नारद: March 2012

Wednesday, March 28, 2012

चचा का पान


बात सन २००३ कि है जब मैंने काशी  हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था.  यूँ तो मै इस विश्वविद्यालय से काफी समय से जुड़ा था, लेकिन नेपथ्य से वो यूँ कि स्नातक जो  कि किसी और मस्तालय से कर रहा था,  के साथ साथ मै यहाँ के इन्द्रालय (फैकल्टी ऑफ परफोर्मिंग आर्ट )  में संगीत कि शिक्षा (डिप्लोमा) लेने आता था जो  अधूरी रह गयी, गुरु अरविन्द जी ने अथक परिश्रम किया था कि वायलिन सीख जाऊं यहाँ तक की  घर बुला के व्यक्तिगत मार्ग दर्शन  भी दिया लेकिन मेरा कोमल ह्रदय अँगुलियों के साथ सामंजस्य न बना सका.

 कक्षा में घुसने से पहले ही अन्य विभागों का चक्कर लगाता , वादन विभाग के  कोयलों कि कूंक, नृत्य विभाग के पायलो कि छमछम के आगे वायलिन कंधे पे रखने वाला एक बोझिल यन्त्र मात्र सा लगता.

 मै उन विभागों के छात्रों को जो कि अनुपात में लगभग १००:१ के अनुपात में रहे होंगे, द्वेष और हिकारत कि दृष्टि से देखता.
"इनको पता क्या पता कि महिला शश्क्तिकरण क्या होता है जो शुरू से ही अल्पसंख्यक बन के रहने का आदि हो. अरे जब इन जैसे गधे गा सकते हैं तो मै क्यों नहीं ?? भले न न सीख पाऊं तो क्या कम से कम महिला आरक्षण का विरोध कर पुरुष शाश्क्तिकरण कि मांग तो हो ही सकती है", 
ये सोचते हुए मै भूल जाता कि तब मै  किसी और अन्य विभागों के छात्रों तो द्वारा डोम द्रष्टि से देखा जाऊँगा. जो मौके मिलते ही मुझे पिटने के ताक में रहेंगे.  
कुछ दिन पहले ही मैंने एक घटना देखि थी जिसमे दो छात्रों में मार पिट कि नौबत आ पहुची थी. 

पहला : "अबे किस बात के दोस्त हो? मैंने कह दिया न कि लाल वाली मेरी है, तो कहे उसके पीछे लगे हो, साले  चोरकट . 
दूसरा : तुम पिछली साल भी ऐसे ही किये थे, कुछ कर तो पाए नहीं उसके प्रेमी से पिटे वो अलग, खेलब न खेलाईब, खेल्वे बिगाडब" साले तुम्हारी  बात मान के हम उसको छोड़ दिए थे, कुल भलमंसाहत खाली हमही से. अबकी पहले परचा हम भरे हैं, सीट भी हमारी है. 

"देखो समझा देते हैं कायदे से हो जाओ यहाँ पढ़ने आते हो कि ये सब करने, चाचा जी से कह देंगे" पहला बोला 
"तो तुम्हे क्या मामा जी ने लौंडियाबाजी के लिए नाव लिखवाया है"  दूसरे ने काउंटर अटैक  किया. 

बात बढ़ते-बढ़ते मार पिट तक आ पहुचीं. बड़ी विकट स्थिति थी, दोनों उसपे अधिकार जमाए जाते थे लेकिन उस चिर सुंदरी निर्दोष यौवना को कहाँ पता था कि वो किसकी ?? बिचारी चुप चाप अपने लेडीबर्ड से आती जाती थी उसको क्या पता था उसने अनजाने में ही किसी "भारत -पकिस्तान" के लिए अपने आप को "कश्मीर" बना लिया है, जिसका निवासी कोई और ही था. 
खैर बात आई गयी हो गयी, सब एक से एक नमूने यहाँ थे कोई शंका समाधान के स्थान पे भी सुर संधान करता ,कोई पुरुष हो के भी इस तरह का व्यव्यहार करता मानो दुनिया को बताना चाहता हो स्त्री पुरुष में अब कोई भेद नहीं.  

धीरे धीरे एक साल निकल गया, पहली साल मै कछुन्नर से पास तो हो गया. अब राजस्थान में मदार के पौधे को ही पेड़ कहते हैं, मेरे लिए इतना ही काफी था. दूसरे साल मेरी हिम्मत जवाब दे गयी, आँखों से आँसू आ गए, अब तो इस परिसर को अलविदा कहने का समय आ गया. 

लेकिन मेरे नास्तिक होते हुए भी ईश्वर कि कृपा मुझपे थी ये मुझे तब पता चला फिर से भगवान ने अपने इस नास्तिक पुत्र को विश्वविद्यालय का प्रवेश आमंत्रण पत्र भिजवाया. 

काउंसिलिंग में "पि". के. ( संज्ञान हो कि ये नाम है विशेषण नहीं ) "ए के" गुरु जी  बैठे थे, ज्ञान दिया  "क्यों भविष्य बर्बाद करना चाहते हो यहाँ आके? कहीं और जाओ", लेकिन मै भी मंदार पर्वत कि तरह अटल था, सुर असुर कितना भी मंथन करवा ले क्या मजाल मै डिगता.    
कुछ दिनों बाद पता चला कि हमारा विभाग, दोनों गुरुजन को "रंगा-बिल्ला" के विशिष्ट नामकरण से अलंकृत किया था. जो शायद आज भी अपनी परम्परा बनाये हो. 

अब तो मजे ही मजे थे. फिर से वही दिन आ गए बस विभाग बदला था, वही मैत्री रेस्टुरेंट, बाबा भोले का विश्वनाथ मंदिर,  गुल बाबा का नलका. यहाँ प्रवेश लेते ही छात्र आध्यात्मिक हो जाते, हो भी न क्यों ?? एक तो भोले बाबा कि नगरी ऊपर से मंदिरों से पटा इतना बड़ा विश्वविद्यालय.

 पढाई के साथ साथ छात्र साधक बन सुबह विश्वनाथ मंदिर में पूजा और शाम गुला बाबा के पास अर्चना में बिताते थे, यदि ईश्वर ने प्रसन्न हो के एक आध सहयोगी राधा दे देता था, तो साधक तत्काल कृष्ण बन मधुबन कि ओर प्रस्थान कर देता था जो कि इसी विश्वविद्यालय का एक उपवन क्षेत्र है, और तब तक साधना करता था जब तक अभीष्ट फल कि प्राप्ति नहीं हो जाती. 

 बस एक चीज नयी थी यहाँ मेरे लिए,  पीपल का पेड़ जिसके नीचे बैठ के चचा पान लगाया करते थे. नाम तो नहीं ध्यान आ रहा है लेकिन मै भी कभी कभार गुरुजनों से नजर बचा के (नाम मात्र का जिसको आप इग्नोर कह सकते हैं) पहुच जाता था. चचा थे भी मजेदार, उनसे कोई भी  भी विद्वान  किसी भी विषय पे शास्त्रार्थ कर सकता था, चुकी मै अल्प ज्ञानी था अतः पूरा ध्यान पान पर ही लगाता,

"का चचा जल्दी  देब्बा"  मै कहता, 
"काहे नहीं बचवा, हम बईठल  काहे बदे हई, लगावत हई , तोहरो लगावत हई." चचा 

जल्दी द , टाईम नाही हौ, 
"तब जा दूसरे से लगवा ल", चचा 
नाही जौन  बात तोहरे में हौ दूसरे में मजा नाही आवत, तब्ब हम रोज आ जाईला टाईम पे.अब नाटक नाही सबके  दे ल , खाली हमार टाईम खराब करल.
"लगावत हाई  हो, रुका तईं सा, अरे कायदे से लगाईब तब्बे पूरा मजा आई न. हाली हाली में काम खराब होला." चचा 
आजकल सुनत हई बड़ा दूर दूर से लोग आवलन तोहार लेवे, जईसन सबके दे ल , वईसन मत दिहल जाएँ, तईं कायदे क दिहल जाएँ आज, बहुत मूड बनल हौ. 

दूर दूर क का ?? हम त ससुर जोर्ज बुशओ का लगा देयी, जा के पूछा अपने प्राक्टरन से बड़े मन से ले लन कुल, हर विभाग के दमी क लगाईला, का डीन , अउर का प्रोफ़ेसर, सब हमसे लगवा के खुश हो जालन . आउर त आउर अब पढ़े वाली लडकी भी लगवा के जालीन.  तब, ई होला न हो कला. हम अपने काम का मास्टर आदमी हई , तब्बे न सब दीवाना भयल हौ हमार ये बुढौती में. नेता सारन देश के  चुना लगा के डेरालन और हमसे देश भर चुना लगवा के खुश होला.

और फिर मै चुपचाप चचा का 'पान" मुह ले के मुस्कराता हुआ अपने रास्ते बढ़ जाता. 


सादर 
कमल 
२८/०३/२०१२ 


Monday, March 26, 2012

अनशन टूरिज्म

जब आप काम के बोझ से दबा हुआ  महसूस करते है तो लगाता है अब कुछ बदलाव  हो जाए जिंदगी में हर इंसान को आज कुछ नया चाहिए अपनी थकान उतारने  और अपने आपको तरो ताजा करने के लिए. उनमे से पर्यटन सबसे बेहतरीन विकल्प  है. 

आज कल तो ट्रेंड हो गया है, लोग सप्ताहांत  पे  बाहर निकल कर बहार खोजते है अपनी न हो तो दुसरे की. 

यूँ तो पर्यटन के कई आयाम है जैसे , ट्रेकिंग टूरिज्म , एडवेंचर टूरिज्म , इको टूरिज्म, कल्चरल टूरिज्म इत्यादि, लेकिन इनमे सबसे नया एक और आयाम विकसित हुआ जिससे लोगो को भरपूर मनोरंजन के साथ साथ कम खर्च में रोजगार के अवसर भी दे रहा है -"अनशन टूरिज्म" और इस नए आयाम के  संस्थापक है श्री अन्ना हजारे जी जो कभी देल्ही कभी मुंबई और अपने टीम द्वारा जगह जगह पे अनशन करवा के पर्यटन उद्योग में एक महान योग दान दे रहें हैं. 

अनशन टूरिज्म के फायदे:- 
१. अधिकतर इसका आयोजन सप्ताहांत में कराया जाता है तो ये आपके लिए सबसे बेहतर विकल्प होता हैं कि आप बिना कार्यालय से छुट्टी लिए इसका लुफ्त उठा सके. 

२. ये हमेशा किसी एसी जगह होता है जहाँ आस पास  और कई एतिहासिक महत्त्व कि चीजों हो या किसी नामी चर्चित मेट्रो शहर में जहाँ  मिडियात्मक चींजे भरपूर हो, जिससे मनोरंजन का मजा दुगुना हो जाता है. 

३. इस दौरान आयोजन  करता, बैंड पार्टी, नौटंकी , फिल्म स्टार , कवि आदि को भी बुलाते है जिससे सभी प्रकार का मनोरंजन मुफ्त में हो जाता है बिना एक कौडि खर्च किये, अन्यथा वैसे यदि आप इन कलाकरों के कंसर्ट में जाए तो हजार से दो हजार कि टिकट ही होती है . 

४. इस प्रकार के  आयोजन में नए रोजगार का निर्माण होता है जिसमे  कल्लात्मक्ता और रचना शील रोजगार का निर्माण होता है, जैसे कोई चहरे पे रंग पोतने का काम करता है, कोई टोपी बेचता है, और तो और थोक  के भाव में झंडे इतने बिक जाते है जितने १५ अगस्त और २६ जनवरी को नहीं बिकते जिससे  पर्यटन के साथ थोड़ी सी देश भावना का भी विकास हो जाता है दिखावटी तौर पे . 

५ . इस प्रकार के आयोजन प्यार मोहब्बत और  प्रेम चारे को बढ़ाने में भी सहायक है, आम तौर पर ऐसे जब गर्ल फ्रेंड किसी नयी जगह या कोई फिल्म या कंसर्ट में ले जाने कि जिद करती है तो आप  कन्फ्यूज  हो जाते हैं कि कहाँ ले जाए, जो हाथ आप उसके कहीं और लगाने की सोचते है वो सीधे आपके जेब पर चला जाता है, तो जी हाँ, अनशन टूरिज्म में ले जाईये, सारी चीजें एक साथ एक प्लेटफोर्म पे आपका इन्तजार कर रही है. 

६ . इस प्रकार के आयोजन में शामिल होने से मनोरंजन के साथ आत्मविश्वाश और भाषा शैली का भी विकास होता है, जिन नेतावो से आप डर के मारे बात नहीं कर सकते उन्हें सरे आम जम के कोस सकते हैं गालियाँ दे  सकते है जिससे  निश्चय ही व्यकतित्व में निखार आता है और आपका आत्म विश्वाश बढ़ जाता है.  

क्या करे क्या न करे :- 

जो लोग अबकी इस प्रकार के नए पर्यटन पे जा के अपना टेस्ट बदलने कि सोच रहे हैं उनके लिए कुछ मुख्य बिंदु एवम टिप्स :- 

१. जिस भी आयोजन में जाए जिसका खाए उसका गायें नहीं तो आयोजन कर्ता आपको आयोजन स्थल से भगा सकते है, या नौबत मार पीट तक भी पहुच सकती है . 

२. ये प्रकार का वोलुएंट्री पर्यटन है तो कुछ न कुछ योगदान दें हलाकि विदेश से कई संस्थाए इस प्रकार के पर्यटन को बढ़ावा दे रही है फिर भी आपसे अपेक्षित है. 

३. अनशन टूरिज्म , "रिस्पोंसिबिल टूरिज्म" से काफी मिलता जुलता है अतः अपेक्षित है कि वहाँ के लोकल लोगो कि टोपी -पापड़ का मजा उठाये जिससे स्थानीय  लोगो का भला हो.  

४. कैमरा, मोबाईल आई पोड जरुर साथ ले जाएँ, अनशन पर्यटन स्थल पे यदि आपका मनपसंद कार्यक्रम नहीं चल रहा  हो  तो अपने निजी संगीत का लाभ उठाये. वैसे कार्यक्रम के बीच बीच में स्क्रीन पे गाना बजाना बजता रहता है यदि लाईव गाना बजाना बंद हो तो.

करियर :- 

नया क्षेत्र होने कि वजह से इसमें संभावनाएं काफी जादा है, ट्रेनिंग समय में आपको अपनी  जेब से  देना पड़ सकता है लेकिन बाद में मजे ही मजे है, पैसा, रुतबा, शोहरत सब आपकी कदमो में, इस क्षेत्र में काम करना  सम्मानीय हो सकता है, ट्रेनिंग के बाद आप अनशन सीनियर एक्सिक्यूटिव के तौर पर नियुक्ति मिलती है जो अनुभव और लगन पर आपको इवेंट मनेजर के  पद  तक  ले जा सकती है. और यदि अनुभव परिपक्व हो जाए तब अपना काम भी शुरू किया जा सकता है. 

इस क्षेत्र में भविष्य तलाशने वालो के लिए  ऐसे तो कोई औपचारिक संस्थान नहीं है लेकिन फिर भी नीचे लिखे कुछ संस्थानों से संपर्क किया जा सकता है :- 

१. अन्ना इंस्टिट्यूट ऑफ अनशन मनेजमेंट. वेस्ट चैप्टर 
पता : रालेगन सिध्धि , 
संपर्क : ग्राम प्रधान . 

२.अन्ना इंस्टिट्यूट ऑफ अनशन मनेजमेंट. नोर्थ  चैप्टर 
पता : गाजिय बाद
संपर्क : कुमार विश्वाश/अरविन्द केजरीवाल

इसके अलावा भी "ए आई अ  म" के छोटे मोटे फ्रेंचाईजी बड़े-छोटे  शहरो में मिल जायेंगे जहाँ, आपको इस नए आयाम कि पूरी बारिकिया सिखाई जायेंगी, आप चाहे तो किसी एक क्षेत्र में विशेषज्ञता हासली कर सकते हैं, जैसे :-
"मीडिया मैनेज मेंट :- इसमें आपको ये सिखाया जाता है कि मिडिया कैसे आपको तवज्जो दे भला मुद्दा  गदहों कि लड़ाई का हो. और प्रोडक्ट मार्केटिंग स्वतः ही हो जाया करेगी.

"क्राउड मैनेजमेंट" :- जादा जादा पर्यटक कैसे जुटाए .

"पब्लिक इमोशनल मैनेजमेंट" :- इसमें आपको सारे मुद्दे बताये जायेंगे जिससे आप अनशन टूरिस्म को एक नए आयाम तक ले जाते है.

"सस्टेनिबिलिटी" :- अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए आपके फिल्ड में जो आये या जो पहले से रहे उसको पीछे नहीं करेंगे तब तक आपके  व्यवसाय में ठराव नहीं आयेगा, तो आप दूसरों का इस्तमाल अपने लिए कैसे करे या खुद नमस्कार करके अपने स्टाफ से दूसरों का माल खराब कैसे बताये पूरी विशेषज्ञता दी जाती है.

 जो युवा जुझारू, मेहनती (दूसरों कि मेहनत को भी छिनने में माहिर ) चापलूसी इत्यादि गुणों में आगे हों और जो कुछ अलग हट के करना चाहते है जिसमे नून न फिटकरी और रंग चोखा तो  आप ये कोर्स कर के अपना उज्जवल भविष्य बना सकते है.

आईये इस नए आयाम से सम्बंधित कुछ ताजा  चित्र देखें :-
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                                                      रंगाई कि दूकान
                                         
                                                   अनशन टूरिस्म का मजा लेते जोड़े
                                                           अनशन टूरिज्म का मजा लेते जोड़े
                                                कोने में जोड़ा अपने गर्लफ्रेंड के साथ "जन्लोक्पाल " के समर्थन में
                                              रोजगार के अवसर
                                              रोजगार के अवसर , हाँथ के आभूषण
                                                     ब्रांडिंग
                                                       रोजगार
                                                    वार्तालाप
                                              खाए पिए बिना काहे का टूरिज्म ??
                                                  बगलवाले दूसरे आयोजन , प्रबंधन के अभाव में .


                                             अंत में मै , इतना तो बनता है ...


सादर

कमल
२७/१२/२०१२ 

Saturday, March 24, 2012

अन्ना हजारे : भावनाओं और प्रबंधन का एक महान खिलाडी


आज २५ मार्च को एक बार फिर अन्ना जंतर मंतर पर अनशन कर रहें हैं, हलाकि आशीर्वाद लेने रामदेव  के पास भी गए थे, लेकिन रामदेव ने अन्ना और उनके टीम के पिछले कुटिल बैकग्राउंड (जो शायद आप सब जानते होंगे)  देखते हुए आश्वाशन का टुकड़ा फेंक कर अपनी व्यस्तता बता दी जो कि हर तरह से जायज था. 

अब बची जनता, जनता भी जान चुकी थी अन्ना के दावे और वादे कितने खोखले हैं, एक  ऐसा आन्दोलनकारी जो धमकियों और थप्पड़ से नहीं डरता जो एड्स के इंजेक्शन से नहीं डरता, वो मौसम कि मार से डर जाता है, ठण्ड से डर जाता है ( संज्ञान के लिए बता दूँ मै खुद अन्ना का समर्थक था).  अबकी जनता भी जंतर मंतर नहीं पहुची ( अभी मै जंतर मंतर पर ही हूँ, एक कोने में बैठ के ये लिख रहा हूँ). जिसमे नीयू मीडिया और सोशल नेटवर्क ने  काफी भूमिका निभाई क्योकि मीडिया तो आजकल पेड हो गयी गयी ये कोई भी बच्चा भी समझ सकता है. सो यहाँ कोई नहीं है  हाँ जितने टूरिस्ट हैं वो जरुर है या जो आमतौर पे संडे को आउटिंग करने वाले जंतु है वो कपल भी हाथ में हाथ डाले पहुचे हुए है और बीच बीच में एक दूसरे से अपने प्यार का प्रदर्शन भी सरे आम कर रहें हैं. 

अब बात आई कि अब दूकान कैसे चलायी जाए ??? जनता भी सजग, बाबा भी सजग मामला कैसे बढे. ?? 

तो एक नया प्रोडक्ट लांच  किया गया मार्केट में (न्याय ) जो कि जनता कि भावनाओं से जुड़ा हो, एकदम हॉट केक कि तरह, जिससे जनता भावनाओं में बह जाए और एक बार कुटिल चालों  में फस कर पहुचे. जो टीम पहले कहती थी कि हमारा मुद्दा सिर्फ सिर्फ जन लोकपाल है वो आज अपना प्रोडक्ट बादल एक नया इमोशनल हॉट प्रोडक्ट ले आई है सोच के कि शायद हिट हो जाए. इसके लिए उन्होंने चुना ऐसे २५ परिवारों को जिन्होंने शहादत दी है, अब वो परिवार तो आयेंगे ही क्योकि वो चोट खाए  हुए हैं, लेकिन उनके इस दर्द को भी अन्ना और टीम ने अपना प्रोडक्ट बनाने से नहीं चुके. भावनाओ का एक सही इस्तमाल कैसे किया जाए वो अन्ना से सीखे. 


पहले आंदोलन होना था १८ मार्च को उस दिन क्रिकेट मैच पड़ गया सो  ग्राहक(भीड़) को ध्यान में रखते हुए इसे २५ को किया गया, इसको आप "डे" या "कस्टमर"   मैनेजमेंट कह सकते हैं.क्योंकि मुंबई में बिना भीड़ के अन्ना इस तरह से डिमोरलाईज्ड हुए कि उनका दिल टूट गया आखिर कार भागना पड़ा.  


अब आईये अन्ना के मिडिया मैनेजमेंट पे, अभी अभी २ जी से भी बड़ा स्कीम संज्ञान में आया है लेकिन मिडिया उसको छोड़ अब अन्ना कि चौथी लड़ाई पे पूरा दिन व्यतीत करने वाली है इसका सबसे बड़ा नमूना नीचे वाली तस्वीर है जिसको मैंने कल स्टार टी वी के लाईव से लिया था, जिसमे भाजपा  के किसी मुद्दों पे बात चल रही थी और चर्चाकार में राजनीतिज्ञ और मिडिया वालों का होना तो समझ में आता है लेकिन अन्ना टीम के मनीष का होना समझ में नहीं आया, लगा कि मुल्ला कि शादी में अब्दुल्ला दीवाना. 



अब इस बात से कोई बच्चा भी समझ सकता है कि क्यों मिडिया अन्ना को इतना तवज्जो क्यों  देती है. इतना तो समझ में आता है विदेशी फंड में बड़ा दम है. 

लेकिन इतना तगड़ा प्रबन्धन होने के बावजूद अबकी अन्ना और टीम जनता को आकर्षित नहीं कर पायी है, ये अन्ना टीम के लिए सोचनीय है और साथ में अन्ना के ईमानदार मिडिया वालो को भी, कहीं अन्ना बिदक कर अपना एड देना न बंद कर दें. अन्ना मित्र मिडिया मंडली को भी अब सोचना हो कि अन्ना को किस तरह से प्रोजेक्ट किया जाए कि अन्ना के लिए कस्टमर जुटाए जा सके.

क्योकि मिडिया अन्ना के टोपी पहननें से उतारने तक का लाईव वर्णन जो कर रही है, देखने वालो के लिए हंसी का सवब बन रहा है, टूरिस्टो को भी जन भीड़ बनाने वाली मिडिया को (जिसमे एक मै भी हूँ) ध्यान में रखना चाहिए कि आम पढ़ा लिखा जागरूक जनता अब  मिडिया पे विश्वाश नहीं करता इस नीयू मिडिया और सोशल नेटवर्किंग के युग में. 

वैसे अब नीयूज चैनल से लाफ्टर चैलेन्ज वालो को भी चिंता होना लाजिमी है, क्योकि अब लोग हसने के लिए नियूज देखते हैं न कि कोई लाफ्टर शो. 

फिलहाल के लिए इतना ही. 

Friday, March 23, 2012

निरमा बाबा कि फूटी आँख


जोखुआ अब जवान हो चूका है, कोलेज आता जाता है, इस कोलेज में प्रवेश लेने से पहले जोखुआ ने कितने सपने सजाये थे, कितना अरमान था, नया कोलेज नयी पढाई , नए दोस्त , और लगे हाथ कोई अमीर लडकी  पट गयी तो भविष्य भी सुरक्षित.

स्कूल  के समय से ही देखा करता था कि कैसे लड़के -लड़किया हाथ पे हाथ डाले घूमते रहते हैं, सच उसके दिल में हूंक सी उठती थी, कि कब स्कूल पास करे और कोलेज जाये, लेकिन मुएँ स्कूल वाले पास ही नहीं करते.  

इस साल जोखुआ ने तय किया कि अबकी स्कूल पास करके रहेगा, हाथ में हाथ डाल के चलने का अधिकार लेगा और युवा समाज में गर्व के साथ सर उठा के चलेगा. 

लेकिन स्कूल पास कैसे करे ??   बबुल के पेड़  (जानने के लिए लिंक पे क्लिक करें )  वाला उपाय तो फेल हो गया था. अब करे तो क्या करे ? 

अपने पुरोहित  के पास गया, " गुरु जी अबकी किसी भी तरह पास करा दो, जिंदगी भर गुलामी करूँगा.  गुरु जी ने उसे किसी "निरमा  बाबा " के बारे में बताया  " उनकी कृपा दृष्टि मिल जाये तो कुछ हो सकता है. 

जोखुआ ने पता कि तो पाया कि ईश्वरीय  कृपा मात्र ३-४ हजार रूपये में ही प्राप्त हो जाती है, फिर क्या था, पिता जी के जेब से रुपये चुराए और कटा लिया टिकट दरबार का. 

पहुचने पे देखता है कि लोग दूर दूर से आयें है दरबार का  टिकट कटा के भले रास्ते में ट्रेन का टिकट न कटाया हो. 
बाबा  वुडलैंड का स्पोर्ट्स जुटा पहने के दूर एक  सिंघासन पे विराजमान थे एक दम मद मस्त जैसे सूरा चख ली हो (कुरआन वाला). कोई उनसे बाल काले करने का उपाय पूछ रहा है तो कोई पडोसी को निपटाने के तरीके,  किसी कि गाडी कम माईलेज देती थी, तो कोई गाडी लाने का उपाय पूछता, बाबा सबका धैर्य पूर्वक उत्तर देते. 

जोखुवा ने कई बार माईक पकडने कि कोशिश कि लेकिन हाय रे भक्त, उस दीन परीक्षा पीड़ित पे किसी कि नजर न पड़ती जिसका भविष्य ही उस माईक पर निर्भर था. 

किसी तरह माईक हाथ लगते ही झट सवाल दागा " बाबा मुझे परीक्षा में उत्तीर्ण करा दो " 

बाबा : पिचली बार कब पढाई कि थी ? 
जोखुआ : बाबा छः महीने पहले. 
बाबा : अब से रोज पढ़ा करो. 
जोखुआ : बाबा ये सलाह तो अध्यापक भी देते हैं, हमें कृपा चाहिए सलाह नहीं. 
बाबा:  रोज पढ़ो कृपा होगी.
जोखुआ : मेरे तीन हजार रूपये वापिस कीजिये. 
बाबा(भक्तो कि ओर मुह करके)  : भक्तों इनके पैसे वापिस कर दो. 

बाबा का इतना कहना था कि दो रजिस्टर्ड भक्त बाबा जोखुआ के पास आये और और उसे एक कमरे में पैसा वापिस करने ले गये. 

जोखुआ जब कमरे से बहार निकला तो उसका पूरा बदन दर्द कर रहा था, सर और माथा  यूँ लगते जैसे विन्ध्याचल कि पहाड़ियां हो. बाबा के फूटी आँख का करिश्मा था. 

जैसे तैसे जोखुआ घर आया, ठीक होने के बाद पुरोहित  कि ठुकाई कि और कमीशन वापिस माँगा जो उसे दरबार से पब्लिक रिलेशन के लिए मिले थे और अध्यापक कि बात मान जम के पढाई कि, अंततोगत्वा "जोक्खु पास हो गया".

Wednesday, March 21, 2012

मियाँ लखुर्र्दीन



मिया लफडूद्दीन बड़े दिलकश इंसान थे,एक दम मस्त अपने किस्म के इकलौते तो इतने कि संग्रहालय के डायनासोर तक जलते. बनारसी पान मुह डाल के चलते तो रंगरेजों का जी होता कि मुह से ललाई निकाल के अपने कपडे रंग लें. कुछ लोगो का शक था कि सूर्य के लाल होने में इनके मुह के पान का हाथ है. 

दिल से भी बड़े साफ़ पाक, पुरे मोहल्ले कि चिंता रखते, हाल चाल पूछते, एक बार किसी बनिए से  हाल पूछ लिया, "लाला पिछले हफ्ते पुलिस वाले ने पीटा था, अब तबियत कैसी है ?" सुन  लाला ने चार सुना दिए, "हाल पूछ रहे हो या जले पे नमक छिड़क रहे हो?, तुम्हारे भी तो बाल झड रहें हैं" . 

इन सब से ऊपर उन्हें अपने जूते से बड़ा लगाव था. कहते थे जूता महाराज बनारस ने उपहार में दिया था. ये उनके बड़े दिल होने का परिचायक था कि जूता पा के भी वो खुश थे. 

उनके इस जूता प्रेम के कारण  बरसात में मोहल्ले वाले भी खुश होते, वो इसलिए कि मियाँ जी जब भी किसी रास्ते पे चलते वहाँ ईंट पत्थर डालते चलते, मोहल्ले वालों को बना बनाया रास्ता तैयार मिलता और मुन्शिपलटी वाले भी निश्चिन्त हो जाते. उन ईंटो पे इतनी नजाकत से चलते कि हिरनी भी अपने बच्चो को उनके चलने कि कहानियाँ सुनाये.  

अपने जूते को वो हातिम ताई के जूते से कमतर न आंकते, अपना जूता उनको दूसरे के मुह से कीमती लगता, "जूता मारूंगा" एसी भाषा शायद ही किसी ने सुनी हो उनके मुह से.

एक बार किसी बात पे उखड उनकी बेगम ने वो जूता उनके सर पर दे मारा, बहुत उखड गए मियाँ जी, तुरंत जूता उठा उसको सहलाने लगे और बेगम को ताकीद कि,"आईन्दा ऐसा नहीं होना चाहिए, जूते खराब हो जाएँ तो ? बेशक किसी और चीज का प्रयोग कर लें".

किसी यदि उनसे कोई बात मनवानी होती तो जूते कि कसम पकड़ा देता, यदि किसी सबूत देना हो तो वो अपने जूते कि कसम खा लेते. 

सजीव और निर्जीव, जड़-चेतन का ऐसा रिश्ता अब तक विश्व में  देखा -सुना न गया था और आगे भी शायद जूते के इतिहास में मियाँ जी के जूतों का जिक्र जरुर हो,  कौन जाने इतिहास वाले पुरात्विक महत्व का जूता घोषित कर दें.

मोहल्ले वाले उनकी चुटकियाँ लेते, "भाभी जान से निकाह क्यों किया? अपने जूते कि सौत लाने के की क्या जरुरत थी" ?? 

जूते अब पुराने हो चले थे, और मिया जी कि उम्र भी, कभी मिया अपने उम्र और कभी जूतों को देखते थे. तो अपने कोहिनूरी जूते का इस्तमाल भी कम ही कर दिया था, खास खास मौको पर ही पहनते थे, जादा दिन हो जाने पे  उनके शुभचिंतक उनके जूते का हाल चल पूछते.

एक बार मियाँ जी को पता चला कि मोहल्ले वाले किसी मशहूर दरगाह कि और रवाना  हो रहे हैं, उनका भी जी मचल पड़ा. बेगम से सलाह मशविरा किया और मोहल्ले वालो को दरख्वास्त कि, उन्हें भी ले चला जाए. मोहल्ले तैयार तो हो गए लेकिन शाशर्त, कि रास्ते भर कुछ नहीं बोलेंगे, किसी से उसका हाल चाल नहीं पूछेंगे , न कि जूता पुराण का कोई अध्ध्याय सुनायेंगे. मियाँ जी से दबे मन से हामी भर दी थी.

काफिला रवाना  हुआ दरगाह कि ओर, आदतन मियाँ जी चुप न रह सके "अरे हजरत यदि हमारा ये जूता नया होता तो हम कब के पहुच के आप लोगो कि खातिरदारी कि तैयारियां करने लगते."

काफिला चिढ गया, और आपस में   कुछ  काना फूसी कि.

काफिला दरगाह पहुँचा, सबने मन्नते मुरादें मांगी, मियाँ जी ने भी अपने जूतों कि सलामती के लिए चद्दर चढाया, दुवाएं मांगी.  आत्मा को सूकून मिला उनके कम से कम एक नेक काम तो कर गए जूतों के साथ.

अब सोचा चलो आस पास का इलाका घूम लिया जाये, पता नहीं फिर कब आना हो.

लेकिन ये क्या?? उनके प्राण सुख गए थे, यहीं तो उतारी थी. रूह के बराबर जूता गायब था. मियाँ जी अब रोने को आये " अब तक साथ निभाया था थोड़े दिन और रुक जाते तो क्या जाता ? "

"अरे वही कहीं पड़ी होगी देख लो मिया जी कायदे से" किसी ने आवाज लगाई.

मिया जी बेतहाश हो के इधर उधर खोजने लगे, हर दूसरे जूते पे नजर पड़ती लगाता कि उन्ही का , पास जाते तो निराशा हाथ लगती. मिया जी हालत उस आशिक कि तरह हो गयी थी जिसकी महबूबा छोड़ के चली जाए तो हर हुश्न में अपनी महबूबा दिखती  थी. 

पागलो कि तरह खुदा को और मजार वाले बाबा को कोसना शुरू कर दिया, "आज ही दुआ मांगी थी और आज ही हाथ साफ़ कर दिया, पूरा मोहल्ला तो जलाता ही था मेरे जूते से आपसे भी न देखा गया", इत्यादि.

अब घर वापिस कैसे जाते? मियाँ जी हालत वैसी हो गयी थी जैसे जंग में बिना हथियार के सिपाही. थोड़ी देर में संयत हुए. आस पास उनके सहयात्रियों का जमावड़ा लग गया. ढाढस बधाना शुरू किया.

 "कैसे हुआ ? कब हुआ ? बहुत बुरा हुआ. कोई नहीं अल्लाह जो करता है कुछ सोच समझ के करता है." निराश मत होईये मिया जी, उसका साथ बस यही तक था."

 अब बेगम को क्या मुह दिखायेंगे. उनका आत्म सम्मान उन्हें झंझोंड गया. समय भी कम था, यदि दो चार घंटे में आस पास कहीं उस तरह के बन जाते तो शायद बनवा भी लेते. लेकिन ये सब बस  खयाली पुलाव् थे.

काफिला वापसी कि ओर चला लेकिन मियाँ जड़ बने मजार में सर धुनते, कि शायद मजार वाला पीर कोई उपाय सुझाए या अल्लाह कि रहमत से ऊपर से जूते ही भेज दे, उन्होंने जन्नत के हूरों से समझौता भी कर लिया  ७२ कि जगह ७० ही मिले लेकिन एक जोड़ी जूते भेज दें. लेकिन ऐसा कोई चमत्कार नहीं हुआ.

थक हार कर मजार के बहार आये , इधर देखा, उधर देखा और अल्लाह के किसी नीक बंदे का नेक जूते अपने पाँव  में सजा के ऐसे भागे जैसे दोजख का शैतान पीछे लगा हो.

घर वापसी तो हो गयी लेकिन अब मियाँ का  माहौल और  मिजाज दोनो बदल चूका था. कुछ दिन बाद मियाँ इसी सदमे से निकल लिए अपने जूतों के पास .

सादर
कमल
२१ / ३ / २०१२ 

Wednesday, March 14, 2012

आम के पेड़ वाला भूत




 बनारस शहर यूँ तो  साहित्य, संगीत, शिक्षा और अध्यात्म  के लिए जाना जाता है, लेकिन कुछ एक बात और है इस शहर में जो इसको पूरी दुनिया से अलग बनता है, वो है इस शहर की मस्ती और अल्ल्हड़पन. जहाँ रिक्शा वाला और रिक्शे पे बैठने वाला दोनों गुरु होता है. "क्या गुरु लंका चलोगे ? " रिक्शा वाला  "हा गुरु काहे नहीं ? " .

इसी शहर से दस किलोमीटर दूर एक गाँव है जिसमे हमारा निर्दोष- निश्छल, खुरापाती शिरोमणि जोखुवा  रहता था.  

उसी गाँव के मुंशी जी बड़े ही धर्म परायण दयावान इंसान थे. सूद पे पैसा बाटना और पूरी निष्ठां से वसूल करना कोई उनसे सीखे. दोनों समय गाँव के शिव मंदिर में जा के पूजाअर्चना करना उनका नित्य काम था साथ को  रोज अपनी लिस्ट भी भोले बाबा को पकड़ा आते थे. "इस साल के अंत तक ये कर दें प्रभु, अगले साल तक वो कर दें प्रभु". साथ में शिव के सहयोगी हनुमान जी से लोगो के लिए दया याचना  कर देते "हे बजरंग बलि रहमान की तबियत ठीक कर दो". (ताकि मरने से पहले उससे पैसा वसूला जा सके). लोगो को भुत प्रेत बता कर ओझाई कर पैसा वसूलना उनका काम था. और जिसके पास इलाज का पैसा न होता उसको खुद ब्याजी देते. डबल बिजिनस . 
रहमान का लड़का फैजल, जोखुआ  का परम मित्र था. आ के समस्या बताई, पंडित रोज रोज बाबा को परेशान करता है. फिर क्या था, जोखुवा को उसका नया शिकार और प्रोजेक्ट मिल चूका था. आखिर दोस्त के लिए इतना भी न करेगा ? 
दुसरे के खेत का गन्ना अपनी मेंड़ पे लाके चुसना हो या सुबह मंदिर का प्रसाद चट  करके निर्दोष भाव से अपनी कहानिया दूसरो को बताना दोनों आपस में बिना सलाह मशवरा के न करते. 

एक दिन सुबह सुबह मुंशी जी पूजा  पाठ   करके वापिस लौट रहे  थे. 

"क्या चाचा सुबह सुबह किसका ब्याज चढ़ा के आ रहे हो भोले को ? " जोखुवा बोला. 
"चुप ससुर के नाती सुबह सुबह प्रेत पता नहीं कहाँ से गया, हे भोले मेरा दिन ठीक कर देना". पंडित जी बिदक के बोले. 
" अरे हम प्रेत थोड़े न है , जिस दिन प्रेत को देख लोगे उस दिन ब्याज वाली धोती गीली हो जाएगी " जोखुवा ने फिर चुटकी ली. 
" प्रेत भी तुझसे अच्छा होगा, अरे मै हनुमान जी का भक्त हूँ, यदि तू सच्चा वाला प्रेत होता तो तुझे मजा चखा देता."  मुंशी जी ने चेतावनी दी. 

जाड़े  में सूर्य देवता भी ठण्ड से डर कर कुछ जल्द ही अन्ना की रजाई में घुस जाते है. एक शाम जब मुंशी जी भोले- हनुमान गठबंधन को रिश्वत दे के आ रहे थे तो झोखुवा घात लगा के मंदिर के आम वाले पेड़ पर तैनात था. 
जैसे ही पेड़ के नीचे से गुजरे एक आवाज आई "मुंशी रुक जा" 
"कौन है" मुंशी जी हडबडाये. एक तो शाम का समय ऊपर से आम का घना पेड़, शरीर पर काला पेंट लगाये जोखुवा को लाख कोशिशों के बजाय पंडित देख न पाए . 
" मै तेरे घर के नींव वाला भुत हूँ, कुछ दिन में तेरा घर गिर जायेगा और तू मरने वाला है." 

अब जो पंडित जी दूसरों का भुत भागते थे वो खुद पसीने से तर बतर हो गए उनको उनके पुरखों ने बताया था की ये घर एतिहासिक है भवन निर्माण के समय इसके नीव में बलि दी गयी थी" मैंने क्या किया प्रभु, "पंडित जी की करुणामयी आवाज निकली . 
"सुना है  तू हम लोगो को प्रेत कहता है , जो प्रेत तेरे घर की नीव सम्हाले हुए है, उन्ही को बदनाम करता है, मै  तुझसे अप्रसन्न हूँ " जोखुआ अपनी हंसी दबा के बोला . 

"गलती हो गयी सरकार, अब कभी न बोलूँगा, जैसा आदेश दें वैसा करूँ."   पंडित जी अपने स्वभाव अनुसार रिश्वत की तत्काल पेशकश कर दी. 
"तो सुन, मंदिर बगल वाले भैरव मंदिर पे रोज  २०० रूपये और एक बोतल दारू अगले दो महीनो तक बिना नागा किये भोर के चार बजे चढ़ावा चढ़ा,  यदि एक भी दिन नागा हुआ मै तेरी नीव छोड़ के भाग जाऊंगा.  इस गाँव के सारे  प्रेतों का जिम्मा मै लेता हूँ, वो किसी को कोई कष्ट न देंगे और तू आगे से कभी किसी को बेवकूफ नहीं बनाएगा " जोखुना ने डिमांड बताई. 

जिस प्रेत का नाम सुनने के बाद भी पंडित जी अपने को सम्ह्ले हुए थे, डिमांड सुनते ही बेहोश हो गए. लेकिन मरता क्या न करता. 

चट जोखुवा पेड़ से उतरा, पंडित के मुह पे पानी मारा, होश आने पर मुंशी जी घबराये  की और दौड़ लगा दी, "अरे भाग पठ्ठे, पेड़वा पर  भूत   हौ"

फिर क्या था अगली सुबह से जोखुवा की शाम की दवा पक्की और जो पैसे थे रहमान चाचा को दे के धीरे धीरे उनका कर्ज उतारा. 

अब मुंशी जी ने ओझाई छोड़, कथा बांचना शुरू कर दिया है. पहले से जादा सुखी भी हैं.  
सादर
कमल 
१५/०३/२०१२ 

Monday, March 12, 2012

साहित्य एक विज्ञानं है



चौंकिये मत, आज मै सिद्ध कर दूँगा साहित्य कैसे विज्ञान है, आब आप कहेंगे कि भला घोडा घास से दोस्ती कर सकता है  क्या ? जी हाँ जब हिंदू राष्ट्र में, हिंदू बहुल स्थान पे किसी  समुदाय विशेष  द्वारा शिवलिंग पे मूत्राशय किया जा सकता है तो साहित्य भी विज्ञान हो सकता है .

साहित्य और विज्ञान का बहुत गहरा नाता है, या यूँ कहे की सारा साहित्य विज्ञान आधारित है. एक तो सीधा सीधा की विज्ञान भी जब किताब किताब के रूप में आता है तो साहित्य का ही भाग होता है क्योंकि उसमे भी  एक भाषा शैली होती है.  मै इस वाले वैज्ञानिक साहित्य की बात नहीं कर रहा या जो साहित्य विज्ञान आधारित लिखे जाते हैं मै उसकी भी बात नहीं कर रहा. 

मै बात कर रहा हूँ उन साहित्य की जिनकी रचना विज्ञानं के सिद्धांतों पे आधारित होती है. 

आईन्स्टीन नामक एक महान वैज्ञानिक ने कहा था की  किसी भी वस्तू का बस स्वरुप बदलता है, वो न नष्ट की जा सकती है न समाप्त की जा सकती है हाँ रूप का परिवर्तन अवश्य किया जा सकता है. आज कल साहित्य भी कुछ ऐसा हो गया है और साहित्यकार इस विधा के वैज्ञानिक बन चुके है. अब चुकी चोर कहने में मुझे अभद्रता महसूस हो रही है सो इस तरह के साहित्यिक चोरों के लिए वैज्ञानिक शब्द उचित है, कम से कम मुझे आह तो न लगेगी किसी चोर की. 

किसी  की भी कोई भी रचना उठा लो, थोडा कांट छांट कर के नयी बोतल में नयी ब्रांडिंग के साथ पुरानी छकी हुई शराब उतार दो.  कुछ वैज्ञानिक  जो अमेरिका का अनुपालन करते हैं, स्वरुप बदलने तक की जहमत नहीं उठाते बल्कि ज्यों का त्यों अपने नाम से पटेंट करा लेते है, उखाड लो क्या उखाड सकते हो. 

एक और महान विज्ञानिक न्यूटन ने क्रिया- प्रतिक्रिया का नियम था. आज के साहित्य में भी कुछ वैसा ही है. एक किसी के धर्म  पे लिखता है "खराब है" तो दूसरे के प्रतिक्रिया आती है मेरा झकास उसका अंड-बंड. और इस क्रिया प्रतिक्रिया में भी बस वस्तुवों या उर्जा का रूप बदलता है और बदलकर वैमनस्य में परिवर्तित हो जाती है. 

एक और वैज्ञानिक डार्विन ने उत्तम की प्रगति टाइप का सिध्धान्त प्रतिपादित किया था.तो जिसकी रचना जितनीं अच्छी या यूँ कह ले विवादी वो उतनी ही चमकती है. उदाहरणार्थ सलमान रश्दी, डा जाकिर नायक.  और  इस तरह के वैज्ञानिको को पिटने का भी कोई भय नहीं होता, प्रयोग सतत पूरी निष्ठां के साथ जारी रहता है. 

और जो साहित्यकार इन वैज्ञानिक अवधारणाओ को अपनी रचनाओ में नहीं उतरता वो बिचारा अन्ना के आंदोलन की तरह एक किनारे पड़ा रहता है. 

अब मै ठहरा मंद बुद्धि, विज्ञान को ड्राकुला समझता रहा डरता रहा भयभीत हो के भागता रहा, सोचता हूँ कि इन पद्द्यतियों को अपन्नाया जाये लेकिन पक्के घड़े पे पे कहीं मिट्टी चढ़ती  है क्या?? अब मै इन्तजार कर रहा हूँ कि कोई वैज्ञानिक पक्के घड़े पे मिट्टी चढ़ाने के तकनीक का आविष्कार हो तो मेरा भी कुछ कल्याण हो. 

Tuesday, March 6, 2012

पेड मिडिया की धुलाई :



पहले तय कर लें पेड मिडिया क्या है ? 
शायद जो किसी खास राजनितिक, व्यक्ति , या परिस्थितियों के प्रभाव में खबरों को तोड़ मरोड़ कर या एक तरफ़ा खबर दिखाए उसे पेड मिडिया कहते है, 

उदाहरणार्थ : 

एन डी टी वी : 
कल बरखा दत्त सुषमा स्वराज का संभाषण सुन रहा था, कैसे बरखा दत्त भाजपा के हर जगह जीत को छिपा रही थी, और कोंग्रेस की हार को छुपा रही थी. 
क्या आपको नहीं लागता की उसी टी वी पे सोनिया गाँधी को भी होना चाहिए था. ??? आज तक मैंने सोनिया को की चैनल पे राजनैतिक बहस करते नहीं देखा .. क्या कारन हो सकते है ? क्या वो कुछ जादा इलीट है जो मीडिया में नहीं आती ? या मीडिया वाले उनसे डरते है, या उनका फेका हुआ उदरस्थ करते हैं ?? 

इंडिया टीवी : 
उनका एक कार्यक्रम है, "जनता की अदालत"  मोदी जी से ले के बाबा रामदेव तक आ चुके है, लेकिन आज तक उस कार्यक्रम में मैंने न राहुल को देखा न सोनिया को मनो दोनों इस चैनल के लिए डायनासोर हो चुके हो, वो बात अलग है की जनता के दिल से विलुप्त जरुर हो गएँ है . 

स्टार  न्यूज: 
कोंग्रेस छोड़ किसी भी कोई खेमे में कोई हलचल हुयी तो तत्काल विजय देशद्रोही और और सनाज्य बलग्लर घुस के सवालों के बौछार शुरू कर देते है जैसे किसी देवी  के आशीर्वाद से प्रेरणा ले के आये हों . 

ये तो थी कुछ चैनलों की बानगी . 

अब आईये कल के सपा के जीत पे एक नजर डालते हैं जिसने भारी  बहुमत से जीत कर बता दिया की सत्ता किसी भी बहन, दीदी, मम्मी या बेबी की नहीं. 

जीतते ही कुछ घटनाये हुई जो की निंदनीय है सिवाए एक को, की मीडियाकर्मी को बंधक बनाया. 

हम तो कहते है जम के धुलाई करनी चाहिए थी, ऐसे मीडिया कर्मियों की जो किसी ज़माने में किसी एक के लिए कम करते थे बिना निष्पक्ष हुए. खोज खोज के सामूहिक पिटायी के बाद फिर वही करना चाहिए जो आज तक कोंग्रेस कराती आयी थी. 

और यदि इस तरह की मिडिया कर्मियों की जम के पिटाई हो तो विश्वाश मानीये जनता साधुवाद देगी, और मिडिया का कुछ तो स्तर सुधरेगा और पिटाई भी अंदुरनी, बहार की चोट न दिखे, और फिर भेज दे उनको स्क्रीन के सामने. 

इसी बहाने मै मिडिया वालों से भी कहना चाहूँगा , भाईओं जैसा बोवोगे वैसा काटोगे, यदि पिटाई  किसी दूसरे राजनितिक पार्टी जो जीत चुकी है से  होती है तो होली में बुरा न मानना बल्कि इसको प्रयाश्चित समझ अपनी भूल सुधार के  आगे जिम्मेदारी  को जिम्मेदारी से निभाना.  हप्पी होली . 

सादर कामल 
०७ /०८/ २०१२

Friday, March 2, 2012

रहस्मय बिमारी



अबकी साल जोखुआ ने गाँव की प्रधानी लड़ने  की सोची, पता चला की पिछले सरपँच जी के घोटालों से बड़ा प्रभावित था जो उसके अपने सगे पिताजी थे  और उनको आदर्श मान उन्ही का अनुशरण करने की सोची. 

अब जोखुआ लग गया मिशन पर, घर घर  जाके पूछता, "सांस ले रहे हो की नहीं, अरे कल्लू तुम्हारे यहाँ अभी तक कोई बच्चा नहीं पैदा हुआ, मत घबराओ, प्रधान बनते ही मै सारी समस्याएं दूर कर दूँगा. अरे लाली तेरी शादी नहीं हो रही क्या ? मत घबरा मै हूँ न  तुझे किस बात की चिंता " इत्यादि इत्यादि . 

किसी ने कह दिया की भाई तुम तो खुद चोर लुटरे हो क्या भला करोगे हमारा, फिर क्या था, दिया दिया जोखुआ ने अपना पराक्रम गुर्गो से कह के नाक मुह एक करवा दिया, सिध्ध कर दिया की गाँव में सबसे योग्य उम्मीदवार वही है, आखिर इज्जत भी कोई चीज होतीं है भाई, जो अपनी इज्जत की रक्षा नहीं कर सकता वो भला गाँव की इज्जत कैसे सम्ह्लेगा आखिर उसके लिए भी तो पराक्रम का प्रदर्शन आवश्यक है. 

दिन बितते गए चुनाव का का दिन नजदीक आने लगा लेकिन जोखुआ बहुत परेशान था. कभी रोता था कभी हसता था, कभी पागलो की तरह सबको गालियाँ बकता था मानो दिग्गी बाबू से ट्रेनिंग ले के आया हो. 

मोहल्ले वाले जब उसके घर शिकायत करते तो अभिवाहक सफाई देते  की बच्चा है कोई बात नहीं आप लोग सयंम बनाये रखे एक दिन अक्ल आ  जायेगी.  अरे बच्चा है तो डायपर पहना के पालने में क्यों नहीं रखते कही कोई लकडसुन्घवा उठा ले गया तो?? जवाब मिलता सारे लकडसुन्घ्वा इसी के चले है छोटी उम्र में इतनी बड़ी उप्लाब्ध्धि पाया है हमारा बेटा इसकी तारीफ़ तो कर नहीं सकते उलटे आ जाते हो शिकायत करने. 

खैर तभी एक दुखद समाचार मिला, लडके माँ किसी अज्ञात बिमारी से ग्रसित हो गयीं, पुरे परिवार में मातम छ गया जैसे पूरा गाँव ही बीमार पड़ गया हो और गाँव की चिंता इस परिवार की चिंता . 

सुबह से लाइन लग गयी कुशल क्षेम पूछने वालों की, 
क्या हुआ ? 
कैसे हुआ ?
कब हुआ ? 

जवाब मिलता , 
छोडो भी, जाने दो यारों . 

जोखुआ की माता इलाज करने चली गयीं बिदेश . 

अब भाई आप लोग बताओ, ऐसा कौन सा गुप्त रोग है जो बताया नहीं जा सकता और जिसका इलाज इस देश में संभव नहीं ? देल्ही के शाहदरा और उत्तर प्रदेश के अमरोहा में तो गली गली में दुकाने है ऐसे बिमारियों की ऐसा क्या रहस्मय बिमारी है जो बतलाया नहीं जा सकता गाँव वालों को ? 

माता जी के परिवार  से सफाई आई की माता जी ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं, जहाँ से बीमारी लगी है उन्ही के सर गयी है आपको तो सराहना करनी चाहिए इस बात की.  

अब गाँव वाले दुआ कर रहे थे, काश ऐसा गुप्त रोग हमें भी लग जाता, कम से कम बिदेश की सैर तो कर आता . 

कमल ३ /३ २०१२ 

Thursday, March 1, 2012

पुस्तक मेला या मजहबी दूकान



दोस्तों आजकल प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा है जो आगामी चार मार्च तक चलेगा.
अंजू जी के पुस्तक का विमोचन होना था सो मै भी गया था. सभा निपटने के बाद जब स्टाल के चक्कर लगाने शुरुवात की हाल नो ११ से तो शुरुवात में ही एक भव्य स्टाल दिखा, हम पहुँच गए मुह उठा के.

वहाँ लाखो की किताब थी सिर्फ इस्लाम की . महँगी से महँगी . बहुत सुना था इलामी किताबो के बारे में  लेकिन किताब के आवरण देख के ही डर गया, आवरण से ही मंहगी प्रतीत होती थी .
जब चलने लगा तो किसी उस स्टाल के एक महनुभाव ने रोका कहा "बेटा तुम कुछ न लोगे "

मैंने कहा की ये पुस्तके महंगी है और मुझे कुछ साहित्यिक भी चाहिए , सारी जेब तो यहीं खाली हो जायेगी .

ये मुफ्त है बेटा, जीतनी चाहे ले सकते हो " उन्होंने कहा .

 मैंने कुछ किताबे ले ली और साधुवाद किया .

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अब सोचने वाली बात ये है की ये किताबे मुफ्त में क्यों ?? किताबे यदि जिसका पैसा दिया जाए तो वो हजारों की होती वो भी सिर्फ मेरी .निश्चय ही किताबे इस्लाम फ़ैलाने के लिए  मुफ्त में बांटी जा रही है.

वहीँ हिंदू धर्मार्थ की पुस्तके नाम मात्र लेकिन कुछ न कुछ शुल्क अवश्य था .

अब जरा सोचिये इसकी फंडिंग कौन कर रहा है. यदि मुसलमान खुद कर रहें हैं तो इसका मतलब ये है भारत के मुसलमान इतने सक्षम है की वो एक मेले में करोरों का खर्च उठा सकते हैं, जबकि हिंदू नहीं . तो पिछड़ा कौन ?? जाहिर सी बात है हिंदू , तो आरक्षण मुसलमान को क्यों ??? यदि भारतीय मुसलमान इतने सच्चे हैं की वो इस्लाम का प्रचार करने के लिए हाथ मिला सकते हैं तो तो अपने भईयों की समस्याएं भी खुद सुलझा सकते हैं .

यदि मुसलमान इस बात से मना करते हैं की ये किताबे भारतीय मुसलमानों द्वारा पोषित नहीं है तो फिर पैसा कौन दे रहा है ?? क्या अरब ?? ठीक उसी तरह से जैसे आतंकवाद  फैलाने के लिए देता है ??

यदि किसी को मेरे बात का विश्वाश नहीं तो तो कृपया पुस्तक मेले में जाएँ और खुद परख लें .

धन्यवाद .