नौजवानों ने अपने दिल को लुभाने
के लिए नया नया शौक अपनाया, कभी सर के बाल खड़े कर झाड़ना मानो चिड़िया चुग गयी खेत,
कभी सर पर भारत का नक्शा, कभी अपनी नयी मोर्डन लंगोट का ब्रांड स्ट्रिप पेंट से ऊपर
दिखाना, कभी कण छिदाना मानो “नारी पुरुष सामान है” के आन्दोलन कारी, कभी कोलेज की लड़की
पटाना तो कभी कोलेज की टीचर (विपरीत लिंगी अपने हिसाब से सब कुछ विपरीत कर लें),
कभी सर तोडना, और मौका मिल जाय छिनैती करना.
खैर नौजावानो के के पास
काफी समय है, नए नए शौक बना सकते है उसको पूरा करने के के लिए समय साधन खर्च कर
सके है, दिमाग लड़ा सकते है. हैसियत हो समाज लडवा सकते है.
इसी चक्कर में एक नौजवान
लगा है की उसे देश की चिंता करना जरुरी है, नहि करेगा तो देश अब बिका या तब बिका,
ये नौजवान चिंता न करे तो देश किसी मंडी
में बिक जाएगा, चिंता करना जरुरी है आखिर देश के नौजवान है, लेकिन ये नौजवान देश बिकने
की चिंता में घुले जा रहा वो खुद बिकने की कगार है. ये नौजवान पनवाड़ी की दूकान से
उधारी की सिगरेट मुह में लगा धुएं के गोल छल्ले जब ऊपर की और छोड़ता है तो उसे इस
पुरे गोल पृथ्वी की भी चिंता हो जाती है. ओह्ह ये धरती, प्यारी धरती, वसुधैव कुटुम्बकम,
दुसरे देशो में हुए युध्ध माहौल खराब कर रही है, इसका असर हमारे देश होगा या नहीं
होगा? वो अपने जेब एक मात्र पड़े सिक्के को उछलता है, फिर तय करता है की पहले देश
की चिंता की या विश्व की?
मेरा देश, हाय देश, बिक
जाएगा, क्या होगा इसका, ये उधार की बीडी पि चिंता न करेंगे तो कौन करेगा? इसी
चिन्तालय में वो पनवाड़ी से दूसरा उधार की सिगरेट मांगता है, पनवाड़ी मना कर देता,
अब ये एक नयी चिंता ओह्ह बिना इसके देश की चिंता कैसे करू? कैसा छुद्र आदमी है,
देश बिक रहा है और इसको अपने धंधे की पढ़ी है, ओह्ह्ह, क्या होगा मेरे देश का
भविष्य, जब ऐसे ऐसे ग्रास रूट लेवल के पनवाड़ी न समझेंगे. फिर वो पनवाड़ी को देश के
बारे में बताता है, पनवाड़ी मुस्कराता हुआ, तगादे के साथ एक और सिगरेट पकड़ता है, लो
जी पार हुआ चिंता का पहला पडाव, फिलहाल देश की चिंता करने के लिए हुयी सिगरेट की
चिंता का निदान हुआ, अब पनवाड़ी उसे अपना दोस्त लगता है, जो कुछ देर पहले छुद्र लग
रहा था.
फिर वो उससे देश के बारे
में बात करने लगता है. उफ़ देश को बिकने से कैसे रोकू, चलो उस मंडी को ख़त्म कर दें
जिसमे ये देश बिकेगा, फिर वो उस मंडी को खोजने की चिंता में घुल जाता है, कहा है
ये मंडी? किधर मिलगा? दिल्ली आजाद मार्केट या बनारस का चनुवा सट्टी, कौन लेके
जाएगा बेचने? ये एक नयी आफत? ये कौन को कैसे ढूँढा जाय? किस रास्ते से जाएगा. कौन
सी गाडी पे? या लम्बी करियर वाली सायकिल पे? ये एक नयी चिंता.
कौन सी कृतघ्न कम्पनी ऐसे वाहन
बना सकती है? दुष्ट कम्पनी? कम से कम ऐसे लोगो के हाथो में अपना वाहन तो न देती,
पहचान करना भी जरुरी नहीं समझती? उफ्फ्फ ये दुष्ट कम्पनिया, क्या किया जाय इनका?
ये एक नयी चिंता.
सुनो इस कम्पनी को ही जला
दिया जाय, फिर देखते है वो कैसे बेचता ऐसे लोगो को अपना साधन जो देश बेचते है. उसका
दूसरा सिगरेट भी खतम होने वाला है. वो वापिस अपने जड़ चिंता में लौटता है, अबकी
उसको पता है की पनवाड़ी जादा कृतघ्न है, देश की चिंता के लिए उसे सामन भी मुहैया न
करवाएगा.
कहाँ मर गया ये दिनेश, आज
पैसे देने वाला था? साले ये एन टाइम पे धोखा दे जाते है, इनको नहीं मालुम की देश
की चिंता के लिए कितने साधन की जरुरत होती है, सीने में आग जलानी पड़ती है, गला तर
करना पड़ता है, साले ये आजकल के नौजवान भी न बस यु ही है, ठीक टाइम पे उधार भी नहीं
दे सकते, लानत है इनकी जिंदगी पर जो एक देश भक्त को उधार देने की भी हैसियत नहीं
रखते.
तभी उसके मोबाईल की घंटी
बजती है.वो ख़ुशी से हकलाता हुआ “एस डार्लिंग कहा हो? हाँ मिलते हैं न, अरे वही
कालेज वाले गार्डन में”.
अब उसके पास एक नयी चिंता है, गार्डेन में एक सहूलियत
वाली जगह ढूढने की.
सादर
कमल कुमार सिंह
2 comments:
हा हा हा ।। इसे कहते हैं कलयुगी समाज सुधारक !!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-07-2014) को ""क़ायम दुआ-सलाम रहे.." (चर्चा मंच-1686) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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