नारद: December 2012

Sunday, December 23, 2012

बलात्कार का बलात्कार


बलात्कार शब्द जह इंसानियत पर एक धब्बा ही नहीं बल्कि गढ्ढा है वहीँ बालात्कार का बालात्कार करना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सम्मान जनक कृत्य है.  ये क्रिया कुछ खास  किस्म के बुध्दजीवियों द्वारा की जाती है. 
बाल्तकार का बालात्कार करने से बालात्कारी का कुछ बिगड़े या न बिगड़े लेकिन इन ख़ास प्रकार के बुध्ध्जिवियों की दिमागी वर्जिश तो हो ही जाती है, मानो बालात्कार या इस प्रकार की कोई दुर्घटना होना इनके लिए एक सुनहरा अवसर लाता है, दिमाग की बत्ती जलाता है,  यदि बालात्कार न हुआ होता तो हम बता नहीं पाते की हमारा धर्म कितना महान है, इसमें सजाये बहुत ही बेहतरीन,स्वादिस्ट, लाजवाब  और उम्दा किस्म है , आज के "आई एस आई" मार्क के गारंटी से भी बेहतर. मानो यदि ये धर्म होता तो बालात्कारी के अंग मे चिर काल तक की शिथिलता होती,  हद है भाई  किसी बात की, ये सज्जन लोग पीड़ित से सहानुभूति और संवेदना दिखाने की जगह, इसको सीढ़ी बना अपने "होली" प्रोडक्ट का प्रचार करते हैं, कौन जाने कहीं कुछ बिक जाए. मानो कोई दुर्घटना न हो होके, मेला या "फेस्ट" का आयोजन हुआ हो, बेच लो जितना बेचना हो, कर लो मार्केटिंग, नहीं टार्गेट पूरा नहीं होगा.  माल भले ही रेपर में लिपटा हुआ कचड़ा हो.  

एक भाई साहब ने तो  "इस्लाम में बालात्कार" पे  "दो बाई पांच"  का पूरा लेख ही लिख डाला जैसे यहाँ हमेशा बालात्कार ही होते हो. खाना - पीना सोने  की तरह ही बालात्कार भी एक जीवन का एक अभिन्न अंग हो. क्योकि जहाँ धुप हो   छाते वहीँ लगाये जाते हैं.  मेरे समझ नहीं आया की ये बड़प्पन बता रहे हैं,  दिनचर्या. 

 मैंने एक मित्र "जेब अख्तर" जी  के लेख में पढ़ा था की बंगला देश में यदि एक किसान की बीवी और मवेशी बीमार पड़ते हैं, तो किसान मवेशी के बचने की दुआ पहले मांगता है। वजह। वहां के बाजारों में एक सेहतमंद मवेशी (गाय, बैल वगैरह) की कीमत १५ से २० हजार रुपए तक होती है। जबकि इसी बाजार में आपको एक औरत महज ५ से १० हजार में मिल जाएगी। इसलिए फायदे का सौदा मवेशी को बचाना ही है। दूसरे अगर किसान की बीवी मर जाती है, तो दोबारा विवाह में उसे दान-दहेज भी मिलता है। जो कि मवेशी के मरने के बाद मुमकिन नहीं है। वही कर्गिस्तान में औरतों का अपहरण कर बलात्कार करना एक सामाजिक रश्म से जादा कुछ नहीं वहां की सरकार भी इस अपराध को मूक रहकर सहमती देती है, यदि कोई कहीं पकड़ा भी गया, तो मामूली जुरमाना भर ही लगता है. इसी तरह एक जगह रूस के पास है चेचेनया, जहाँ विवाह के लिए औरतो का अपहरण या बलात्कार हो जाना बहुत ही आम बात है, कुछ देशों में तो औरतो का बकयादा बाजार लगता है.  और इसी तरह के हालत और भी मुल्को में हैं. ध्यान देने योग्य बात ये है की इन सभी देशो शरियत है. मैंने पहले भी कहा था हम बेहतर है कहने की बजाय कुछ बेहतर करने की कोशिश कीजिये फिर "रिलिजन मार्केटिंग" की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. 

कुछ मुसलमान भाई बहनों ने कहा की बालात्कारियो की सजा शरियत के हिसाब से हो, कड़ी से कड़ी, इसमें कोई बुराई भी नहीं, अपराधियों को कड़ी सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन क्या शरियत ये गारंटी भी लेता है की अपराधी को १०० प्रतिशत शुद्ध जहन्नम ही मिलेगा? जैसे "लक्जरी जन्नत" दिलाने और "सौ प्रतिशत शुध्द इश्वर" दिलाने का लेता है.शरियत का नियम है जैसे को  तैसा या पीड़ित के परिवार के मर्जी के मुताबिक, पीड़ित या उसका परिवार चाहे तो उसे कम कर सकता है.  जो हर तरह से जायज है होना भी चाहिए ताकि अपराधियों में खौफ  हो की जो उसने पीड़ित के साथ किया है कौन जाने पीड़ित उससे भी बुरी सजा मुकर्रर करे, लेकिन यही जैसे को तैसा या पीड़ित के मर्जी के हिसाब से महाभारत में भी उल्लेख है जब द्रोपदी ने अपनी इक्षा से दुशाशन को दंड देने का संकल्प लिया था. खैर ये तो रहा एक "रिलिजन मार्केटिंग" की पालिसी. 

एक तरफ तो युवावों का एक हुजूम संवेदना, दुःख और विरोध प्रकट करने कही पर लाठिया और पानी की बौक्षारे खा रहा हैं. और ये युवा किसी संगठन से नहीं,किसी धर्म विशेष से नहीं, किसी  सवर्ण या दलित जात से नहीं, न ही किसी राजनितिक प्रेरणा से, वरन ये सिर्फ युवा हैं जो अपना आक्रोश प्रकट रहे है, वहां कोई किसी से नहीं पूछ रहा तुम किस जात से हो? किस धर्म से हो?  जिसको दबाने के लिए सरकार की तमाम धाराएं भी नाकाफी है, ये वही युवा है जिनको हम "माल्स" "मल्टीप्लेक्स" में आनंद  मानाने वाला या पार्को में आमोद प्रमोद करने वाला "कूल द्युड्स" कहते हैं.आज इन युवावो ने ये बता दिया है की "कूल द्युड्स" आनंद मानाने के लिए ही नहीं बना, बल्कि सामाजिक जेम्मेदारी लेना भी जानता है. यदि ये सडको पे आ जाए तो सरकार के "धारा" को "पसेरी" बना सरकार, के मुह पर मार सकता है. लेकिन जब सरकार बेशर्म हो जाए तो उसपर कुछ भी असर नहीं होता, आज के हालत देखने के बाद तो यही लगा की इंडियागेट "लीबिया" है और सरकार "गद्दाफी".इस स्थिति में आक्रोश प्रकट करने तक तो ठीक है लेकिन लाठी या बौछार खाना  नहीं क्योकि इनके दिल का दर्द मर चूका है वो आपका दर्द क्या जानेगा? कुछ दिन बाद सब  चुप हो जायेंगे ... बाद में फिर वही सिनेमा वही माल्स . चुनाव के समय फिर इसी सरकार को वोट दे देंगे जो लाठी चार्ज करवा रही है.  क्या फायदा  इन पर  चोट करनी हो तो इस सिस्टम और सरकार के खिलाफ वोट करो, यदि किसी चीज का हल पानी में भीगना है तो, मछलियान और मगमछ्छ दोनों ही देश के सिरमौर होते, हलाकि की आज देश में मगरमच्छ तो है, लेकिन मच्छलियों को खाने के लिए.  


 नेताओं का ये मिथक टूटना जरुरी है की भीड़ बहुत मासूम होती है,  इनको कुछ पता नहीं होता, इनके मासूमियत को ये कभी भी वोट का शक्ल दे सकतें हैं. इनको ये बताना होगा की हमारी चोट तुम्हारे लिए भगवान् के लाठी की  तरह ही होगी जिसमे कोई आवाज नहीं होती, लाठी के जगह मुहर से काम लो.  चीखने चिल्लाने या हुजूम  जुटाने से सरकार सहम तो सकती है वो भी थोड़ी देर के लिए, लेकिन न्याय नहीं मिल सकता. यदि इन सब से  कुछ होता तो भेड का भी राज  भारतीय जनता के दिल में होता,  बजाय की संसद और देश के.  इन पर चोट करो, इनके खिलाफ वोट करो. सरकार द्वारा फेके गए पानी में भीगने से अच्छा है सरकार पर ही पानी फेक के इनकी गर्मी शांत करो. पानी पिने से बेहतर है "पानी पिलाना".

जहाँ एक तरफ धर्म जाती और जात भूल युवा चीख रहा है वहीँ कुछ लोग अटकले लगा रहे हैं, की लड़की दलित थी या सवर्ण, यदि दलित होती तो  शायद इतना चीख  पुकार न मचता. भाई पीड़ित बस पीड़ित होता  है ,क्या  किसी ने उससे  पूछा था क्या ? बहन तुम सवर्ण हो या दलित?  या किसी ने सिक्का उछाल के पता किया था "हेड" आया तो सवर्ण, "तेल" आया दलित ? क्योकि उस  समय तो वह बोलने की स्थिति में ही नहीं थी. यह तो एक प्रकार जन आक्रोश  है, जो बाल्तकार के हद से ऊपर अत्याचारियों के हैवानियत से उपजा है, क्या  वो जो दरिन्दे थे उस  समय उसकी जात  पूछी होगी ? क्या उनमे से आधे से जादा दलित थे इसीलिए सवर्ण जान लड़की के साथ  बालात्कार के बाद है हैवानियत की हद कर दी, या एक दलित यदि दलित लड़की का बाल्तकार करे तो तो कुछ डिस्काउंट देगा?  

हद है किसी चीज की क्या सवर्ण जाती में पैदा होने से ही व्यक्ति "इनबिल्ट" "ऑटोमेटिक" और "बाई डीफाल्ट" 'दलित विरोधी' हो जाता है ?  आजकल  मई खुद बड़ी शंका में हूँ , दलित  मेरे कई दोस्त हैं जो मुझसे किसी भी मामले में कम नहीं है, और न ही  उनको मई अपने से कम मनाता हूँ , लेकिन पता नहीं क्यों लगता है की यदि उनके  किसी भी गलत बात का विरोध कर दूँ तो मई " दलित विरोधी" हो जाता हूँ. मई आजकल शंका में हूँ इन "तथाकथित" दलित भाईयों  की गलत बातो का विरोध करू या न करू ? इसको सही या गलत के पैमाने से देखा जायेगा या सवर्ण दलित के ? वैसे मेरी तरह ये भी "कन्फ्यूज" है,  या ये कहिये इनमे जो जितना जादा पढ़ा लिखा है वो उतना ही कन्फ्यूज होता जा रहा है. कभी ये बुध्द को सिरमौर बनाते हैं तो कभी "हरिनाकश्यप" को अपना पूरखा, यानि बुध्द और हरिनाकश्यप में कोई सम्बन्ध है, क्योकि एक इनमे  पुरखा है और एक अग्रज.  यदि आज के दलित भाईयों का मध्य माना जाय तो स्वर्ग में जरुर बुध्द जी हरिनाकश्यप के पाँव छुते होंगे, बुजुर्ग  जो ठहरे.

ये सब देख, एक खास  मानव जाती को एक ख़ास मानव जाती से मुक्त  कराने वाले अम्बेडकर  जी अपना सर धुनते होंगे की जिस सवर्णों से इनकी मुक्ति दिलाई थी ये उन्ही अनुयायी बन गए, और जिस राक्षस जिंदगी से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न किया था उसी को पुरखा बता रहें हैं. 

देखने वाली बात ये है की आज का दलित किसी भी मामले में पुराने  शोषण करने वाल ब्राह्मणों से कम नहीं है .पहले ब्राहमण होने मात्र से दलितों का शोषण करते थे, और आज सवर्ण जाती में पैदा होने मात्र से वह  "शोषक"  हो जाता है,  हक छीनने  वाला लुटेरा, और जुल्म करने वाला आततायी हो जाता है, और अपने आप को  खुलेआम दुर्वचन कहने का लाईसेंस भी दिलवाता है. तो दलित किस तरह से अलग हुए उस  जमाने के ब्राहमणों से ??  कुछ तो खुले आम कहते हैं की हम पुराना बदला ले रहें है,  यानि यदि हम मानते है की जो हुआ वो गलत था, लेकिन ये नहीं, शायद ये यही मानते हैं की जो शोषण हुआ वो सही हुआ, तबभी हमें  मौका मिला, या शोषक होने की राह पर कोई भी अँधा हो जाता है. ?? मुझे कभी कभी ये शंका होती है कही ये जानबूझकर  तो  शोषित नहीं हुए फिक्स डिपोजिट की तरह की बाद  भविष्य में वसूल के साथ बदला लेंगे. क्योकि इने से अधिकतर  की बातों से  बराबर के अधिकार और हक़ की बाते कम, और  इतिहास को  इंगित कर बदला लेने की बाते जादा कही जाती है. इस प्रकार के दलित (?) बुध्दजीवी  किसी भी प्रकार से पुराने जमाने के ब्राह्मणों से कमतर नहीं मान सकते है, क्योकि विद्वेष ये भी फैलाते हैं . 

एक बात और गौर करने लायक है, जिन ब्राह्मणों  को मंदिरों का ठेकेदार बता कर एक सूत्रीय "कोसो कार्यक्रम" आयोजन होता है वही दूसरी तरफ उसी मंदिर से सम्बन्धित अन्य व्यवसायियों को बाईज्जत बरी बस इसलिए कर दिया जाता हैं क्योकि वो ब्राहमण नहीं है, शायद वहां भी दलित एक्ट काम करता हो . देश में  किसी भी मंदिर में चले जाओ,  ब्राह्मण १०० , या २०० मांगे तो उसको आधा दो तो जादा बकझक नहीं करता क्योकि और भी ग्राहक सम्हाल्नाने है, भीड़ जादा होती है. वही दूसरी तरफ मुंडन करने वाले नाई  को आप एक रुपया कम दें तो  वो गुस्से से आग बबूला हो जाताहै मानो बाल के बाद आपकी गर्दन तक कलम कर देगा.   उसी मंदिर में नाई होता है, उसी मंदिर में कहार भी होता है, एवं अन्य  गैर ब्राहमण लोग भी होते हैं जो मलाई बराबर खाते हैं लेकिन गाली तो सिर्फ ब्राहमण ही सुनेगा. कई गैर ब्राह्मणों को तो मैंने ब्रह्मणों के लिए एजेंटी तक करते देखा है, ख़ुशी ख़ुशी, बाद में आधा आधा. और ये मई हवाई  बाते नहीं बल्कि इसको दलित और सवर्ण दोनों ने महसूस किया होगा, यदि नहीं किया है तो अब से जब भी जाएँ गौर करें. 

वास्तव में जाती पाती का स्थान ब्राह्मणों ने क्यों बनाया कैसे बनाया पता नहीं, न ही मई इसमें जाने की जरूरत समझाता हौं , लेंकिन इसका बस एक ही पहलू है, एसा भी नहीं  है . पुराने जमाने में चमड़े के व्यवसायी को उसके  जाती की संज्ञा दी गयी, यहाँ वह विशेष वर्ग फेल हो गया, दलित हो गया,  जाती के आधार पर नहीं बल्कि "मैनेजमेंट " में, आज वही जब  सवर्ण  १००रुपये का चमडा उतार उसकी ब्रांडिग कर  १००० से १० हजार में बेचता है तो  जूते का उद्योगपति कहलाता है. अब किसने कहा था की आप एसा न करो. अब सोचिये जिस बाल्मीकि जयंती को दलित भाई मानते हैं उसी की किताब को ये मैनेज नहीं कर सके और यदि ब्राह्मणों ने इसे मैनेज  कर  व्यवसाय बना लिया ? वो जमाना आज की तरह आधुनिक तो नहीं था, लेकिन जहाँ चाह वहां राह. आज आपको कौन  रोकता है ? न उस समय कोई रोकता था, तो आपने सहा और यहि है आपका सबसे बड़ा गुनाह. मतला ये है, की इंसान किसी भी जाती में पूज्य हो सकता है, जाती कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, भीम राव अम्बेडकर का जिसने भी उनका विरोध किया उसने मुह की खाई. वो  किसी जाती के मोहताज नहीं थे.  न तो द्रोणाचार्य ठीक था जिसने जाती पाती के आधार पर एकलव्य का अंगूठा काट डाला न ही, न ही दलित के  आड़ में हत्याए करने वाला आज  के बीसियों  गिरोह.

 जब भी कोई किसी दुर्घटना में पीड़ित होता है  तो दर्द सबको होता है,  न की सवर्ण,  दलित, हिन्दू मुसलमान धर्म या मजहब देख के .   

डर लगता है मुझको सही बात कहने से!
कोई देख न ले उसको, हिन्दू या मुस्लिम के चश्मे से.(kamal)
सादर 
कमल कुमार सिंह 
२३  / दिसम्बर / २०१२ 

Friday, December 21, 2012

संजय निरुपम पे इतना हंगामा क्यों ?


आज ये बात कोंग्रेस के ऊपर पूरी तरह चरीतार्थ  होती है, बड़े बुजुर्ग कहते हैं जैसा होगा संग वैसा होगा मन, यह बात  नैतिकवादी कोंग्रेस के नेता संजय  निरुपम  पूरी तरह से सिध्ध करतें हैं. मेरी समझ में नहीं  आ रहा इस पर इतना हंगमा क्यों ? 

आईये पहले मामला समझ ले, ए बी पी  न्युज पर संजय निरुपम ने चुनावी विश्लेषण के दौरान दौरान स्मृति ईरानी पर टिप्पणी की, आप तो टीवी पर ठुमके लगाती थी. और अन्य तरह के गैर राजनितिक हमले किये.  कृपया दिया हुआ दुर्लभ विडिओ देंखे, दुर्लभ इसलिए केवे कोंग्रेस ने अपनी प्रतिभा का उपयोग कर इसको हर जगह से हटा दिया है, बस कुछ लोगो के पास है . 


अब लोग कह रहे हैं संजय ने महिला का अपमान किया है, एसा नहीं होना चाहिए, या-वा, लेकिन क्यों ?क्या लोग ये नहीं जानते की वो कोंगेस पार्टी से हैं. इतना हंगामा क्यों भाई ? ये कोंग्रेस का जन्मसिध्ध अधिकार है. जब  मोदी जब ५० करोड़ की गर्लफ्रेंड बिना व्यक्तिगत टिप्पड़ी किये कहा तो लोगो में हंगमा मचना स्वाभाविक था क्योकि यह उनके स्वभाव के विपरित था. यदि कोई साधू गाली बकने लग जाए, या कोई कवि कठोर ह्रदय हो जाए, या कोई  डाकू साधू हो जाए, अर्थात चरित्र के विपरीत कार्य करने लग जाए तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है. इस पर शायद हंगामा किया जा  सकता है, बहस हो सकती है की एसा कैसे हुआ? लेकिन संजय निरुपम  पर  हंगामा समझ में  नहीं आता, यह तो कोंग्रेस और अपने चरित्र के हिसाब ही बात की थी. मर्यादा तोड़ना, उनका हनन करना, बदजुबानी करना, इज्जत लूटना, इज्जत का सौदा करना, हत्या करना, बाल्तकार करना, किसी चीज का लालच दे के किसी के साथ बिस्तर में सोना कोंग्रेस का एक मात्र अधिकार है इसको आपत्तिजनक नहीं मानना चाहिए. वह आदत ही क्या जो बदल जाए. यह सब कोंग्रेस का आदर्श और यही चरित्र है, जिसको आगे ले जाने के लिए कई नेता कटिबध्ध हैं, संजय निरुपम इनमे से एक हैं. 

इस पर किसी को कोई शंका  सुबह हो तो बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है. कुछ साल पीछे और महीने का इतिहास खंगाल लीजिये. कोंग्रेस के कोंग्रेस को प्रेरणा देने के लिए कई प्रेरणा दायक महापुरुष है जो हाल फिलहाल अपनी  त्याग तपस्या और सद्भावना के लिए भारत भर में  जाने जाते हैं. 

महान मदेरणा 
राजस्थान के मदेरणा ने नर्स के साथ जब अविस्मरणीय फिल्म बना कर शकीला और सनी को पीछे छोड़ दिया  था. बाद में  इस तरह की उम्दा फिल्म कोई न बना सके इसलिए उस नर्स की हत्या भी कर दी गयी थी. पुराने ज़माने में भी कई मुग़ल राजा अपने महल और  इमारते बना मजदूरो के हाथ बस इसलिए काट डालते थे  की उनकी बनवाई चीजे एकमात्र रहे.   

अनोखा खिलाड़ी तिवारी.
 महान खिलाड़ी तिवारी  जी ने जिस  एक पिच पर खेल कर पिच का बेडा गर्क कर  दिया था, बिचारी वह महिला कई सालो तक धुल खाती रही, बाद में किसी तरह कोर्ट ने आदेश दे के मैडल को तिवारी जी के नाम किया. सोचिये हो सकता है कोई इतना महान ? जो अपने मैडल  को देश को दान कर सके? यदि कोर्ट ने अडंगा नहीं लगाया होता तो आज भी तिवारी जी के त्याग का डंका बज रहा होता. 

मनु सिंघवी: 
कुछ दिन पहले ही गांधीवादी और नैतिकवादी कोंग्रेस के नेता "कम" प्रोफ़ेसर एक प्रतियोगी को बिना ज्युडिशियल परीक्षा के जज बनाने का गणित समझा रहे थे. हलाकि की फार्मूला लगा नहीं, जज से पहले प्रोफ़ेसर ही फेल हो गए,  दिखावे के लिए कुछ समय तक के लिए इन्हें नौकरी से ही निकाल दीया गया. लेकिन बाद में गांधीवादी कोंग्रेसियो को समझ आया की इतने बड़े विद्वान को अपने से दूर रखना ठीक नहीं है, इन्ही जैसे प्रोफेसरों  के उच्च ज्ञान द्वारा निर्मित जज  हमें आपदावों  से बचाते आयें  हैं. सो पुनः ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाने वापिस बुला लिया है.

काण्ड सम्राट कांडा 
जिस मिडिया ने आपको इतना भला बुरा कहा था, वह मिडिया अचानक चुप हो गयी, आप कहाँ भजन गा रहे हैं किसी को कुछ पता नहीं. खैर, कोंग्रेस में आपका नाम  "काण्डरे"  अछरों में लिखा जाएगा, आप  जेल में भी मजे कर रहें  होंगे यदि होंगे तो तो , खैर आपको जेल में जाना ही नहीं चाहिए था, आप  को देश की कई कम्पनिया अपना आदर्श मानती है.  आपने अपने एयर डूबते एयर लाइन की परवाह किये बिना १० सवारियों  पे १०० एयर होस्टेस रख "कस्टमर सटिस्फैक्शन" को जिस मुकाम पे पहुचाया है वो शायद ही कोई कम्पनी कर पाए, सोचिये रखेगी भला  कोई एयर लाईन १ सवारी पे १० एयर होस्टेस रख सकती है? खैर बाद में आपने भी  अपने वरिष्ठ मदेरणा  की राह पकड़  .. आगे कुछ कहने लायक नहीं है . सब मिला के आपको "कस्टमर केयर" का एतिहासिक सम्मान मिलना चाहिए था, बजाय  की आरोप. 

इसी कड़ी  में संजय जी का भविष्य भी उज्जवल है. अब बताईये जिस पार्टी में इतने महान और "अनुभवी" लोग भरे हो  उस अवस्था में  संजय निरुपम को दोस देना कहाँ तक उचित है ? पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं, संजय जी भी बिग बॉस में खूब रंगरलिया की हुई हैं जिसके वजह से आपको बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा. संजय निरुपम अपने शुरुवाती समय में "फूटपाती पत्रकार" थे. बला साहब के ठाकरे की तेल मालिश करते समय उसमे से बचा तेल खुद अपने शारीर पर मल आप आगे बढे,  लेकिन आप वहां फिट नहीं बैठ रहे थे ,क्योकि आपको आपके टाइप का ही माहौल चाहिए था, "जईसन को तईसन सजे, सजे नीच को नीच", आपको कोंग्रेस  आपके चरित्र के अनुसार उपयुक्त लगा और आप कोंग्रेस की सदस्यता  स्वीकार कर बैठे. जिसकी अध्यक्षा  ही ज़माने में विदेश में कहीं हेल्पर  रही थी.  

आशा है आने वाले दिनों में आप अपने अध्यक्षा और महापुरुषों के राह चल अपने अग्रजो का मार्ग प्रशस्त करेंगे, और आप पर शोर शराबा और हंगामा करने वालो को लानत भेजता हूँ. आप अपने चरित्र पर ही रहें, जिसको जो कहना है  कहे. 

भाड में जाए दुनिया , 
आप बजाएं हरमुनिया. 

सादर 
कमल कुमार सिंह 

Thursday, December 20, 2012

ये मोदी नहीं, जनता जीती.


तमाम कयास बयानबाजी को धता बता आखिर मोदी जीत ही गए. गुजरात में विपक्षी और  देश में विपत्ति हो चुकी कोंग्रेस के दिन अब जल्द ही लदेंगे ये जनता ने दिखा दिया है.

 बाप भले ही अपने बेटी से कितना भी प्यार करे लेकिन लेकिन उसको ले जाने वाला दूल्हा ही होता है, लेकिन कोंग्रेसी बाप कुछ उन  निकृष्ट बापों में से है जो अपनी ही बेटी का सौदा करने से नहीं चुकते, ये बात कोंग्रेस ने समय समय पर खुद अपने कृत्यों द्वारा सिध्ध किया है. जो भी इनके कंधो पर अपना दारोमदार डालता है, ये उसी पर विप्पतियों का पहाड़ डाल मानो ये जताने की कोशिश करते है की तुमने हमें जेम्मेदारियां दी और हमने तुम्हे विपत्तियाँ, लो हिसाब बराबर.असम में जिन मुसलमानों ने इन्हें अपना मसीहा बनाया, वहां इतना खून खराबा हुआ जो आने वाले समय में एक इतिहास रहेगा. समय समय पर इनके सहयोगी दल सपा और अन्य भी कुछ एसा ही करते दीखाई देते हैं. जिस स्वदेशी के लिए गाँधी जी विदेशी कपड़ो की होली जलवाई  उन्ही के अगुवाओं का  विदेशी प्रेम देखते ही बनता है, चाहे वो व्यापार हो या अध्यक्षा. 

कोंग्रेस के जबरजस्त नकारत्मक प्रचार भी मोदी को  जनता से दूर तो क्या बल्कि हिला भी नहीं पाया. गुजरात ने तय कर लिया की मौत का सौदागर जो रोटी दे वो उन अमनवालों से लाख गुना बेहतर है जो रोटी छीनते है.
गुजरात ने ये  दिखा दिया की सबकी बाप बनने वाली कोंग्रेस का गुजरात पे कोई जोर नहीं, गुजरात मोदी से  प्यार से करती है.  
कोंग्रेस का यह कहना हास्यद्पद ही की  हम खुश है क्योकि मोदी उस बहुमत से नहीं जीत रहे जिसकी आशंका थी, ये कुछ वैसा ही लगता है जैसे कोई कहे की हम ताकतवर हैं क्योकि वो हमें लात घूंसों, डंडे, छड़ी से मारने वाला था, लेकिन बस एक लात ही लगाई.   

अब देखना ये है की भारत की जनता मोदी से कितना प्यार करती है. युवावों  और बुजुर्गो दोनों में ही मोदी की लोकप्रियता अब गुजरात की सीमाए तोड़ लगभग हर प्रदेश में बह चली हैं पुरे देश का बहुमत यही  चाहता है की मोदी प्रधान मंत्री बने, लेकिन क्यों ? क्या कारन है मोदी के आगे सभी नेता बौने हो  चुके हैं चाहे वो पक्ष के हों या विपक्ष के ?  क्या कारन है की कोंग्रेस के साम्प्रदायिक कुटिल चालो से भारत की जनता अब और  क्यों नहीं प्रभावित होगी ?  इस कई कारन है, बकवास की जगह विकास सबसे अहम् मुद्दा है जो मोदी ने कर दिखाया, कोंग्रेस के दांत हाथी के हैं ये पूरा देश देख रहा है. पुरे कई सालो तक कोई काम न करने वाली कोंग्रेस चुनाव  पास देखते ही डेल्ही में ६०० रूपये सीधे सबके अकाउंट में डाल, वोट के  खरीद फरोख्त को लोकतान्त्रिक बनाने का  तरीका जनता देख भी रही  है और समझ भी रही है. जनता भी कोंग्रेस को कोंग्रेस के कुटिल चालो से ही जवाब देगी, पैसा भी ले लेगी और वोट भी नहीं देगी, और इसलिए लिए कह रहा हूँ क्योकि ये बाते मैंने बहुतों के मुह से सुनी है. गुजरात चुनाव के दौरान कोंगेस के अध्यक्षा सोनिया जीका ये कहना की इंदिरा जी यहाँ  आयीं थी और आपने उनको वोट दिया और हम उनकी बहु हैं यहाँ आई हैं, हमें भी वोट दें, बड़ा ही हास्याद्पद  और राजनातिक अदुर्दार्शिता ही दिखाती है. इनके कहने का मतलब ये की देश की जनता कई सालो तक कोंग्रेस की गुलाम रही है और आज भी रहिये. 

इन सब के विपरीत मोदी ने सिर्फ और सिर्फ  विकास को मुदा ही नहीं बनाया बल्कि उसको क्रियान्वित कर पुरे देश के लिए गुजरात को रोल माडल बनाया. मोदी ने अपने राज में कभी हिन्दू मुस्लिम की बाते नहीं की कही बल्कि हमेशा ६ करोड़ गुजरातियों की बाते कर हमेशा सबका दिल जीता. इसके विपरीत प्रधान मंत्री जी का ये कहना की देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यको का है, एक तरफा  साम्प्रदायिक सोच के अलावा  कुछ नहीं दिखाता और ये बात अल्पसंख्यक समुदाय भी बेहतरी के साथ समझता है, दिखाने को लोलीपोप खिलाने को नफरत का जहर. जाती पाती  और धर्म को परे रखना भी मोदी की जीत में एक बहुत बड़ी भूमिका बनाते हैं. चुनाव से पहले कुछ धार्मिक  संगठनो का  लालच स्वीकार न कर उन्होंने ये साबित कर दिया की चुनाव धर्म और साम्रदायिकता के आधार पर नहीं बल्कि कार्य से जीते जाते हैं. बहुसंख्यक जनता ने बहुत ही सूझ बुझ का परिचय दिया है और ये बता दिया है. 

मोदी की जीत से राजीनीतिक गलियारे में फिर से सुगबुगाहट जागेगी. अब देखना ये है की गुजरात के लिए बडबोली कोंग्रेस का मुह तो देखने लायक होगा ही हालकी इतने बडबोलेपण के बाद शायद ही उसको दिखाना चाहिए लेकिन फिर भी मान लेना चाहिए की बेशर्मता की हद को पार कर दिखाती भी है, जिसके लिए वो जानी जाती है तो चेहरा कैसा होगा ? साथ ही भाजपा के सीने में जादा दर्द होगा. भाजपा चाहती तो थी की मोदी जीते लेकिन  इसके साथ की उन्हें प्रधानमन्त्री पद की उम्मेदवारी से वंचित रखा जाये. यानी एक उस पुरुष की तरह जो किसी महिला को उसकी खूबसूरती और व्यक्तित्व से  प्यार तो करता है लेकिन अधिकार नहीं देना चाहता, बल्कि इस्तमाल कर संतावना देने की फिराक में है. लेकिन भाजपा को यह समझना चाहिए की उसके हिंदुत्व के एजेंडे में अब कोई दम नहीं है, बल्कि मोदी मैजिक है भाजपा को आगे ले जा सकती है. मोदी ही वह मैजिक है जो हिंदुत्व का ध्यान रखने के साथ मुसलमान, पारसी और अन्य धर्मो को उनको पूरा हुकुक, इज्जत दे सकती  है, न का भाजपा का थोथा चना बाजे घना.भाजपा को मोदी का प्रधानमन्त्री पद से दरकिनार करना भाजपा को निश्चित ही भारी पड़ेगा क्योकि मोदी जितना मजबूत कन्धा भाजपा के किसी नेता का नहीं जिस पर  पर वह अपना चुनावी  बन्दुक रख विपक्षी को निशाना बना सके.   

मोदी जी को बधाई, भाजपा को नसीहत, और कोंग्रेस को मेरी तरफ से गुजरात के लिए हार्दिक श्र्न्धांजलि और संतावना. 

सादर
कमल कुमार सिंह 
२० दिसम्बर २०१२