही रननिति  अपनाई. १९४७ में आजादी के बाद उसके सीने पे सांप लोटने लगा, क्योकि यहाँ स्वदेशी की आग लग गयी थी. वह दुखी था क्योकि वह दयालु है, परमेश्वर और बाजार का "कम्बो पैक" सदाचार में  मुफ्त में उपलब्ध करवाता है.

स्वदेशी ज्वाला में कही भारत जनता कहीं जल न जाएँ यह सोच के इंग्लैण्ड की आँखों में आंसू आने लगे. उसने अपनी रणनीति बदली अबकी पादरी न हो के महिलाओं का सहारा लिया गया. उसे पता था भारत में नारियो को माता, देवी शक्ति माना जाता है. नारी को अपनानाने में भारतवासी भी पीछे नहीं है. भारत ने  लेडी गोगो के गानों से लेकर वस्त्रो के आतंक से मुक्त रहने वाली "लीयोनी" जी तक को अपना लिया. उसने एक महिला को चुनकर भारत के उस समय के शक्तिशाली राजनैतिक परिवार के पुत्र के पास भेजा. उसने शायद भारतीय पुस्तके पढ़ी थी, उसे पता था की अप्सरावों को भेज किसी भी विश्वामित्र का तप भंग किया जा सकता है तो ये तो बस एक भारतीय राजनैतिक पुत्र है, यदि ये अपने झांसे में आ गया तो अपना धन्धा पहले से भी बढ़िया. हुआ भी यही, अंग्रेजी इन्द्र अपने अप्सरा को भारत में भेजने में सफल रहा. उसने प्रेममय "हवाले" से स्त्री को भारत में "इम्पोर्ट" किया, आप इसको "इम्पोज" भी कह सकते हैं. वह अप्सरा भारत आई और इस आधुनीक विश्वामित्र से कहा तुमने मुझे भारत लाके इस देश का और यूरोप का भला किया है, अब तुम्हारा काम पूरा हुआ, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य सफल हुआ, अब तुम जाओ तुम्हारा काम बस इतना ही था, तुम्हारे इस पुन्य कार्य लिए हमारे पादरियों  ने स्वर्ग में एक स्पेशल " होलीडे सेल" का निर्माण किया है. वही मौज मनाओ, यहाँ  का काम हम देख लेंगी, अब आप आराम करो.  और इस देश की जनता का क्या ? वसुधैव कुटुम्बकम सभी अपने है बस अपना उल्लू सीधा होना चाहिए.
सेर भर कबाब हो

एक अद्धा शराब हो

नूरजहाँ का राज हो

ख़ूब हो--

                                         भले ही ख़राब हो  ------- (स्व श्री सुदामा पांडे)

भारत की  नारिन्मोख जनता ने इनको भी स्वीकार कर लिया, भारत के लिए असली  ग्लोबलाईजेशन का दौर यहीं से शुरू हुआ.  "वसुधैव  कुटुम्बकम" का इससे बड़ा नमूना क्या होगा जहा भारतवासी किसी भी देश के नारी को अपना मान लेते हैं, पहले भी उन्होंने अंग्रेजो को अपना भाई माना था, क्या हुआ जो कुछ  हिस्सा ले के भाग लिए, अब भाई है तो जाय्दादा में बटवारा भी होगा ही. ये तो उनका हक़ था. नाहक ही उन्हें लोग विदेशी लुटेरे कहते हैं.  

सत्ता मिलते ही सत्ताधीन  पहले कई साल तक सत्ता को समझने की कोशिश करता है, क्योकि वह अपने को सत्ता का पति और सत्ता को  अपने हरम की एक बंदी समझता है जिसका कन्यादान  मुर्ख जनता खुद करती है.  शुरुवात में  थोडा प्यार मनुहार करता है, फिर भोगता है,  फिर बांदियो सा व्यवहार करता है, वह भूल जाता  है की जागरूकता के इस समय में दुल्हन भी तलाक ले कहीं और जा सकती है.  अपने कर्म को बताने कुकर्म को छुपाने के लिए लालची "पड़ोस के देवरों" को लगा देता है जो जनता को ये बताते है की तुमने ठीक जगह कन्यादान किया वो सुखी है तुम भी खुश रहो.   देवर भी कैमरा ले के बड़े भईया को नीचा नहीं होने देते. दुल्हन  है भी तो एकदम सीधी भारतीय ब्रांड, एक हद तक सहने को तैयार, सामने वाला  चाहे कितना भी कुकर्मी हो उसे सहना ही पड़ता है, वो बात अलग है को वो सिसकती है, रोतीहै, आजाद होना चाहती है, लेकिन उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं देता, अंततोगत्वा वह दुल्हे को तलाक का नोटिस दे इन्तजार करती है. नोटिस मिलने पर "यह"  चिंतित होता है. हाय ये क्या हुआ, क्या मेरा अब तलाक हो जायेगा? और यह कहीं और चली जाएगी ?कैसे रह पाउँगा मै इसके बिना ?  हमने सात जन्मो तक साथ जीने मरने की कसम खायी थी, इतनी जल्दी साथ छुट गया तो परमात्मा को क्या मुह दिखलाऊंगा.  नहीं नहीं यह नहीं हो सकता, ये मेरी है सिर्फ मेरी है, मेरे पुरखो ने न जाने कितनो का खून बहा के इसे छीना है, एसे न जाने दूंगा.और "यह" मुर्ख "बाबुल" से  अपनी मजबूत दावेदारी सीध्ह करने को मजमा करता है , जलसा करता है, सारे  उपक्रम  फिर से करता है.  इनके लिए सत्ता का मतलब बस इतना ही है.

हाल में रामलीला मैदान में हुए एक रैली के "त्रिफला चूर्ण" (माता -पुत्र और चचा) का भाषण रख रहा हु  जिससे  पता चलता है की ये जनता के हाजमा का कितना ख्याल करते हैं.  नेतावों की जनसेवा का अमरत्व भाव पता चलता है :-
जिसको आधी रोटी मिलती है वो पूरी खायेगा, जो आधा पेट खाता है वो पूरा पेट खायेगा, (भाई बिना सत्ता के मै भी आधा था, पहले अपना पूरा करूँ, पहले मै खाऊ, आखिर मै भी जनता हूँ. मै ठीक रहूँगा तो आप लोगो की भी सेवा होगी).
भारत एक बार फिर से खड़ा होगा पूरी दुनिया उसको एक बार फिर पहचानेगी, (यानि अभी तक ६० सालो में हमने उसे लंगड़ा कर रखा है, ताकि पहले हम खड़े हो सके, हम अपनी पहचान बना लें फेर बाकी का भी हो जायेगा).
मै बहुत आभारी हूँ आप दूर दूर आधे पेट हमारी रैली में आये आशा है आगे भी आधे पेट या खाली पेट अपनी हालत की परवाह किये बगैर हमारी रैली में आ देश को तरक्की के रास्ते पे ले जायेंगे. हमारी रैलियों में आईये  हमारे भाषण को सुनिए, आधा पेट तो आप वैसे ही भर जायेगा.

हमने इस देश में इन्फ्रास्टकचर पे ख़ास ध्यान दिया है आदर्श जैसी बिल्डिंगे बनायीं है जिससे जनता और नेता दोनों का पेट भरा है, बिल्डिंग देखिये और पेट भरिये, इतने पर भी खाली रहे तो हमारा क्या दोष ?  भ्रष्टाचारियों को दंड मिलेगा वो बात अलग है की हम उस दायरे में अपने आपको नहीं लायेंगे, हम अगर इन कानूनी लफडो में पद गए तो देश की तरक्की कौन करेगा ?..
हमारी पार्टी पर तरह तरह के आरोप लगाए जा रहे है, उसमे सच क्या है , झूठ क्या है , ये आपके विवेक पे निर्भर करता है , लेकिन एक बात आपको समझना होगा की जो शाशन में होता है वही सत्य है , वही शाश्वत है, नहीं तो है सत्ता की ताकत से बना लेंगे आप चिंता न करे आप बस सच के साथ रहें, बाकी आपके विवेक पे निर्भर है.
हमने ही सुचना का अधिकार लाया है, जिसके तहत कोई भी जानकारी आप ले सकते हैं, बशर्ते सरकार के भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में न हो, हम पैदायशी साफ़ पाक है, और आपको भी "साफ़" कर के रहेंगे.
 हमारे विरोधी हमारे बारे में उलटी बाते करते रहें, लेकिन हम उनके बारे में कोई उलटी बात नहीं कहेंगे (क्योकि हम करने में विश्वाश रखते हैं) तभी एक लोकल महिला उठती है. अपना भाषण पद्धति है और साथ वाले नेतावों को "माननीय", "सम्माननीय" जैसे प्रमाण पत्रों से नवाजती है.

एक नेता को दुसरे नेतावों को  "आदरनीय" और  "सम्मानानीय" शब्द  से नवाजना एसा लगता है जैसे एसा लगता है एक चोर दुसरे चोर को बड़े से बड़ा बताना चाहता हो ताकि उसकी बारी आये तो सामने वाला चोर भी उसे बड़ा बताये. आजादी के बाद जिन नेतावो ने चोरो को पकड़ने के लिए कड़े कानून बनाये आज उसी परिवार या दल के नेता चोरों को सर्टिफाईडी बनाने के कानून बना रहें हैं .सर्टिफाईडी चोर यानी जिनके लिए चोरी करना वैध है. इन चोर, डाकुवो को सम्मत बनाने के लिए, जनता के बीच पचाने के लिए त्रिफलाओ की पाचनपूर्ण  रैली का मख्हन से लपेटा "पाचक भाषण" परोसा जाता है. जिसको  जनता अभी समझ नहीं पा रही है. शायद जनता का जन्तत्व ख़त्म हो गया है.


''पता नहीं हम कहां से चल कर, कहां पहुंच कर ठहर गए हैं, 
हमारे सीनों पे पांव रखकर, गधों के लश्कर गुजर गए हैं, 
हमारी टूटन, तुम्हारे वादे, फना हुए कहां तेरे इरादे 
जिन चेहरों पे है निगाह डाली, कई लबादे उतर गए हैं।''


नेता अपने चोर, डाकुवों वाले वीभत्स चहरे को छुपाने के लिए सत्ता का ब्यूटीपार्लर की तरह इस्तेमाल कर रहा है. और सत्ता के तंत्र इसके प्रसाधन है(मिडिया वगैरह) जिससे अपने चहरे मोहरे चाल चलन का ट्रिमिंग, फेशियल करा खुबसूरत चेहरा जनता के सामने रख रहा है. सच ही है, सत्ता में बहुत शक्ति है, चुड़ैल को देवी और राक्षस को देवता बना सकती है, लेकिन जनता को जनता के रूप में नहि बल्कि अपने साधन के लिए इस्तमाल कर रही है.


न कोई प्रजा है

न कोई तंत्र है

यह आदमी के खिलाफ़

आदमी का खुला सा

                                             षड़यन्त्र है .---------(स्व श्री सुदामा पांडे)



सादर

कमल कुमार सिंह

४ नवम्बर २०१२

Saturday, November 3, 2012

मोहब्बत और गणित - विज्ञान


शीर्षकाविषय  एक दुसरे के विपरीत हैं,  कहाँ मोहब्बत और कहाँ गणित और विज्ञानं, कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली, लेकिन शायद ही किसी ने कभी ये जानने की कोशिश नहीं किया होगा की क्यों भोज और गंगू को ही चुना गया? क्या वास्तव में विपरीत थे? नहीं हो ही नहीं सकता, असमानता की तुलना कहीं न कहीं समानता होने पर की जा सकती है, नदी के दो पाट भी बिलकुल अलग होते हैं लेकिन दोनों ही नदी के किसी न किसी किनारे को दिशा देने में सहयोग करते हैं. निश्चित ही गंगू तेली के कोल्हू का तेल राजा भोज के रसोई में जाता होगा. गंगू बिचारा दिन भर मेहनत करता होगा, कोल्हू पेरता होगा, और उसके तेल की पकौड़िया भोज भी लपकते होंगे, तभी ये तुलना बनी होगी. 

आज भी देखो पार्टी के कार्यकर्ता कितना मेहनत  करते हैं, माला फूल से ले के जनता को वोट देने तक "फूल" बनाने की तयारी बिचारे नेतान्मोंत चेला  करते हैं, और उन्मुक्त मजा लेता है विधायक, मंत्री. 

शुरुवात के कई साल इस आशा में निकल जाते हैं की अबकी टिकट मिलेगा, तो सब कसर पूरी होगी, कौन जाने नेता जी अबकी हाई कमान से हमारी बात करें, लेकिन इनकी हालत प्रेमी सी हो जाती है जिसका फूल पहुचने वाला हरकारा खुद प्रेमिका उड़ा ;ले जाता है. तब भी चकोर माफिक ( चोर माफिक नहीं ) कभी न कभी गणित सेट  करने की  ताक में रहते हैं. मोहब्बत के गणित में अपने नेतावों को महारथ हासिल है. 

कुछ दिन पहले ही गांधीवादी और नैतिकवादी  कोंग्रेस के नेता "कम" प्रोफ़ेसर  एक प्रतियोगी को बिना ज्युडिशियल परीक्षा के जज बनाने का गणित समझा रहे थे. हलाकि की  फार्मूला लगा नहीं, जज से पहले प्रोफ़ेसर ही फेल हो गए, नौकरी से ही निकाल्द इया गया. लेकिन बाद में गांधीवादी कोंग्रेसियो को समझ आया की इतने बड़े विद्वान को अपने से दूर रखना ठीक नहीं है, इन्ही जैसे प्रोफेसरों  के उच्च ज्ञान द्वारा निर्मित जज  हमें इन्हें बचाते आयें  हैं.  सो पुनः ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाने वापिस बुला लिया है. 

वैसे भी नौजवान (आजकल नैजवान होने का दायरा बढ़ के बुजुर्ग की बाउंड्री के सीमा रेखा तक पहुच गया है, सुना है अबकी बार वाली पञ्चवर्षीय योजना में नौजवानों की पदवी ५० उम्र तक भी की जा सकती है)  बालिकावों  को शोध का विषय मान  न जाने कितने गणित लगा देते हैं, तमाम फार्मूलों का आविष्कार कर डालते हैं, और कही जो डॉक्टरेट मिल गयी तो फिर खर्चे का गणित  लगाते है,  मजे की बात ये की इन फार्मूलो को आगे बढ़ाने की हिम्मत इलाहाबाद के  मेहता रिसर्च वाले भी नहीं करते, घबराते हैं. लेकिन वो गलत करते हैं, उन्हें इस दिशा में भी प्रयास  होना चाहिए, आखिर गणित का रास्ता भी दिल से होकर निकलता है या गणित करने के बाद दिल का रास्ता निकलता है , खैर जो भी हो, लब्बो लुवाब ये है की दोनों  अलग अलग नहीं है. 

हरिशंकर परसाई ने अपने एक लेख में एक भ्रम के बारे में लिखा है, लेकिन मै उसको भ्रम नहीं बल्कि मोहब्बत का गणित मानता हूँ. अगला शाम को सूरज को एक टक  देखे जा रहा है, मै सोचता की  वो प्रकृति सौन्दर्य प्रेमी है, लेकिन सूरज डूबते है वो "लोटा" ले के बगल वाले नाले में कूद जाता  है, अर्थात सूरज उस समय तक वो मोहब्बत नहीं बल्कि नफरत कर रहा होता  है, एक तरफ पेट में इतना मरोड़, दूसरा मुआ सूरज की डूबता ही नहीं, जैसे डूबा वैसे सूरज को साधुवाद, उसकी स्थिति उस पुत्र सी होती है जिसका बाप बहुत रुपया जमा कर रखा है, लेकिन मरने में थोड़ी देरी  है.  उसका पूरा ध्यान "टाईमिंग"  का गणित लगाने में होता है की कब ये निपटे और का हमारे दिल में इनके लिए प्यार पैदा हो. क्या करे हम तो इनसे प्यार करना चाहते हैं, इनकी मुर्तिया लगवाना चाहते हैं, जिन्दगी भर इनके गुण गाना चाहते हैं, लेकिन ये हैं की मौका ही नहीं देते, तो इसमें हमारा क्या कुसूर. इनको निपटने दीजिये देखिये हम इनका कितना आदर सत्कार करते है, इनकी याद में जश्न मनाएंगे, तेरह दिन बाद भोज रखवायेंगे, इनके जाने के बाद ये खुद भी हमें ये सब करने से नहीं रोक सकते, हम पूरी आजादी के साथ इनको इज्जत देंगे. हलाकि बचपन में मै सोचा करता था की जिसके घर के लोग मर जाते हैं वो इतनी धूम धाम से क्रिया कलाप कैसे कर लेते हैं. अब पता चला की ये ख़ुशी के क्षण होते है जब एक धनि बाप का पुत्र  बिना रोक टोक के धन का उपयोग अपनी मर्जी से कर  सकता है. 
बायल के नियम से चले तो तो पुत्र का प्यार पिता के जीवन के व्युत्क्रमानुपाती होता है और चार्ल्स के नियम से पुत्र का प्यार उसके "निपटने" के समानुपाती होता है. 
प्रेमी का प्यार प्रेमिका के भाई के व्युत्क्रमानुपाती होता है और उसकी सहेली के समानुपाती होता है. प्रोफेशनल मोहब्बत आर्कीमिडिज के सिध्धांत का पालन  करती है, प्रेमिका का प्यार प्रेमी द्वारा दिए गए गिफ्ट के बराबर होता है. 

किसी बड़े और मंझे हुए मोहब्बतबाज ने कहा है "प्यार चन्द्रमा के समान होता है, या तो घटता है या बढ़ता है, स्थिर नहीं हो सकता.  यहाँ भी गणित बता जोड़ -घटना लगा गया और  मोहब्ब्तान्मुख युवा इसी परिभाषा को गले के निचे उतार दिल से लगा लेता है, कभी ढेर सारा प्यार बढाता है और और कभी ढेर सारा प्यार मिलके उसका स्वास्थ्य गिराता है. 

अल्फ्रेल्ड नोबेल जो एक जुझारु  वैज्ञानिक के  साथ साथ जुझारू मोहब्बतबाज भी थे, संसार भर में दिया जाने वाला  नोबेल पुरस्कार के प्रणेता एक गणितज्ञ से दुखी हो पुरस्कार से  गणित विषय को ही हटा दिया. 
अल्फ्रेड का एक सहयोगी था "गोस्टा मिटाग लेफ्लर".  शायद गणित का मोहब्बत में व्यवहारिक उपयोग की शुरुवात इसी ने की. नोबेल अपने काम धाम में व्यस्त रहते, और मिटाग मोहब्ब्तानुभाव  अपने फार्मूलो से  नोबेल के प्रेयसी को हल करने में लगे रहते, फार्मूला काम करते ही नोबेल के दिली विज्ञान को मिटाग के प्रमेय का नाम दिया गया. जिससे अल्फ्रेड दुखी हो गणितज्ञों  को "नोबेल" न मिलने का श्राप दे डाला. 


आज के  परिपेक्ष्य में भी गणित और मोहब्बत का चोली दामन का साथ है, गुजरात के  लोकप्रिय नेता ने एक  की प्रेमिका को ५० करोड़ का कहा तो अगला बुरा मान गया, तीन चरणों से रिफाइन हो के आया मोहब्बत सिर्फ  पचास करोड़ का ? नहीं ये अन्याय है. अरे नेता जी आपको नहीं पता तीन चरणों से रिफाइन होने के बाद मोहब्बत परिष्कृत हो जाती है, मिलावटीपन  के इस ज़माने में इतनी शुध्द कोई है तो उसे पचास करोड़ का कह अपमान न करे, कृपया शुध्धता के कीमत को पहचाने. क्योकि इस प्रकार के  नेतावो को राजनितिक शुध्धता से जादा उनका शुध्द अनमोल "परिष्कृत"  मोहब्बत प्यारा है.  


सादर 

 कमल कुमार सिंह 
३ नवंबर २०१२