नारद: September 2012

Sunday, September 23, 2012

उग्र भयानक और डरावना: कवि



पहले मै परेशान था  हैरान था , 
रोज आने वालो मेहमानों से अनजान था . 

एक मित्र को मैंने व्यथा बताई , 
वो बोले कलम के जमाई , 

तू क्यों परेशां है , हैरान है ?? 
तेरे पास तो सबसे बड़ा हथियार है , 

बात मेरे समझ में आयी , 
जल्द ही आजमाने की भी बारी आई . 

एक दिन  गाव से एक सज्जन पधारे , 
धम्म से बैठ गए सोफे पे रख  सामान किनारे , 

मुझसे कहा :- 

शाम को एक ऑटो कर लेना , कनात प्लेस चेलंगे , 
मई तड़ कहा , उससे पहले आप मेरी कविता सुनेंगे , 

कविता का नाम सुनते ही मायूस हो गए 
बोले  सुन  आज मूड नहीं, कनात प्लेस भी फिर कभी  चलेंगे , 

मैंने पूछा कितने दिन रुकेंगे ?? 

बोले दो चार दिन रुकुंगा, 
तुम्हारा आथित्य लूँगा , आशर्वाद दूंगा ,

मैंने कहा ठीक है , 

बिल्ली के भाग से छेंका फूटा , रोज आपको  कविता सुनाऊंगा 
बन पड़ा तो साथ कवी सम्मलेन में भी ले जाऊँगा ,  

अगली सुबह देखा तो सामन के साथ तैयार खड़े थे , 
यहाँ नहीं लग रहा मन, मई समझ गया था इनको मेरे कविता का डर. 

बोले आज बिटिया के यहाँ जाऊँगा , वही डेरा जमाऊंगा , 
कम से कम तेरी कविता से तो बच जाऊंगा . 

वो चले गए , युक्ति काम आया ,
तभी सरकार की तरफ से पैगाम आया , 

सुनो आजकल आन्दोलन बहुत हो रहे है , 
भगा पाओगे ?? 

मैंने कहा , आप तो सरकार है आन्दोलन से डरते है ?
उसने कहा , नहीं , उनके कवियों से , 

बाबा के कवी जोशीली कविता पढ़ते हैं,
बाबा से नहीं उनके कवियों से डरते है ,..

सुना है की अब अमेरिका के  बुजुर्ग भी आते है, 
योग से काम न हुआ तो, कवियों से ही जोश भरवाते है.

बाबा अन्ना  क्या है , इनको तो देख लें , 
इन कवियों का कुछ करो ये  नाहक उत्पात मचाते है . 

हम सी बी आई भेज्वाते हैं , उनपे छपा मारने को , 
वो द्वार अपने कवी खड़े कर देते  उनको कविता सुनाने को , 

एक दो को तो सुना भी दिया , जो आज तक कोमा है , 
जो भाग लिए थे बच के , उनका जीना दूभर है ,

कोई एसा उपाय लगाओ , उनके कवी भाजपा हो जाए ,  
बैठे हो के शांत , हम भी खाए वो भी खाए ,. 

कभी कभी आपसी सहमती से हूट कर लेंगे , 
मौका देख के सही सटाक , लूट क्र लेंगे . 

मैंने कहा ,   

भाई कभी नाई के बाल कभी  नाई काटता है ??
आपको भी,  कभी कोई सांप कटता है ?? 

जो काट ले गलती से भी अगर , 
तो वो सांप क्या पानी भी मांगता है ?? 

आप जाओ ये काम मै नहीं करूँगा , 
जादा परेशान करोगे तो दो चार कविता सुना दूंगा , 


कविता ने किया मेरा बड़ा उपकार , 
लोगो को दूर करने में आया बड़ा काम . 

अब आप लोग बता दो मई आपसे दूर हुआ या पास , 
 जादा परेशान नहीं करूँगा अब , सबको राम राम ...

 (कमल ) १६ सितम्बर २०१२ 

Saturday, September 22, 2012

खुजलीवाल का सत्ता सुंदरी को पत्र


 हे प्रिये सत्ता,
ढेर सारा प्यार, दुलार .

जैसा की तुम्हे मालुम है, हमारे तुम्हारे बीच की दूरीयां बहुत जादा है, और ये जालिम जमाना है की मानता  ही नहीं, समझता ही नहीं, मै बचपन से तुमसे प्यार करता हूँ, लेकिन किसी से जिक्र तक न किया, तम्हे पाने से पहले मै  तुम्हे बदनाम जो नहीं करना चाहता था."बदनाम मेरे प्यार का अफसाना हुआ है , दीवाना भी कहता है दीवाना हुआ है " .

हे प्रिये, मुझे मालुम है हमारे तुम्हारे बीच की दूरीयां बहुत जादा है लेकिन तुम तनिक भी चिंता न करना, क्योकि तुम सीता नहीं जो चिंता करो, मै  तो रामायण और माता जैसे शब्दों में विश्वाश ही नहीं करता, विश्वाश करो तुम्हे अपनाने के लिए मै कुछ भी करने को तैयार हूँ, रामदेव और माँ भारती जैसे सांप्रदायिक चीजो से मई कोसो दूर हूँ, चाचा बुखारी से बात चीत चल रही है, आशा है काम बन जायेगा. रामायण की माता लंका में थी , लेकिन तुम आधुनिका हो, तुम अपने आपको पकिस्तान में समझो, वैसे भी मेरे सहोदर सुग्रीव भूषण कश्मीर को पकिस्तान को देने के वायदे दे चुके हैं, सो चिंता की कोई  बात नहीं. बस धैर्य रखो .. बना बनाया काम बिगड़ गया,, मैंने अन्ना जैसे कुशल  इंजिनियर को  फांस कर तुम्हारे पास तक आने के लिए पुल बनवाने  के लिए तैयार करवा  लिया था  जो पराक्रम में अकेले ही  "नल -नील " के बराबर था, लेकिन तुम्हे पता है न, कलियुग में मै न तो राम हूँ न अगला "नल नील हनुमान" उसे पता  चल गया की पुल बनाते ही भारत में बलि का भी रिवाज है.  बिचारा डर के भाग गया. 

थोडा समय लगेगा तुम तक पहुचने में, कम से कम एसा मै सोचता हूँ, खैर लोग तो कहते हैं मेरे  तुम्हारा प्यार सच्चा है , और शायद  वो सही सोचते है,  और आज तक सच्चा प्यार मिल नहीं सका  नहीं सका. यदि मै तुम्हे नहीं मिल सका तो तुम मुझे बेवफा तो न समझोगी ?? मैंने तुम्हे टूट के  चाहा है, मानो या न मानो , लेकिन यही सच है.

तुम्हारे लिए मैंने क्या क्या नहीं सहा ? ?? नौकरी छोड़ी, दर दर भटका, भूखा रहा, "लेकिन तुम्हारा नाम तक जबान पे नहीं आने दिया" की कहीं तुम बदनाम न हो जाओ (वास्तव में तुसे जादा मुझे मेरी बदनामी की पड़ी थी तुम बस मिल तो जाओ एक बार , फिर देखो तुमको जाने मन से अपनी लौंडिया कैसे बनाता  हूँ ).लेकिन क्या इश्क और मुश्क छुपाये छुपा है ?? तुम मानो या ना मानो, मैंने तुम्हारे लिए अपने नेता "अन्ना" तक के आँख में धुल झोकी, लेकिन हाय रे किस्मत, हाय ये जालिम जमाना, इनको किसी का सच्चा प्यार ही नहीं सुहाता. 

जिस अन्ना को मैंने अपना अगुवा बना तुम्हारे पास अपनी कुंडली  मिलाने को भेजी थी, अब वही अमरीश पूरी बन चुका है,  लेकिन तुम घबराना मत, मै तुम्हारे लिए हर बाजी खेलने को तैयार हूँ. 

मान लो यदि तुम मुझे न मिली तो तुम  अफ़सोस न करना, कोई न कोई सुयोग्य तुम्हारे लिए आ ही जायेगा, और मै तुम्हारी छोटी बहिन "एन जी ओ " के साथ तो हु ही, उसके जरिये तुम्हारा हाल समाचार लेता रहूँगा, तुम मेरी न हो पाई तो क्या हुआ, कम से कम अपनी छोटी बहिन पे स्नेह बना के रखना.. 

बाकी का प्यार मनुहार आगले पत्र में ..

तुम्हारा , 
अरविन्द केजरीवाल. 

Friday, September 21, 2012

गैर के बहकावे में न आयें (ये काम हमारा है)


थर्ड डीग्री से तो गूंगा भी बोलता है,  जब यू पी ए की सरकार को लगा की अबकी जनता का डंडा तगड़ा लगाने वाला है तो उन्होंने अपने हर अवसर पर मौन रहने वाले मौन मोहन सिंह को "सेट" कर उनके स्वभाव के विपरीत फिर बोलने के लिए मजबूर कर दिया. 

सेटिंग में वैसे भी कोंग्रेस पुरोधा है,  पहले तमाम दल "सेट" कर सरकार बनाई, फिर सेट्टिंग को खुश रखने के लिए घोटाले किये, घोटालो को सेट करने के लिए मिडिया का सहारा लिया, बाद में जनता का ध्यान सेट करने के लिए महंगाई बढ़ाया फिर जनता की 'जान'  "सेट" करने के लिए ऍफ़ डी आई ले आया.  आजकल के मजनुवो को सरकार से सेटिंग की सीख लेनी चाहिए. जब जनता जान गयी की सरकार अब जनता की "जान" सेट करने वाली है तो जनता को सेट करने के लिए सोनिया ने मनमोहन को उनके स्वभाव के  विपरीत सेट कर टी वी सेट पर भेज दिया.

अपने स्वभाव के विपरीत  वो बोले तो सही लेकिन अपनी मौलिक रोबोटावस्था में, अब आदमी अपने स्वभाव  से कहाँ कहाँ "कोम्प्रोमाईज" करे ?? कुछ तो मौलिक होना चाहिए, माना  की सोनिया जी के निर्देश से बोले, माना की उनका लिखा हुआ भी बोले, सिर्फ भाव भंगिमा ही थी जो अपनी खुद की अपनाई जा सकती थी, सो जहाँ "स्पेस" मिला मौलिकता सेट कर दी.  

सरकार की गृहस्थी चलाने के लिए मनमोहन ने अब तक ममता को "सेट" कर रखा था, "मायके" से बुला  "ससुराल" में रखा, लेकिन हर सेटिंग डिमान्डिंग होती हैं भाई, खर्चीली होती है, आजकल महगाई के जमाने में सेट्टिंग करना  इतना आसान नहीं लेकिन सरकार ने कर दिखाया. ममता का मन  मनमोहिनी सरकार से टुटा तो सरकार को भी दिक्कत नहीं हुयी, आजकल लोग कई कई सेटिंग रखते हैं भाई. ममता के बारे में पूछे जाने पर कोंग्रेस कहती है हम उनकी आज भी इज्जत करते है ,हमेशा दरवाजा खुला है, उनका अपना  मुद्दा है ,"मतभेद है -मनभेद नहीं " इस पर मुझे सुनील जी की पंक्तिया याद आती है :- 

मैंने आज तक उसको, 
कभी  बेवफा कहा ही नहीं |
मगर वफ़ा की बात हो तो ,
उसका ज़िक्र भी अच्छा नहीं लगता |
ज़रूर उसकी बेवफायी भी
एक मज़बूरी रही होगी |
मेरे इस भरम का टूटना भी , 
मुझे कभी अच्छा नहीं लगता |(सुनील)

मनमोहिनी सरकार की वेवफाई से रूठ ममता जैसे ही वापिस "मायके" गई  "मुलायम" से नैना चार हो गए. अब सरकार चलाएगी मनमोहन और मुलायम की सेटिंग, खैर आजकल तो पुरुष का पुरुष से सेट्टिंग भी मान्य है. (आजकल सब मान्य है, कोर्ट का आदेश भी तो है इस पर ) सरकार ने गृहस्थी चलाने के लिए ढूँढा भी तो मुलायम जैसा गर्लफ्रेंड जो सरे आम कहती है मै "तीसरे"को जाउंगी, जो तेरा है वो मेरा है और जो मेरा है सिर्फ मेरा है,लेकिन सरदार के सरकार का दिल है की मानता नहीं.  

खैर जो भी हो प्रधानमन्त्री जी ने आज दिखा दिया की सरकार बुजदिल नहीं की जी जला के जिम्मेदारी भी न ले. ताल ठोक के बोला की छह सिलेंडर के बाद हम "ब्लैक"  करेंगे आप लोग इत्मीनान रखे, यदि नहीं रख सकते तो कोई बात नहीं, कम से कम दूसरो के बहकावे में न आयें क्योकि ये काम सिर्फ हमारा है, और  हमें आप पे भरोसा और  इत्मीनान  है की आप सिर्फ हमारे बहकावे में आएंगे और हमारा साथ दे हाथ मजबूत कर सकेंगे, और हम आपको विश्वाश दिलाते हैं की आने वाले दिनों में विकास की गति और जादा होगी, भले वो महगाई या घोटालो का विकास हो. अभी हमने ८% की डर से घोटाले कर महगाई  को विकसित किया है आने वाले दिनों में और भी उंचाइयां छूनी है, भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाना है , और वो तभी होगा जब हम भारत को किसी शक्तिशाली देश के हवाले कर देंगे. इतना सुनना ही था की माता जी की आवाज आई "बंद करो टी वी, 'दाढ़ीजरवा' बोल रहा है".   और मै माता जी के बहकावे में आ टी वी बंद कर दिया, आगे का भाषण आप लोगो ने सुना हो तो कृपया बताएं .  

Wednesday, September 19, 2012

इनोसेंस आफ मुस्लिम्स, बिना बॉक्स आफिस के बड़ी हिट


अमेरिका में बनी "इनोसेंस ऑफ़ इस्लाम" एक चलचित्र आजकल रजत पटल पे धूम भले न मचा रही हो, लेकिन मुसलमानों के दिलो में हलचल जरुर मची है.  खैर यदि इस ख़ास सिनेमा की बात की जाए तो हर प्रकार से घटिया  है, चाहे पात्र या चरित्र चित्रण दोनों ही. 

इसमें मोहम्मद की जीवनी को बड़ा ही वीभत्स दिखाया गया है. कुरआन किसने लिखा या लिखाया ये दो लोगो के विचारो में मतभेद हो सकता है, उसपे  बहस भी हो सकती है, होती भी है, लेकिन किसी के बारे में इस तरह की घटिया फिल्म बनाना पूरी तरह से निंदनीय है. 

खैर इसके प्रतिक्रिया स्वरुप दुनिया भर में मुसलमान "स्वभावतः" प्रदर्शन कर रहे है, कीसी एक आध देश में अमेरिका के राजदूतो को ही उड़ा दिया  गया है. और कई देशो में वीभत्स तरीके से प्रदर्शन भी हुए है.विरोध करने के ये तरीका भी निंदनीय है. 

अभी हाल में  गाजियाबाद में कुरआन जलाने के मामले पे एक इस्लामी धर्माधिकारी ने पुलिस स्टेशन में ही जा के पुलिस को गोली मार दी जिससे वो सिपाही तो बिचारा स्वर्ग सिधार गया. लेकिन वो जला हुआ पन्ना ठीक नहीं हुआ. 

मुल्लों की मूर्खता का तो ये आलम है कि ये उस "अमेरिकी फिल्म" का विरोध प्रदर्शन  हमारे हिन्दुस्थान में भी कर रहे हैं (जबकि हमारी मुस्लिम सरपरस्त सरकार आनन्-फानन में इस फिल्म को हिन्दुस्थान में पहले ही बैन कर चुकी है, इस पर, यहाँ ध्यान देने की बात है कि मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा बनाई गयी भारत माता और, हिन्दू देवी देवताओं की अश्लील तस्वीर बनाने पर इन्ही कांग्रेसियों ने उसे अभिव्यक्ति का अधिकार करार दिया था) और तो और आजम खान जैसे  मुसलमान नेता तक धर्म को ऊपर रख भारत माता को डायन तक कह देते हैं. 

जरा सोचने वाली बात है की मोहम्मद का चित्रण क्यों नहीं हो सकता ? उसमे कोई बुत परस्ती भी नहीं है ?? पुरे दुनिया में राम, कृष्ण, और ईसा मसीह का चरित्र चित्रण होता है ताकि एक आमजन उनसे प्रेरणा ले सके गलत सही का अंतर समझ सके ?लेकिन मोहम्मद का चरित्र चित्रण क्यों नहीं हो सकता ?  चरित्र का चित्रण करने में जगजाहिर बातो को तो दिखाना ही होगा, ये दिखाना चाहिए की मोहम्मद का जीवन कितना पवित्र था, क्या क्या किया, कैसे किया, और किन किन परिस्थितियों में किससे किससे और कितनी बार शादी की ?? हालाकि की चरित्र चित्रण  में कोई बुत परस्ती नहीं है यदि है भी तो  भी कोई बुराई नहीं है , क्योकि मोहम्मद अल्लाह नहीं एक इंसान थे.

यदि इस प्रकार से देखा जाए तो कुरआन भी महज एक किताब ही है, तो एक अखबार और कागद के किताब के लिए इतना उत्पात क्यों होता है?क्या इसलिए की मुसलमानों की पवित्र पुस्तक है? यदि हाँ तो ये भी बुतपरस्ती ही है...जैसे अल्लाह के मसेंज्र्र मुहामद की पूजा नहीं की जा सकती वैसे ही कुरआन की भी , जब जिसकी पूजा ही नहीं की जा सकती तो उसके लिए सियापा क्यों ??  किताब जलने या फुकने का ये मतलब तो नहीं है न की अलाह की बात ही मिट गयी , तो फिर चरित्र का चित्रण करने में भी क्या दिक्कत है ??  दूसरी बात कुरआन में अल्लाह को सर्वश्रेष्ठ माना  गया है , न की मुहम्मद को ,  तो मान लो किसी घटिया आदमी ने गन्दा चित्रण कर ही दिया तो सेंटी होने वाली क्या बात थी ?? अरे वो अल्लाह तो है नहीं न ?? और मसेंजर अल्लाह नहीं बन सकता .. 

अब कुछ लोग कहेंगे तब मूर्ति टूटने पर हिन्दुओ को भी रोष नहीं व्यक्त करना  चाहिए, तो भाई , ये सब तो हमारे "रिचुअल्स" में है "सेरेमनी " में है, ये हमारी आस्था है, हमें बताया जाता है जो भी तुम्हारे आसपास है वन्दनीय है, सबकी इज्जत करो, किसी को कष्ट न दो ... लेकिन अल्लाह ने कुरआन में कहा है जो भी है अल्लाह है , तुम कुछ भी करो बस अल्लाह को मानो, तुम तो कुरआन भी नहीं मानते.. मुहम्मद के चित्रण पे  के लिए इतना सियापा क्यों ?? अल्लाह का चित्रण तो नहीं है न ....  

मै ये कहना चाहता हूँ की कुरआन यदि आपकी पवित्र पुस्तक है तो आप किसी भी हद तक गुजर जाते हो, मरने मारने पे उतारू हो जाते हो, जबकि वो चाहे जीतनी चाहे छपवा लो, लेकिन वही अफगानिस्तान में, श्रीलंका, यहाँ तक की भारत समेत दुनिया भर में जहाँ भी इनका बस चलता है, मुर्तिया तोड़ने से बाज नहीं आते, जबकि एक मूर्ति टूटने के बाद दुबारा वैसी नहीं बनायीं जा सकती जैसी वो पहले थी. अरे भाई कम से कम वास्तुकला का नमूना मान का ही छोड़ दिया करो.

तो जरा सोचिये बौध धर्मालंबियो को कितना प्रदर्शन करना चाहिए था ? या हिंदुवो को कितना  प्रदर्शन करना चाहिए ?? निश्चय ही हिन्दू ,बौध्ध  सिख्ख ईसाई और अन्य कौमे सहिष्णु  है या  इतना तो तय है की को जादा मार काट नहीं कर सकते जैसे की ये मुसलमान कौम करती है.अब ये कौम इतना दंगा या हिंसक प्रदर्शन  करती है ???  निश्चय ही ये कुरआन का असर होगा, अन्यथा दुनिया में और भी मजहब और समुदाय है जो न तो इतने कट्टर है न ही उत्पाती ...

"तुम बेवफा ही सही, लेकिन इश्क है तुमसे,
खुद जल जायेंगे या जमाने को जला देंगे," 

एक तरफ तो कुछ बुध्दजीवी मुसलमान इस्लामी आतंकियों पे दलील देते हैं की कुछ घटिया मुसलमानों के खातिर हमारी कौम को बदनाम करना ठीक नहीं है, और उनका ये कहना भी जायज है, इसमें कोई बुराई भी नहीं,  मुठ्ठी भर कुछ  घटिया मुसलमानो की वजह से उन पर अंगुली उठाना गलत है, अब आईये दूसरा पहलू देखते हैं , तो मै  उन्ही मुसलमान भाईयो से पूछना चाहता हूँ, की यदि मान लो अमेरिका में किसी घटिया  इंसान ने कोई घटिया सी फिल्म बना ही दी तो क्या अधिकार था उस समुदाय से सम्बंधित एक राजदूत की हत्या करने की, जुल्म करने की  ??  तोड़ फोड़ करने की ??? और ये कोई पहली बार नहीं हुआ है, कोई सौ साल पहले भी स्वामी श्रधानंद समेत अन्य लोगो की हत्या भी मुसलमानों द्वारा सिर्फ  इसलिए की गयी की एक आर्यसमाजी ने इनके मुहम्मद के ऊपर कोई किताब लिख दी थी, उससे भी जादा आश्चर्य जनक बात ये है की ये  उस हत्यारे को ये अपना क्रांतिकारी, मसीहा और अल्लाह का बन्दा  मानते है, यानि जो मानवता को तार तार करे, उसे हीरो बना दो .. वैसे इस पंथ के मोहमद  मुसलमान भाईयो के सबसे बड़े हीरो है ..  

ये कौम अपने लिए जो चाहती है वही दूसरो के लिए क्यों  नहीं करना चाहती. यदि आप  चाहते है की कुछ घटिया मुसलमानों की वजह से सारे मुसलमानों को न बदनाम न किया जाए तो यही आदत पहले आप खुद अपने आप में लाईये, किसी दुसरे देश की बात को ले के तीसरे देश में शुरू हो जाते है, उस व्यक्ति के समुदाय से सम्बंधित दुसरे व्यक्तियों को मारते है, उत्पात मचाते है, सरकारी सामान्य जन की वस्तुवो को जलाते हैं नष्ट करते है,ऐसे समय में इन बुध्ध्जिवियों की दलीले गायब हो जाती है.  

सब मिला के मतला ये है की मोहम्मद के जीवनी का चित्रण होना चाहिए और उनकी अच्छाईयों को समाज में दिखाना चाहिए, कमियाँ तो लगभग सबमे होती है, खुद राम भी बारह कला संपन्न थे न सोलह की पूर्ण सोलह  कला, मोहम्मद भी खुद मैसेंजर थे न की खुद अल्लाह, तो जाहिर है कमियाँ भी रही होंगी, लेकिन जो भी अच्छाइयां  थी उनको समाज को जानने का पूरी तरह  हक़ है ताकि एक सामान्य उनके बारे में जान सके उनके आदर्शो पे चलने का प्रयत्न कर सके, बजाय की कोई मानसिक  विक्षिप्त के द्वारा बनायी गयी एक  घटिया फिल्म पे विध्वंसक प्रतिकिया करे. 
भारत सरकार ने इस सिनेमा को भारत में बैन कर  एक सरहनीय कदम उठाया है. 

सादर

कमल कुमार सिंह 


Wednesday, September 12, 2012

असीम कार्टून मत बनाओ, शहीद समाधी स्थल तोड़ो


अबे असीम,  हत्यारे को हत्यारा कहोगे तो तो हत्यारा तुम्हारी हत्या तो करेगा ही, खासकर उस हाल में जब हत्यारा  गुप्त रूप से सुपारी लेता हो ...वो "सार्वजानिक गुप्त"  मामले को सार्वजनिक करने की क्या  जरुरत थी ?? 

ख्वामखाह फस गया न ??  कोई कुछ नहीं बोलेगा, कोई निंदा नहीं , कोई बहस नहीं. अरे कान के कच्चे आँख के अंधे, मुंबई "हमला सांस्कृतिक कार्यक्रम " से नहीं सीखा क्या ?? ले रहा है  कोई उसका नाम जिसने शहीदों के सीने पे लात  मारी थी ?? मरे हुए को प्रताड़ित करने पे कोई बवेला नहीं है, बस थोड़ी बहुत डिटेंशन, थोडा बहुत अटेंशन. कोई टी वी वाला दिखा रहा है ?? उसका क्या  हुआ ?? जेल गया की नहीं गया ?? सजा क्या होगी ?? हो रही है कोई बहस ??  होगी भी नहीं. कहावत है "गड़े मुर्दे उखाड़ने  से क्या  फायदा ??" अरे मुर्दों के स्थल पर लात मारने वाले के बारे में बहस करने से क्या फायदा ? भले ही वो हमें जिन्दा रखने के लिए मुर्दे हो गए.  

एक तो तेरे नाम के साथ सरनेम है "त्रिवेदी" ऊपर से कार्टूनों का कार्टून बनाने का अपराध ?अबे  गधे को गधा कहोगे तो गधा तो दुलात्तिये  न मारेगा जी?? 

अबे अज्ञानी, विरोध प्रकट करने के और भी कई तरीके है, सुन अगली बार जब विरोध प्रकट करने का मन करे तो  देवी देवताओं के कार्टून बना, बुध्दजीवी भाई चारा में आयेंगे तुझे बचा ले जायेंगे, मिडिया भी बदनाम न कर पायेगी. उलटे तुमको भाई चारा का वाहक घोषित कर दिया जायेगा. लेकिन ध्यान रहे वो भी सिर्फ हिन्दुवों की, गलती से इस्लाम  का बना दिया तो पकिस्तान से घोषित सजा का भी  भारत में वेलकम हो जायेगा.

जब विरोध और जादा उबाल मारने लगे तो शहीदों के स्थल को ध्वस्त कर, और जादा बेहतर है की क्रोसिया वाली टोपी पहन कर, कर . कोई कुछ नहीं बोलेगा, थोड़ी बहुत भाग दौड़ और मामला साफ़, अबू आजमी और बुखारी  भी तेरे सहयोग में आ  जाएगा. 

चल बीति ताहि भुला के आगे की सुध ले. 

Saturday, September 8, 2012

लेकिन ये तो नेता है






लोग कहते है इंसान इतिहास से सीखता है,  लेकिन "इंसान", नेता या हुक्मरान नहीं. अब आप कहोगे की क्या नेता इंसान नहीं ? इनके भी तो दो  हाथ  दो पावँ होते है.  तो भाई दो हाथ और पाँव बंदरों के  नहीं  होते क्या ??? मानव मानता है की उसके पूर्वज  बंदर थे, लेकिन आजकल के नेतावों को देख, शायद बन्दर उन्हें अपना पूर्वज मान रहा होगा.  

लेकिन कही मेरे इस वाक्य पे बन्दर  नाराज न हो जाए, क्योकि जिस तरह से ये संसद मे मारपीट, गाली गलौज करते हैं उससे बन्दर बिना इत्तेफाक रखे मेरे ऊपर मानहानि का दावा कर सकता है.  भाई हम कौन सा संसद मे बैठते है ?? न ही हम अपने जात बंदरों का ठेका ले रखा है, सब कुंद फांद मेहनत करते है और अपना अपना  खाते है , बल्कि ये कहो की तुम इंसानों जैसी इंसानियत दिखा अपने बच्चो और साथियो का भी ख्याल कर लेते है बिना अपनी जमात का नुक्सान किये . लेकिन तुम्हारे नेता तो अपना कम देश का जादा खाते हैं , खबर दार जो हमारी  तुलना उनसे की तो. 

तुम्हारे नेतावो मे थोड़ा सा भी "बंदरियत" होती तो पेट भर खा के आराम कर रहे होते, हमें देखो , एक बार पेट गर गया तो आपस मे एक दूसरे की जुएँ ढूढते है, एक तुम्हारे नेता, पेट भरते ही दूसरे देश का बैंक भरने लगते है. हम जानवर जरुर है लेकिन इतने गए गुजरे भी नहीं की हमरी तुलना नेताओ से करो.  

खैर, जब बन्दर नहीं तैयार  तो तुलना किससे की जाए ?? भेडिया ?? नहीं इससे भी नहीं की जा सकती, क्योकि भेडिया तो भेडिया है ये साफ़ साफ़  दिखता है, जानवर दूर से ही देख के पहचान सकते है, भाग सकते है, इनकी नेतावो की प्रजाति तो ये भी नहीं है, जो दीखते है वो निकल जाए तो "एक" के नहीं, जरुर सामूहिक परिश्रम का परिणाम है. 

जानवर एक बार जो गलती करे उसका फल उसे मिल जाए तो दुबारा नहीं करता .यहाँ तक की कुत्ता भी , "क्या कुत्तों की तरह बार बार चल्ला आता है" इस तरह की कहावते सर्वथा गलत है,  मान लो किसी कुत्ते को आप रोटी  दिखा के एक बार बुला लो और एक डंडा जड़ दो , दुबारा बुलाओ, फिर जड़ दो , तो तीसरी बार वो नहीं आयेगा. आप भी कर के देखना. कुत्ते का भी स्वाभिमान एक बिंदु पे पहुच जाग जाता है. 

लेकिन ये तो नेता है. इनकी गलतियाँ ठीक वैसी है जैसे पुराने ज़माने की नगरवधू (पतिता) बार बार धन ले और पतित होती जाती है, क्योकि ये उसका व्यापार होता है, वह जितना पतित होती जाती है उतनी गर्वित भी, की उसका बोला बाला है , उसे पतित करने के लिए तो लोग लाइन लगा के रखते है उसकी बोली लगते है. वो भी भला क्यों सीखे क्यों जाने की ये गलत है ऐसा  नहीं होना चाहिए. 

लेकिन ये तो नेता है , समर्थ है, तुलसीदास जी ने भी कहा है "समरथ को नहीं दोष गोसाईं" अतः जो समर्थ है उसे सीखने कि कोई जरुरत नहीं,  क्योकि वो समर्थ इसलिए है की जनता जिसे जानवर भी अस्वीकार कर देते है उसे मसीहा बना संसद भेज देती है. 

अस्तु, अब मूल बात पे आते है, रामायण मे  भगवान राम ने न जाने कितनी कोशिशे की की सीता बिना युध्द के वापिस आ जाये, हनुमान भेजा अंगद भेजा, लेकिन सब व्यर्थ, " होईहे वही जो राम रूचि राखा" यानि ये सब राम की ही प्लानिंग थी. आगे क्या हुआ आप सभी जानते है.  लेकिन उसमे राम का स्वार्थ बस इतना ही था की उन्होंने ने रक्तपात को टालना चाह था. 

महाभारत मे ने भी पांडवो ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, लेकिन कौरवो को पांच गाव भी देख मरोड़ उठने लगा, हुआ वही जो राम के अग्रज अवतार ने  चाहा था. 

लेकिन ये तो नेता है, अब पाकिस्तान से मैत्रीभाव बढ़ाना चाहते है, वीजा नियम सरलतम बनाना चाहते हैं. दोनों मुल्को के इंसानों के बीच संवाद स्थापित करना चाहते है, इससे एक्सपोर्ट इम्पोर्ट बढ़ेगा,  वैसे भी भारत एक्सपोर्ट इम्पोर्ट के मामले मे बहुत खराब है, सानिया दे के वीणा  मंगवाता है, यहाँ के टेक्नोकार्ट विदेश भेजता है, और विदेश से महेश भठ तारिणी "लीयोनी" बुलवाता है. 

रे नेता जी, संवाद स्थापित हो के क्या होगा ?? रोटी बेटी  का रिश्ता तो नहीं करना ?? एक दामाद कसाब जो बैठा  है उससे संतोष नहीं हो रहा ?? और कितने रखोगे ?? आतंकवादी दामाद जो इतने ही चाहिए तो वही क्यों नहीं चले जाते बीटीयावों के साथ?? किसने रोका है ?? क्यों भूल जाते हो  सैकडो कोशिशे बाद भी रामायण मे रावन नहीं सुधरा था, महाभारत मे कौरव नहीं सुधरा था. 

इतनी छोटी सी बात  कुत्ते जैसा जानवर तक समझता  है , लेकिन ये तो नेता है. 

सादर
कमल कुमार  सिंह 



Tuesday, September 4, 2012

शिक्षा का स्वरुप और शिक्षक का योगदान


पुराने समय मे हर बच्चा गुरुकुल जाता था, २५ वर्षों तक हर प्रकार की विद्द्यायें सीखता था जिससे उसका जीवन सुखमय बन सके. वेद सीखता था जिससे धर्म के राह मे चलने की ललक पैदा होती थी, शाश्त्र सीखता था जिससे उसे समाज के अनुसार चलने मे परेशानी न हो, शस्त्र सीखता था जिससे वह अपने समाज और सीमा की रक्षा कर सके. आचार विचार सीखता था जिससे उसे भाई चारा बढ़ाने और निभाने मे कोई दिक्कत नहीं आती थी. वह गुरु का सम्मान करता था, गुरु भी ऐसे शिष्य बना देते की खुद गुरु भी अपने शिष्य का सम्मान करता.  

ये उस समय की परिस्थितियां थीं और उसी के अनुसार गुरुवों ने शिक्षा का स्वरुप तय किया था, उनमे इतनी शक्ति और दूरदर्शिता होती थी और उन्हें पता था किस तरह की शिक्षा से समाज का विकास हो सकेगा. आज परिस्थितियां और जरूरते दोनों ही बदल चुके है, साथ ही गुरु भी. आज अध्यापक होना बस जीविका का साधन मात्र है , शायद १ % गुरु ऐसे होते हैं जो अपने छात्रों को प्रभावित कर एक मानक स्थापित करते है, 

यदि हम कालेज पूर्व स्कूलों पे ध्यान दें तो एक अध्यापक अपनी कक्षा मे आ जाये उसके लिए वही बहुत है. किसी तरह कक्षा पूरी कर जल्दी जल्दी कैसे अपने कोचिंग पहुचे पूरा ध्यान  इसी योजना मे निकाल देता है. उसका ध्यान अपने कक्षा के छात्रों पे कम और कोचिंग के  छात्रों के पे जादा होता है, आखिर असली कमाई वहीँ से होती है. जो अध्यापक थोड़ा अपने स्कूल के छात्रों पे धायं रखते भी हैं तो वो पक्षपात पे आ जाते है, वो छात्रों का निर्धारण उसके अंको के आधार पर करने लगते है, अर्थात जो जादा अंक लाये  वो उनका चहेता. वो भूल जाते है छात्र मतलब भविष्य का छत्र. अंक लाना अति आवश्यक है लेकिन साथ मे उसका सर्वागीण विकास भी एक आवश्यक तत्व है, और  ये काम अध्यापक है की यदि उसके अंदर कोई अन्य प्रतिभा  है तो उसे आकर देने की पूरी कोशिश करे. लेकिन सामान्य तौर पे ऐसा नहीं होता. कई अध्यापक तो बस महीने के अंत मे तनख्वाह लेने ही पहुचता है. 

यदि हम कॉलेज स्तर पे नजर डाले तो जादा से जादा  पैसा और पद कैसे बनाए, पे काग दृष्टि लगा के रखते है. उनका ध्यान छात्रों पर कम पद्दोंन्न्ती पे जादा रहता है. विभागीय गुटबंदी, एक दूसरे पे छींटाकशी आम बात है. यदि उनकी पद्दोंनती नहीं भी होती है तो दूसरा वाला सुपरसीड न करे, इसकी योजना बनाते है, इसका एक प्रतिशत भाग भी छात्रों के ऊपर लगाए तो उन्हें व्यक्तिगत पद मिले या न मिले लेकिन छात्रों के  ह्रदय मे आजीवान बस जाते है. 

कालेज और विश्वविद्द्लय स्तर पर आते आते छात्र परिपक्व हो जाते हैं, वो नफा नुक्सान समझने के लायक हो जाते है, उनमे से कुछ भटक भी जाते हैं, कुछ आशानुरूप परिणाम नहीं दे पाते.  मान लीजिए कोई छात्र किसी विषय मे फेल हो जाता है या उसकी पढाई छूट जाती  है तो  घोर निराशा मे चला जाता है, कभी कभी नौबत तो आत्महत्या तक आ जाती है या कुछ अपराध के रास्ते  पर  चले जाते है. 

एक शिक्षक चाहे तो शिक्षा मे स्वरुप भी निर्धारित कर सकता है. आज के समय मे छात्र किस तरह से समाज और देश के छत्र बन सकते है इस पर चिंतन कर सकते है, लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं होता. 


पढाई चाहे किसी भी विषय की हो प्रबंधन, चिकित्सा, अभियांत्रिकी या अन्य कला, वाणिज्य या विज्ञान के साथ साथ, एक कक्षा समाज और देश की राजनीती के बारे मे होना चाहिए एक अनिवार्य विषय के रूप मे, ताकि वो समझ सके वास्तविकता है, जिसके लिए किसी अथिति वक्ता का भी सहारा अलिया जा सकता है जो उस विषय की अच्छी समझ रखता हो. अन्यथा छात्र १८ साल का होके वोटर तो बन जाता है और किसी डकैत को वोट दे डालता है क्योकि तब तक वो जाती पाती के चक्कर मे फस होता है अतः दूरगामी परिणामों का भान उसे नहीं होता. 

साथ हो थोड़ी बहुत रोजमर्रा के काम आने वाले कानून के बारे मे भी शिक्षित किया जाना चाहिए. पुलिस बात बात पे आम जन को क़ानून को धता बता विभिन्न रास्तो से धमकाती पायी जाती है जिनमे से अधिकतर तो उनके अधिकार मे भी नहीं होता. 

आम तौर छात्रों को जो बाते किताबो मे पढ़ा दी जाती है छात्र वही मान लेते है, जैसे कई छात्रों के मन मे बचपन से ही भर दिया जाता है की अमुक आदमी महापुरुष है, अमुक धर्म मे इस प्रक्कर के शाशन के परिकल्पना है आदि आदि , इस मिथ्या को भी तोडने के लिए छात्रों मे वाद विवाद पर्तियोगिता नियमित तौर पे कराई जानी चाहिए. क्योकि यही सही समय होता है जब छात्रों के ह्रदय मे बसे मिथक को तोड़ा जा सकता है और उसे सामाजिक और सही राह दिखाई जा सकती है. 

लेकिन ये सब चीजें तब तक संभव नहीं जब तक शिक्षक अपना कर्तव्य सिर्फ वेतन लेने से ऊपर नहीं समझेगा, जब तक वह अपने छात्रों को व्यग्तिगत रूप से न समझ पाए. आजकल तो शिक्षक को पता भी नहीं होता की उसकर कक्षा मे कितने छात्र है और उनकी रूचि क्या है. एक शिक्षक को समझना होगा की वही है जो समाज के लिए एक मजबूत छत्र का निर्माण कर सकता है. 

एक गुरु ही था जिसने एक चरवाहे को मगध का मालिक बना दिया, और एक गुरु जो  खुद इर्ष्या और पक्षपात , जातिपात, प्रिय-अप्रिय और स्तर मे पड़  एकलव्य जैसे धनुर्धर का अंगूठा काट लिया जिसके लिए छात्र समाज आज भी उन्हें आदर्श नहीं मानता, यदि इसी प्रकार गुरु पक्षपात और द्वेष मे रहे तो किसी भी देश और समाज का गर्त मे जाना एक स्वाभाविक सी बात होगी.  एक गुरु मालवीय  जी थे जिन्होंने एक महान विश्वविद्द्यालय की रचना कर दी, और लाखो छात्रों के हृदय मे बस गए और एक गुरु और हैं जो जिनसे शिक्षा पा खास समुदाय जेहाद की तरफ बढ़ बम फोड रहा है, दंगा कर रहा है. 

गुरु एक नाव का पतहार होता है जो कईयों की नाव खे रहा होता है, अब ये उसके हाथ मे है की उन्हें पार लगाये या बीच मजधार मे डूबा दे. 

कमल सिंह 

Monday, September 3, 2012

शांति की राह मे एक और कदम

(ये लगाया गया फोटो घटना स्थल का है -शान्ति के लिए शांति वाहको का यग्य) 

दो सितम्बर  २०१२ , शाम का वक्त, पुलिस वाले बैरिकेडिंग पे खैनी दबाते हुए  मुर्गा  ढूंढ रहे थे, लेकिन बदकिस्मती की शांति का वाहक मुल्ला मिल गया, भाई कमरुद्दीन जी, मस्ती से गाना आते हुए आ रहे थे, पुलिस वालो ने रूटीन चेकिं के तहत उनको रोकने की कोशिश की, लेकिन महाशय शान्ति अर्थात इस्लाम से होने के कारण लोक्तान्त्र्यीय व्यवस्था को अनसुना कर दिया, शायद  कोई खलीफा होता तो जरुर अदब से  रुक गए होते.  आपने न पुलिस की सुनी न कानून की, शायद अल्लाह की यही मर्ज़ी थी. 

खालिफाई क़ानून को ध्यान मे रख भाई कमरुद्दीन ने पुलिस की बिना सुने भागने लगे, कौन जाने कोई खालिफाई हथियार भी साथ हो, और पुलिस वाले खलीफा मे विश्वाश नहीं करते, सो शांति और संतुलन बनाने के लिए भागे होंगे. 

 पुलिस ने पीछे से इस शांति वाहक को डंडा मार जो अनर्गल किया उसे तो शायद ही खुदा माफ करे . फिर  घायल हुए भाई के साथी  जी तैश मे आये और फोन उठा अपने दूसरे इस्लामी शांति के वाहक  साथियो .... सलीम भाई, ज़ाहिद भाई, अज़हर भाई, इक़बाल भाई, अनवर भाई, शाहरुख भाई, अकरम भाई, शौकत भाई, शकील भाई, आफताब भाई,मोईन भाई, ज़ाकिर भाई, ज़ावेद भाई, सलमान भाई, शोइब भाई, लियाक़त भाई, बिलाल भाई, उस्मानभाई, मोहसिन भाई, ज़ब्बार भाई आदि आदि को बुलवा कर कई घंटे तक उस पुलिस की कारस्तानी का बदला लिया.  लगे हाथ शांति हेतु यग्य भी किया जिसमे आसपास की गाडियों की आहुति दी गयी, जो की एक अल्लाह वाहको का एक परम्परागत तरीका है, ठीक वैसे ही जैसे , मुंबई , लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, असम मे आहुति की गयी. 

मामला बढ़ गया , सुना है दो दर्जन पुलिस वाले घायल भी  हुए हैं, और होना भी चाहिए, जो भी शांति और अल्लाह के शांति वाहको के रास्ते मे आएगा वो जायेगा.  अल्लाह हू अकबर 

Saturday, September 1, 2012

न्यायप्रिय मोदी


देश के  इतिहास मे पहली बार किसी को  साम्प्रदायिक सामूहिक  हिंसा के अपराध पे  सजा हुयी है, भले ही ये हिंसा किसी दूसरे साम्प्रदायिक गिरोह के प्रतिक्रिया स्वरुप हुयी हो. 
जहाँ आजकल सत्ताधारी अपने अपने मंत्रियो को एक केन प्रकारेण बचाने की सारी जुगत भिड़ा देते हैं, न्याय प्रक्रिया मे बाधा पहुचातें हैं वही  मोदी जी ने बता दिया की अपराध के लिए गुजरात मे कोई स्थान नहीं है है भले ही वो उनका मंत्री हो. वो चाहते तो शायद न्याय व्यवस्था मे दखल दे सकते थे , जैसा की कोंग्रेस आज तक करती आयी है, लेकिन नहीं, कोई भी जगह सभी धर्मो का है , मानने वाले मोदी जी ने अपने आपको इससे दूर ही रखा. वो बात अलग है की जेहादी मुसलमान बस इस्लाम मनता है , धर्म मानता है न की देश या जगह. 

एक तरफ मोदी जी की गुजरात सरकार है जो षड्यंत्र मे शामिल होने वालो को नहीं बख्शा , वही दूसरी तरफ एक कोंग्रेस की नेता फौजिया खान है जिन्होंने आतंकवादी आबू को अपने यहाँ पनाह दी थी लेकिन किसी ने चूं तक न की, न ही सेकुलरों ने न ही मिडिया ने, करे भी क्यों ?? इस्लाम या इस्लामी आतकवाद के  खिलाफ बोल के भाई चारा थोड़े न कम करना है, उनके ऊपर कार्यवाही भी शायद ही हो.    

अब पहले जान लिया जाए की बजरंगी जैसे लोगो कि उत्त्पत्ति कैसे होती है ?? 

महान वैज्ञानिक न्यूटन के बहुत सालो पहले एक नियम दिया था, "क्रिया प्रतिक्रिया का नियम"  या आईन्स्टीन ने सापेक्षवाद का नियम दिया था, यानि चीजे तभी संतुलित हो सकती है जब क्रिया बराबर हो नहीं तो जहाज  डूब जायेगा. 

गोधरा मे जब कार सेवको कोमुसलमान समुदाय द्वारा जिन्दा जला दिया गया, तो बजरंगी जैसे आदमी ने अपनी प्रतिक्रिया दी, मै हिंसा की वकालत बिलकुल नहीं करता, लेकिन कहा गया है की क्रोध मे आदमी अपने सगे तक को भूल जाता है, वो तो सामूहिक हिंसा थी. 

ये भी ध्यान हो , सिख्ह भाईयों के ऊपर किये गए अत्याचार पर भी अत्याचारियो को कोई सजा अभी तक नहीं मिल पायी है, जबकि बड़ी बेशर्मी से राजीव गांधी द्वारा का दिया  गया था की "जब कोई बड़ा पेड गिरता है तो हलचल होती ही है" 

ध्यान रहे की कश्मीर से भगाए गए पंडितो को भी आज तक कोई न्याय नहीं मिल पाया है और आजतक वो भाता रहे है. 

 ध्यान देने योग्य बात है की मुंबई के अमर जवान ज्योति को तोडने वाला जब  गिरफ्तार किया जाता है तो कोंग्रेस सरकार का एक कमिश्नर गिरफ्तार करने वाले को गन्दी गन्दी गालियाँ देता  है. 

ध्यान देने योग्य बात है की प्रतापगढ़ मे बाल्त्कारी को सजा दिलवाने से पहले कोंग्रेस समर्थित सपा के मंत्री पहले बाल्त्कारियो और उनके समुदायों को राहत और मुवावजा देने की बात करते है . 

ध्यान देने योग्य बात है की शिव भक्त कावड़ियों पर हमला करने वालो के ऊपर कोई कार्यवाही नहीं बल्कि उलटे हिंदू समुदाय के लोगो को जेल मे ठूंसा जाने लगता है . 

ध्यान देने योग्य बात है की नमाज के लिए एक गुरु द्वरा तो मुसलमानों का स्वागत कर देता है लेकिन यही मुसलमान, अपनी मस्जिद मे पनाह लिए हुए हिन्दुओ को निकाल भगाया था, और मरने के लिए छोड़ दिया. 

ध्यान देने योग्य बात है की मायावती अपनी मूर्ति के लिए हाय तौबा तो मचाती है और सपा सरकार तत्काल कार्यवाही करती है, लेकिन उन्ही के भगवान  बुध्ध की मुर्ती तोड़ दी जाती है, जबकि सत्ता और मिडिया खामोश मूर्ति बनी रहती है. 

ध्यान देने योग्य बात है पुणे के बम विस्फोट मे शक जब  दयानंद पे गया जो की निराधार था तो, सरकार ने उसको गिरफ्तार किया और मिडिया ने खूब उछाला, जबकि तबी इस्लामी संघटन की बात सिद्धद होते ही सरकार और मिडिया दोनों चुप हो गयी. 

इतने दोहरे मानक वाले सत्तावों  के बीच मोदी जी ने ये सिध्ध कर दिया है की असली निरपेक्षता क्या होती है. 

भगवन से अब यही प्रार्थना है की दुबारा इस्लाम प्रायोजित कोई दंगा न हो और किसी दूसरे बजरंग को न पैदा करे. यदि दुबारा कुछ ऐसा हुआ तो बजरंग जैसे लोग भी पैदा होंगे ही और इसमें किसी का कोई दोष नहीं होगा.