नारद: June 2012

Saturday, June 30, 2012

पुलिस कि कृपा और हमारा अन्याय


रविवार का दिन था जिसको मै अफसर डे कहता हूँ, बस सोते रहो, न काम की चिंता न दुनिया कि फिक्र, फरवरी का महीना वास्तव मे मैंने इस महीने का नाम "प्रधानमन्त्री"  रख दिया था.  दिन मे तेज धूप के साथ हलकी,  नम्र ठण्ड का मिश्रण बिल्कुल अपने प्रधानमन्त्री कि तरह सुहाना लगता है. दिन मे धूप तेज है तो क्या, खुशनुमा ठण्ड भी तो है गर्मी को कवर करने के लिए. इसी महीने मे नवयुवक नवयुवतिया भी नए खोज कि  तयारी मे रहते हैं. "बीती ताहि बिसार दे, आगे कि सुध ले" कि तर्ज मे नए पैतरे अपनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ते, शायद इस कारण भी  मुझे इस महीने को प्रधान मंत्री कहना ठीक लगा.

सुबह उठा तो याद आया कि आज बहुत से कार्य करने हैं, प्रधानमंत्री महीना खत्म होने है,  कूलर कि व्यवस्था करनी,  गर्मी वाले कुछ कपडे लेने हैं जिसपे लिखा हो लुक मी  / "सी मी", या हिट मी . 

बाईक कि ओर बढ़ा तो जूते ने कहा, "भाई कदम थोडा सम्हाल के कदम डालो, दूसरों को दो हजार का बताने से मै उस लायक थोड़े न हो जाऊंगा मुझे अपनी औकात मालुम है, दीदी कि तरह जादा प्रेशर मत डालो नहीं तो अभी टे बोल् दूँगा, आसपास कोई प्रणव जैसा दक्ष मोची भी नहीं जो हमारा गठबंधन कर दें" मै चौंका, जूता वास्तव मे ज्ञानी था, जिस दुनिया मे लोग बढ़ा चढा के कुछ भी बोलते हैं वहाँ इस प्रकार के सत्यवादी जूते कि सत्यता कुछ सोचने को मजबूर करती है.  

खैर मैंने कदम सम्हालते हुए बाईक पे बैठा ही था, कि आवाज आई "मर गया "  मै फिर चौका, अब क्या हुआ तुझको ?? बाईक के दिल से आवाज आई थी.
"तुम बहुत वजनी हो गए हो, एक तुम्हारा वजन दूसरा  मेरे स्टालमेंट  का" - बाईक ने बोला  ,
तुझे उससे क्या स्टालमेंट  का बोझ तो मेरे ऊपर है तू क्यों चिल्लाता है ?? 
तभी तो दुगुना वजन हो गया है तुम्हारा, आजकल आदमी अपने वजन से कम और  स्टालमेंट के वजह से जादा वजनी हो गया है. 

कैसे दिन आ गए हैं मेरे आजकल निर्जीव भी आँखे दिखाते हैं, 

अभी थोड़े देर गया ही था कि रेड लाईट आ गया, मैंने गाडी रोक दी, चौराहे  के आसपास का दृश्य देखने लगा, रोड के दूसरे छोर पर बने पार्क मे चार छह जवान लडके लड़किया एक लाइन से बैठे हुए सन्यासीयों से विचार मग्न थे, जैसे देश के किसी गंभीर मुद्दे पे चर्चा करने वाले हों. उनको देख  मेरा भी मन होता कि काश मुझे भी देश कि सम्स्यायो पे गंभीर होने का मौका मिले, लेकिन अकेला चना कभी भाड़ फोडता है ?? 

थोड़ी दूर गया  हूँगा कि सफेदपोश ने मुझे रुकने का इशारा दिया, मैंने गाडी रोक दी, 
लाईसेंस दिखाओ : ट्रैफिक  वाले ने कहा , 
सीट के नीचे से निकाल  दे दिया, 
रजिस्ट्रेशन दिखाओ कह के मेरे पीछे वाले जेब कि तरफ देखने लगा ,वो भी मैंने सीट से निकाल के दे दिया, वो थोडा मायूस हुआ, 
आजकल के लडके रजिस्ट्रेशन तक सीट के नीचे रखते हैं, कही खसक वासक गया तो, अरे पर्स मे रखना चाहिए ."जी "  मैंने समर्थन कर दिया. 
चलो अब इन्सुरेंस दिखाओ, 
मैंने देदिया , 
ये तो परसों ही खत्म हो गया है,:  ट्राफिक वाला 
मै घबराया, हाय रे बुध्धि परसों तुझे याद क्यों आया, साले जूते अपनी औकात बता देते हैं, बाईक अपना रोना रो देता है तू ये तो भविष्य वाली है , इसके कंठ क्यों न फूटे ??? 
तू जूते का ख्याल रखता है, गाडी भी रोज साफ़ करता है, और मुझे पुरे साल मे  आज दूसरी बार आजाद किया अछ्छा है, फस जा तू, "इन्सुरेंस बोला " 
सफेदपोश मानो कह रहा है, अब फसें बच्चू , अब कहाँ जाओगे ? हमसे तो अछ्छे अच्छे नहीं बचे, तुम तो अभी बच्चे हो . 
ध्यान नहीं था सर, कल कि रीन्यू कर लूँगा : मैंने ट्रैफिक वाले को सफाई दी. 
काल करे सो आज कर आज करे अब होय, उसने कहा 
लेकिन आज इतवार है ओफ्फिस बंद रहता है, आज जाने दीजिएगा, कल चाहें तो मै आपके पास हाजिरी लगा जाऊंगा इन्सुरेंश के साथ. 
ये जुर्म पता है, पता है कितने का जुरमाना है ???  जाना है तो जाओ, लाईसेंस और रजिस्ट्रेशन छोड़ जाओ,  बस ये चालान लेते जाओ.
मैंने कहा ठीक है, कल आता हूँ, आप चालान काट दो.
उसने तिरछी नजर देखा "चालान सच मे कटवाओगे " ???
और कोई चारा भी तो नहीं है, मैंने कातर शब्दों कहा.

भाई देख चालान होगा, मामला कोर्ट मे जायेगा, तुझे वहाँ आना होना, ढेर सारा झंझट है, जो भी हो हम आखिर हैं समाज सेवक, सरकार हमें इसी बात के पैसे देती. एक काम कर थोड़ी कृपा कर और मामला यही रफा दफा कराते हैं. अच्छे घर के बच्चे कोर्ट कचहरी के चक्कर मे नहीं फसते .
दिखने मे तो अछ्छे घर से दीखते हो .

मेरा दिल धडका , जब कोई बडाई करे तब समझ लीजिए कि कुछ गडबड है , इनके अच्छी घर  से दिखने का मतलब  मोटा बकरा होता  है , जैसे मुल्ले साल भर पाल पास के बड़ा करते है , उसे पुचकारते हैं , बहुत बढ़िया है कहते हैं  उसे बकरीद को कट देते हैं , फिर कहते हैं बकरा बड़ा स्वादिस्ट था , बकरा बिचारा भी बहत्तर बकरियों के चक्कर खुशी खुशी  कट जाता है. 

"मतलब ??"  मै चौंका,
मतलब सरकारी परम्परा का निर्वाह करो, और झंझट से दूर रहो, परम्परा का निवाह करो , कुछ करो !.
लेकिन सर ये गलत है,आप रिश्वत कि बात कर रहे हो, ये तो सरकारी खजाने को नुक्सान पहुचाना है, मै अच्छे घर से हू नियम कानून जानता हूँ. आप चालान काटो खाने के चक्कर मे मत रहो. 

अच्छे घर से हो तो देल्ही क्या करने आये हो ?? वही रहते , खैर एसी भाषा का मै यहाँ अभ्यस्त हो चूका था, इन बातो पे मै बस एक ही बात समझाता, भाई देल्ही का इतिहास इतनी बार बदला गया है कि दो  प्रतिशत  के बाद यहाँ का कोई है या फिर फी जो ये कहता है तो मान लिया जाए कि वो मुगलों कि संतति है या अंग्रेजो का फल, मेरी दूसरी दलील इससे भी जादा खतरनाक वाली होती: माँ कि कोंख तो स्वर्ग होती है, न कोई चिंता, न फिक्र, माँ जो खाए चुप चाप उसी मे से मिल जाता है, फिर क्यों नहीं वही पड़ा रहता ?? क्यों बाहर  आ गया, अब जो तुझसे बचता है वो माँ खाती है. यही दोनों दलील मैंने पोलिस वाले को सुना दी . 

ट्रैफिक वाला भडका : अरे भाई खिलाया है तब खाते हैं, कही पुन्य किया, जिसको पैसे दे के पुलिस मे भरती हुआ उसने उस पैसे से गाँव मे मकान बनवा लिया, मैंने पुन्य किया, उस बिचारे के पुरे परिवार को छत दी है, इसी पुन्य के प्रताप स्वरुप मुझे ये नौकरी, नौकरी मिलने के बाद अपने वरिष्ठ के हित मे किया, पुन्य किया, उन्होंने मेरे पुन्य से नयी कार ली, तब यहाँ हूँ, जीवन मे तरना चाहते हो कि नहीं ?? तब तुम् भी कुछ पुन्य करो और परम्परा का निर्वाह करो. आज दुनिया पूजा और पुन्य पे तो टिकी है, नहीं तो तुम जैसे अधर्मियोंम के कारण पृथ्वी २००५ मे ही खतम हो गयी होती.. जिसको हम जैसे धर्मात्मा लोग अभी तक खींचते चले आते हैं.

इसने पुन्य कि परिभाषा ही बदल ही थी,  मुझसे पुन्य करवाने के लिए  अथक परिश्रम किया लेकिन, लेकिन मै ठहरा अधर्मी अन्यायी, चालान कटवाया घर आ गया.

इस बात को पुरे चार हो गए, तब से मैंने अपनी गाडी को हाथ नहीं लगाया, धीरे धीरे पेट्रोल के दाम बढ़ाने लगे, अब मै उस पुलिस वाले को धन्यवाद देता हूँ, नहीं तो न जाने अब तक कितने रूपये फूंक चुका होता, अनजाने मे ही ट्रैफिक वाले ने मेरा ऊपर बड़ा उपकार किया और मुझे अपराधबोध होता है उस अन्याय का जो मैंने उस ट्रैफिक वाले के साथ किया.
सादर ,
कमल कुमार सिंह . 

Monday, June 25, 2012

कोंग्रेसियों के एक और वीर : वीरभद्र


पहली बात तो नाम ही गलत है "वीर-भद्र " अरे भाई कभी कोई "वीर" मनुस्य "भद्र" हुआ है ?? पुराने जमाने कि बात छोडिये. कम से कम कोंग्रेसियों से तो एसी उम्मीद नहीं. 

अभी नया मामला आया है कि इन वीर महाशय ने भद्रता पूर्वक लाखो रूपये उगाहे, जिससे कोंग्रेस चिंतित है, हमें भी इनसे सहानुभूति है लेकिन चिंता करने वाली कौन सी बात ?? अरे तो हर हफ्ते का कार्य है कही न कहीं कोई न कही वीरता पूर्वक कोई कारनामा न हो कोंग्रेस किस काम कि ?? एक आदमी जब काम धाम करते हुए बोर हो जाता है तो सप्ताहांत मानता है, वैसे कोंग्रेसी भी अपने हिसाब साप्ताहांत मे  कोई न कोई वीरोचित कार्य कर देते हैं जिससे इनका मन बहल जाता है, जिससे इनको अगले  हफ्ते के कारनामे करने कि नई ऊर्जा मिलती है. 

घोटाला उद्योग और सिनेमा उद्योग मे झंडे गाड़ने के बाद यदि इस प्रकार का कोई कारनामा न हो तो निश्चय ही कोंग्रेस उद्योग सिंडिकेट गड़बड़ा जाएगा.  लेकिन डरने कि कोई बात नहीं इस पार्टी के सरकार मे एक से बढ़कर एक वीर हैं. कोई सिनेमा डाईरेक्टर है तो कोई एक्टर, कोई घोटाला एक्सपर्ट है तो कोई उगाहिबाज़, और इसमें बुरा भी क्या है ?? क्या सचिन, धोनी  क्रिकेट के  अलावा पार्टटाइम  विज्ञापन से उद्द्यम  नहीं कमाते ?? 
क्या अन्ना समाज सेवा के साथ साथ चंदा नहीं लेते ?? शायद कोंग्रेस सचिन से ही प्रभावित है तभी तत्काल सांसद बना उनको अपने बगल मे बिठा लिया,अरे भाई मार्गदर्शक बगल मे बैठे तो क्या बात है ... आसानी से टिप्स मिल सकती है.  अन्ना को रास्ट्रपति पद आफर हुआ था लेकिन उनको पता है कि ये साब बाद मे तिहाड के ड्यूटी पे लगा देते हैं.

 बड़े दुःख कि बात है वीर साथ मे अनुचित भद्र जी शर्माते हुए  इस्तीफा देने पहुच गए, अरे इसमें शर्माना  कैसा ?? क्यों इस्तीफा देना ?? "जो करे शरम उसके फूटे करम, कोंग्रेस  को भी पता है कि ये गर्वोचित कार्य है, परम्परागत कार्य है,  इसलये बता भी दिया कि अपने पद पे बने रहें और जो आप बच जाएँ तो कुछ हिस्सा जनपथ के जन को हवाले करें. सैयाँ भये  कोतवाल डर काहे का ? प्रेमी संग भये फरार डर काहे का ?? आप इस्तीफा  दे दोगे तो पार्टी आपके जैसा उगाहेबाज़ फिर कहाँ से लाएगी ?? आप पार्टी मे बने रहिये और प्रियंका गाँधी के शिमले वाले बगंले का कामकाज तन्मयता पूर्वक देखिये.  पहले ही पार्टी मदेरना / सिंघवी जैसे  कालजयी अभिनेता खो के अपना नुक्सान  कर चुकी  है. 

मुझे याद है बहुत पहले रामायण और महाभारत के लिए सडके ठप्प हो जाया करती थी, लोग दूरदर्शन से चिपके रहते थे, ठीक वैसे ही भारत कि जनता हर सप्ताह बैचनी पूर्वक कोंग्रेस के कारनामे देखने को बेताब रहती है, लेकिन वो रामायण, महाभारत वाली बात नहीं है, कारनामो मे कुछ गुणवत्ता होनी चाहिए, थोडा और उम्दा तरीके से होना चाहिए, बिलकुल लज्जत पूर्ण मदेरणा सिंघवी टाइप. जहाँ हजारों करोडो के घोटाले जनता मे मेगा  हिट हो चुके हों वहाँ लाखो के उगाही का प्रोग्राम उतना दिलचस्प नहीं, टी आर पि भी नहीं आ पाती. 

गुणवत्ता यदि कलमाड़ी या रोचकता मदेरणा /सिंघवी टाइप रखी जाए तो विज्ञापन से कमाई का एक और अच्छा जरिया बन सकता है.  मै तो आश्चर्य चकित हूँ कि वियाग्रा वाले मदेरणा / सिंघवी को क्यों नहीं ढूढ़ रहे ?? उनसे आदर्श कोहिनूर माडल शायद ही कहीं मिले अपने उत्पाद के लिए. 

अब देखना है अगले हफ्ते कौन सा सनसनी खेज प्रस्तुति होती है कोंग्रेस एंड इंटरटेनमेंट ग्रुप कि तरफ से. 


Sunday, June 24, 2012

सरकारी होलिका



भारत बड़ा अनोखा देश है, सैकड़ो धर्म /पंथ और  हजारो त्योहार हैं, और हर त्यौहार का एकवैज्ञानिक  कारन   है, जैसे दिवाली के बाद कीड़े मकोड़े मर जाते हैं, नाग पंचमी के दिन सांप को दूध पिलाया जाता है इसका ये मतलब नहीं की हिन्दू धर्म वाले सांप को बड़ा इज्जत देते हैं इसका मतलब ये भी हो सकता है की ले भाई अपना साल भर का कोटा पूरा कर और जान छोड़, ठीक वैसे ही जैसे जैसे चुनाव वाले दिन जनता वोट देके  इन नागो को देल्ही भेज देती की, जा भाई वहीँ से जहर फैला बार बार यहाँ आएगा तो हम पर असर जादा होगा. या इसका एक कारन और भी हो सकता है, कौन जाने इन सांपो वोट रूपी ढूध न दें तो डस ले , तीसरा कारन की जनता भी जानती है यदि अपना काम निकलवाना है इन नेतावों और अफसर शाहों को समय समय पे रिश्वत देना होगा.  मै तो कहता हूँ भाई वोट दिनाक को भी नाग पंचमी को घोषित कर देना चाहिए इससे नेतावों में भी अच्छी फिलिंग आएगी,  या नाग पंचमी को आधिकारिक तौर पर रिश्वत दे घोषित किया जाए, भारत परमपराओ का देश है एक दो नयी परम्परा और जोड़ी जाए तो भारत की जनता को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. लेकिन एक बात और है की इन नाना प्रकार के मीठे और सुगन्धित दूध पिने के बाद कोई गारंटी नहीं की सांप आपको न डसे. 
सांप तो सांप होता है भाई उसका  दोष  क्या ?? आपका खा पी के आपको दंश मारे तो क्या आश्चर्य ?? जब मन किया गठबंधित हो गए, जम मूड किया पलट के डस लिया, एकदम सापोचित व्यवहार कर नेता अफसर ये सिध्ध कर चुके हैं की इनके पूर्वज बन्दर नहीं हो सकते.   शोध करने वालो ने  बड़ा पक्ष पात किया है, शोध किया की सभी मानव बन्दर है, जबकि शोध से पहले मानवों का वर्गीकरण होना चाहिए था,पहला जनता और दूसरा नेता. तब निश्चय ही ये सामने आता की मानवों में जनता की प्रजाति बन्दर की संतति है और नेता सांपो के अथक परिश्रम का फल है.  वैज्ञानिको को इस दिशा में अभी भी शोध करने की आवश्यकता है.  

अब आते हैं एक नए परम्परा की और जो इन नेतावों के द्वारा अपनाई जा चुकी है, होलिका परम्परा.  


हमारा भारत सदियों से होलिका के पवन पर्व को मनाता आ रहा है, हरिनाकश्यप के पुत्र प्रहलाद  को जब पता चला की उसका पिता जनता रूपी ब्रम्हा  (ब्रह्मा इस इक्वल टू  आल जनता )से वोट रूपी वोट ले के असुर  बन और अब अब उन्ही वर देने वालो तक को छोड़ने को तैयार  नहीं उन्ही के रक्त से नहाना चाहता है , वरदान  का दुरपयोग कर रहा है तो बड़ा दुखी हुआ.  उसे  मरवाने की कोशिश की  लाठियां  बरसायीं, उसे भी अपने जैसा भ्रस्ताचारी बनाने का अथक प्रयास किया, लेकिन सब व्यर्थ, वह रहा इंसान ही राक्षस बनाने को  तैयार था. फिर हरिनाकश्यप को याद आया की उसकी बहिन बड़ी प्रतापी है उससे सहायता मांगी जाए, मांगी भी और तय हुआ की समस्या के जड़ को की समाप्त कर दिया जाय, जला दिया जाये, अग्नि तो वैसे ही पवित्र होती है जहाँ सब कुछ स्वाहा हो के पवित्र हो जाता है. उपाय अपनाया गया लेकिन प्रहलाद बच गया और होलिका निपट गयी. 


लेकिन आज के नेता  हरिनाकश्यप  के भी बाप है, वो किसी सद्चारी को जलना चाहते थे, जिसको उसने गलती से पैदा कर दिया था लेकिन आज की ये सरकार अपनी पापो को को पवित्र करने में लगी हुई है, भारत के राजा परम्परा को तो भूल गयी लेकिन होली परम्परा को याद रखा. जब पापों की फाईल बढ़ जाए किसी अच्छे युक्ति से उसको पाप मुक्त कर पवित्र बना दो, उस समय तो हरिनाकश्यप को मारने के लिए इश्वर ने खुद नरसिंह अवतार लिया, क्या आज के परिपेक्ष्य में कुछ एसा होने वाला है??? उस समय तो केवल एक राक्षस और आज गिनो एक तो निकेलंगे  दस जनपथ पे जन पथिको के के लिए,  कलियुग में इश्वर तो आने से रहे और यदि आ भी गए तो उनपे भी सैकड़ो फर्जी मुकदमे डाल किसी काल कोठरी में भेज के उनके कृष्ण अवतार परम्परा को फिर से जीवित कर देंगे, या गंगा नहान  परम्परा अपना लेंगे, जो अपनाना अभी बाकी है.

लेखक का अपहरण


"भाई जरा पानी तो पीला दो" ,  निरीह लेखक ने सबल अपहरण कार्यकर्ता  से गुहार लगायी. 
ये तेरा प्रेस नही, न हीं  मै तेरा संपादक , हुह पानी चाहिए " अपहरण कार्यकर्ता  ने जवाब सुनाया. 

"अरे भाई संपादक से तो पानी भी नहीं मांग  सकते हम, कौन जाने जहर मिला के  पिला   दे, कम से कम आप इतने निर्दयी नहीं होगे, एसी आशा के साथ आपसे पानी ही माँगा है, कोई आपके गैंग मे शामिल होने को तो नहीं कह रहा हूँ. "

लेखक कि ये बाते सुन अपहरण कार्यकर्ता फुला न समाया, उसका भी महसूस होने लगा कि कम से कम वो इसके संपादक से जादा दयावान है, अतः पानी के साथ साथ बिस्कुट भी मंगवा दिया. 

लेखक नाराज हुआ, "पानी के साथ बिस्कुट ?? लगता है आपलोग अपने आपको पुराने वाले गब्बर का अनुगामी  मानते हैं, अरे ये मोर्डन एज है, आजकल पानी के साथ क्वार्टर चलता है, चिकन चलता है.आप आधुनिक कार्यकर्त्ता हो आधुनिक बनो. यहाँ तक कि खुद आपके गब्बर जी ने भी कभी पानी के साथ बिस्कुट नहीं लिया होगा. 

आधुनिक बनने के चक्कर मे इंसानी कारोबारी ने लेखक कि डिमांड पूरी कर दी, अरे भाई बात आधुनिक बनने कि थी, कैसे लांछन लेता कि वो शोले के दशक का है, जहाँ आजकल सफेदपोश नेतावो का जलवा है. आजकल वैसे भी कोई  खुद को गवांर कहलाना कैसे बर्दाश्त करे, सच मानिए इस आधुनिकता से पुराने वालो को सामंजस्य बैठाने  मे बड़ी समस्याएं आ रही हैं. अपने तिवारी जी को ही देख लीजिए, यदि अपने समय मे  नियोजन अपनाते, तो खाक आज कि आधुनिक रक्त पहचान यंत्र कुछ पर पाता, अरे भाई जब क्रान्ति ही नहीं पैदा हो तो दबाने का सवाल कहाँ ??  

लेखक महोदय ने जम के पानी और एलाएंस का मजा लिया, और जब मूड जम गया तो लेखक महोदय भूल गए कि बंधक है. बोला "भाई ये बताओ आदमी तो नेक लगते हो, अपहरण क्यों ?? मै तो लेखक आदमी हूँ, विचारों के अलावा कोई फिरौती भी न दे सकूंगा, और विचार मेरे अपने कमाए हुए हैं जो सिर्फ मेरे पास ही होते है, सो यह मेरे विचार मेरे घर वाले भी मेरी  एवज मे देने से रहे.. रही बात परिवार वालो के पैसे कि तो वो भी मिलने से रहा, पैसे कि एवज मे मेरे तुम्हारे पास ही रहना वो ठीक समझेंगे, उनको खुशी भी होगी, कम से कम तुम्हारे साथ रह के कोई उद्द्यम तो करूँगा,"

"चुप बेवकूफ" कार्यकर्त्ता गुर्राया : आज के ज़माने मे नेकी और बदी कि क्या पहचान?

किसने कहा कि मैंने फिरौती के लिए तुम्हारा अपहरण किया है ? अरे इसका एडवांस मै तेरे मोहल्ले वाले से ले चुका हूँ,
क्या बात करते ?
हाँ उनकी शिकायत थी, तुम सबको दिक् करते हो अपनी रचनाये सूना सूना के कोहराम मचा रखा है, लोग महगाई और भ्रस्टाचार से वैसे ही त्रस्त हैं ऊपर से तुम्हारा रचानाचार.....आजिज आ गए थे वो, उन लोगो ने पुलिस से भी कम्प्लेंन कि, लेकिन जाना कि मुलजिम  लेखक है तो बड़ा  बड़ा सरदर्द समझा, और उनकी कार्यवाही करने कि हिम्मत नहीं हुई.

सोसाईटी  वालो ने भी तुम्हारे खिलाफ सचिव को कम्प्लेंन  किया , लेकिन वो बिचारा तुम्हे समझाने न जा सका उसको तो तुम वैसे भी गाहे बगाहे पकड़ के अपनी रचनाये सुना दिन रात खराब देते थे , कहीं समझाने जाता और एकांत पा, पूरी किताब पढवा देते तो बिचारा कही मुह दिखाने लायक नहीं रह जाता, लोग कहते देखो कैसा इंसान है सचिव , गया था समझाने और खुद दस्त कि बिमारी लगवा लाया. डाक्टर को भी न बता पाता लाज के मारे कि क्या खाया क्या पिया, और डाक्टर ये कत्तई नहीं मानते कि यदि  लेखक किसी का भेजा का खा के अपना पेट दिमाग भरता है  तब भी सामने वाले को ही दस्त लगती  है.  

लेखक बोला भाई ऐसा न करो , "लेखक समाज का आईना होता है, सूरत से ऊपर सीरत दिखता है , तुम मुझे बार दोगे तो किसी का लेखन मे विश्वाश नहीं रह जाएगा. तुम्हारा नाम भी इतिहास मे भैन्सान्छारो मे लिख दिया जायगा, जरा जरा सोचो क्या तुम्हारे माँ बाप के अरमान  नहीं होंगे  कि एक दिन तुम्हारा नाम भी स्वर्णाक्षरों  मे लिखा जाए ?? "

कार्यकर्ता बिदका "अरे भाई कोई अपनी बदसूरत सीरत देखना चाहता है क्या ? ऐसा होता तो सिंगापूर मे रहने  वाली अवैध बच्ची आज उत्तर प्रदेश के मंत्रालय के देख रेख मे होती, रोहित, तिवारी के गोद मे होता, मनु सिंघवी  के पास दो दो बेगम होती. भाई एक बात तो है तू है बड़ा अज्ञानी लेखक नहीं तो इतना जरुर मझता कि  यदि अपना खुद का चेहरा गंदा हो तो तो आईना देखने से इन्फिरीयारटी कोम्प्लेक्स आ जाता है. विज्ञापन नहीं देखता क्या, उसमे भी बताते हैं कि ऐसे मे आईना देखना वर्जित है,अन्यथा  कुछ वैसा  होता है जैसा सूर्यग्रहण  को नंगी आँखों से देख ली जाएँ.   
जहाँ पूरा समाज ही गन्दा हो आईना कौन देखना चाहता है ??  बड़े लेखक बनाते फिरते हो आजकल तो ये भी खा के आईना दिखाते हैं और कितना किससे खा चुके हैं उस हिसाब से आईना दिखाते हैं, तुम लोग आईना भी दिखाते हो तो  किसको ? दिखाते हो लोग भूख से मर रहें, लेकिन ये नहीं दिखाते कि क्यों मर रहें हैं, उन मरने वालो पे कहानी लिख देते, लेकिन उन मारने  वालो पे नहीं, गेहूं  रहा है दिखा देते हो, लेकिन किनकी वजह से ये नहीं दिखाते, किसी भी देश यदि कोई महिला रास्ट्रपति हो जाये तो ज़माने को गर्व से बताते हो कि महिला शाश्कतिकरण हो रहा है , यदि वही महिला दूसरे महिला के बलात्कारी कि सजा माफ कर दे तो चुप हो जाते हो, 

ये कहो कि लेखन का राजिनितिकरण हो गया है, सो ऐसे आईने को टूट जाना ही बेहतर है जो खुद गंदे हो गएँ हो." 

बिचारे अपहरणकर्ता ने एक लंबी हाँफ के बाद अपनी बात समाप्त कि, गला सुख चला था, बगल मे रखा सोमरस एक ही बार मे गटक डाला. लेखक उसका मुह विस्मय से देख रहा था. आजकल अपहरणकर्ता भी कितने जागरूक हो गए हैं, कितना कुछ मालुम हैं इनको अपने व्यवसाय के अलावा, काश ऐसा आम आदमी भी हो जाए तो क्या बात है. कुछ देर बोला बोला " भाई मै उस तरह का नहीं हूँ " . 

"तो मै उस तरह का कहाँ हूँ " अपहरणकर्ता बोला . 

"तो फिर " ??

अब अपहरणकर्ता के आँख मे आँसू आ गए पोछते हुए बोला  " भाई मै किडनैपर नहीं हूँ, जिस देश का वर्तमान और भविष्य ही किडनैपरो के हाथ मे हो वहाँ किडनैपिंग भी बहुत चमकदार रोजगार नहीं रहा अब.  मै भी  तुम्हारी तरह लेखक था, लोगो ने मेरा बड़ा तिरस्कार किया, हालत ये थी कि गद्य कोई पढ़ने को  तैयार नहीं और कवितावों को हिकारत कि नजर से देखते थे, मैंने अजीज आ कर घर बार छोड़ दिया, अब यहाँ गुमनामी कि जिंदगी बिताता हूँ, मोहल्ले वालो से संपर्क कर किसी दिक् करने वालो लेखक को पकड़ लाता हूँ कुछ मोहल्ले से मिल जाता है, और अपनी भड़ास भी निकाल लेता हूँ आज आपके ऊपर निकाली, बदले मे एक दो रचनाये थमा देता, आपको भी अब छोडता हूँ मेरी एक दो रचनाये लेते जाईये, किसी संपादक को थमा दीजियेगा कह दीजियेगा अपहरणकर्ता का लेख है, नहो छापेगा तो उसका अपहरण हो जाएगा, और जब छाप जाएँ तो उसके पैसे मेरे एकाउंट मे डाल दीजियेगा " अपना एकाउंट नो कि पर्ची लेखक को देते हुए कहा . 

लेखक महोदय छूट गए लेकिन उनको कोई खुशी  नहीं हुयी, अब ये लेखक महोदय खुद कभी कभार अपनी भड़ास निकलने उस अपहरणकर्ता के पास चले जाते हैं. बदले मे धमकी भरे पत्र के साथ अपनी रचनाये  छपवाते हैं और मिल बाँट के खाते हैं. आखिरकार गठबंधन यहाँ भी हो गया.. 

सादर 

कमल 

Saturday, June 23, 2012

भेडिया कि जीवनी


मै  भेड़िया हूँ , धूर्त , लम्पट लेकिन दिखने मे आम जानवरों जैसा ही हूँ .
एक समय था, जब आबादी कम और हम भी कम थे, भोजन का सामंजस्य बराबर था. धीरे धीरे समय बदला, मौसम बदला , मिजाज  बदला, हम ठहरे जानवर वैसे ही रह  गए , अलबत्ता इंसानों ने प्रगति कि, खूब प्रगति कि, खास कर भारत मे, यहाँ के लोगो मे पुरुषार्थ बहुत है, बहुत मेहनती है.  दिन रात मेहनत करते हैं, खूब बच्चे पैदा करते हैं. धीरे धीरे भारत मे आबादी  बढती गयी, इंसान बढते रहे और इंसानियत घटती रही . हम भी इन्तजार मे थे कि इस बढ़ने और घटने का फायदा हमें कैसे मिलेगा, लेकिन अफ़सोस.  हम पीछे होते  गये. 

इंसान बढ़ भी गया, चार्ल्स नियमानुगामी बन इंसानियत भी घट  गयी लेकिन अब तक इंसान जानवर नहीं बन पाया था. यही हमारी सबसे बड़ी चिंता थी. हमें भोजन कि कमी महसूस होने लगी. 

हमने अपनी सभा बुलाई, विषय  था जीवन यापन, खूब चर्चा हुई , खूब बहस हुआ , अंत मे उपाय निकला कि इंसानों मे सिर्फ इन्सानियती का घटना काफी नहीं है, कोई उपाय निकालो कि इंसान जानवर हो जाए , वो भी हमारे जैसे मारे काटे. 

एक प्रस्ताव पारित हुआ, इनको जानवर बनाओ. इसका जिम्मा लिया हमारे सर्वश्रेष्ठ भेडिया रक्षक के अधिपति श्री भेडिया चालक ने . 

अगले दिन जा के वो इंसानों के किसी ग्राम देवता के मूर्ति तोड़ आये, और हमारी योजना कामयाब हो गयी. 
लोग मार काट करने लगे और हमें माँस मिलने लगा, 

हमें अपने जीवित रहने का पक्का उपाय भी मिल चुका था. अब हम दशको से खुश है , कोई चिंता नहीं कोई परेशानी नहीं..


 क्या आप पहचान सकते है  कि हम भेडिया कौन ?????/ 

Wednesday, June 13, 2012

राष्ट्रपति चुनाव : सट्टा बाजार का नया आयाम:



सट्टा, आज रोमांच और डर का एक पर्याय बन चूका है, रोमांच इसलिए दिल उसी प्रकार धडकता है जैसे प्रस्ताव प्रेषित करने वाले प्रेमी का , डर इसलिए कि कही उसका प्रेम हार न जाए. 

ग्लोबलाईजेशन कि इस दौर मे सट्टा बाजार अपनी पैठ हर जगह बना चूका है, चाहे वो क्रिकेट हो या राजीनीति. एक बच्चे कि पैदा होते ही माँ बाप उस पर सट्टा लगाते हैं, सहारा बनेगा या नहीं, फिर दिल के तसल्ली देने के लिए कहते पाए जाते  "पूत सपूत तो का धन संचय, पूत  कपूत तो का धन संचय"  सारा पूत पे लगा दो बाद मे सूत मिलेगा, चल गया ठीक नहीं तो  तब तक जिंदगी कि  निपटानावस्था तो हो ही चुकी होगी.  बड़ा होने पे पुत्र और पुत्रवधू (वास्तव मे "पुत्र वधि" होना चाहिए - शब्दावली मे परिवर्तन कि आवश्यकता है ) माँ बाप पे सट्टा लगाते हैं, खुश हो गए तो सब नाम कर देंगे. 

जिस तरह से रोटियों के लिए बिल्लियों को  संशय मे  लड़ते देख बन्दर अपनी पैठ बना उल्लू सीधा कर लेता है, उसी प्रकार जहाँ भी संशय हो सट्टा चुपचाप कब्ज़ा जमा लेता है. 

जनता को दिखने के लिए आज तक सरकार ने समस्यायों का राजनीतिकरण तो किया है सिवाए सट्टा समस्या के, जरा सोचिये जो सरकार समस्यायों का राजनीतिकरण करती है यदि उसी सरकार के राजनीति के समस्या का सट्टा करण हो जाए तो कैसा होगा ?? 

देखा जाए तो बुरा भी नहीं लगता सुनने मे, राजनीति से सत्ता, या सट्टे से राजनीति फिर सत्ता. लग रहा है न जुड़वाँ भाईयों कि तरह??? 

वैसे अमर सिंह टाइप के लोग इस प्रथा कि बीज कोंग्रेस के खेत मे काफी पहले बो सके हैं लेकिन इसका शेयर आम पब्लिक के लिए ओपन नहीं था जैसे क्रिकेट या अन्य खेलो मे होता है.  

इस प्रकार के सट्टे मे मे जनता कि अनदेखी कर सिर्फ अपना लाभ कमाया जाता है. यदि भारतीय राजीनीति का भी सट्टाकरण हो जाए जो आम जनता के लिए भी उपलब्ध हो, तो सोचिये रोमांच किस हद तक बढ़ जाएगा ??  और जनता कि भागीदारी भी सुनिचित हो जायेगी कम से कम उस  लखपति -करोड़पति जनता कि जो  धूप कि वजह से वोट देने मे अपनी भागीदारी नहीं निभा पाता उसके लिए ये एक वाईल्ड  कार्ड इंट्री कि तरह होगा. और जो मध्यम  तबके के लोग है वो भी अपने पुरुशार्थानुसार भागीदारी ले सकते हैं.   इस प्रकार भारतीय राजनीति सच्चे अर्थो मे लोकतंत्र का आईना कहलायेगा.  

भारत मे राष्ट्रपति पद का चुनावी जंग भी बड़ा रोमांचक और संशय पूर्ण लग रहा है, कभी मुल्ला यम , ममतामयी ममता कि छाँव मे जाते हैं, तो कभी ममतामयी ममता मुल्ला यम के ऊपर वात्सल्य उडेलती नजर आती है, लेकिन इसमें जनता का क्या ??  वो बिचारी  बस सुबह शाम माँ -बेटे कि लाडला फिल्म का खबरिया चैनलों पे आनंद उठा सकती है . 

मै तो कहता हूँ कि राजीनीति का सट्टाकरण होना ही चाहिए, सोचिये क्या माहौल होगा ?? 

प्रणव का भाव सौ  पे तीन , हामिद पे पचास,  मंदमोहन अपने भावनिर्धारण के लिए सोनियान्मुख हुआ करेंगे,
जहाँ ममता -मुल्ल्यम बुकि अपने अपने जूनियर बुकियों (कार्यकर्त्ता) के द्वारा जनता से सीधे मसौदा तय किया करेंगे..  बड़े बड़े बुकि चेहेतो को पद दिलाने के लिए नेतावो कि खरीद फरोख्त आधिकारिक तौर पे किया करेंगे ( आई पी एल के क्रिकेटरों कि तरह), और यदि इसमें कोई पी ए  संगमा जैसा प्रतयाशी भी जीत जाए तो भी किसी पार्टी को कोई मलाल नहीं, धंधा लाल जो हो चूका है.  

ऐसे मे हाशिए पे पड़े दिग्गी टाइप के नेता भी बुकि बन कुछ रोजगार तो हासिल कर ही सकते है ,  और साथ जनता भी कुछ पैसे जोडने के साथ साथ भारतीय वोट व्यवस्था से इतर,  पद व्यवस्था मे भागीदार बन खुद पे गर्व  महसूस कर सकती है जिन्दा रही तो , कहीं पार्टी हार गयी तब भी कोई मलाल नहीं बड़े भागीदारी का सदमा मौत पे खत्म होगा सो सीधे मोक्ष प्राप्ति, जनसँख्या मे सुधार अलग से. 

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया - वाला शोल्क एक दम यथार्थ हो जाएगा.  बाबा रामदेव और खूसट अन्ना मुह बाए खड़े रह जायेंगे, क्योकि ये अनशन तो कर सकते हैं अंड संड नहीं. जिससे सरकार कि चिंताए भी कम हो सकेंगी. 

इस तरह से एक दिन भारत एक सुखी देश  बनता जाएगा,  और आने वाले दिनों मे सट्टा निश्चित ही आधिकारिक तौर सपोर्टिंग खेल के रूप मे ,  ओलम्पिक से ले के कामनवेल्थ तक शामिल होता चला जायेगा ..

सादर 

कमल कुमार सिंह 

Friday, June 1, 2012

ब्रहमेश्वर सिंह मुखिया : आधुनिक परशुराम




कौन जनता था की तारीख १  जून की सुबह एक एसे ब्राहमण   योद्धा की नृशंश  हत्या कर दी जाएगी जिसने अपनी   पूरी जिंदगी  किसानो के हित में  और  माओवादियों के खिलाफ लड़ते बिता दी और जान भी दी तो किसानो के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए. 
आगे बढ़ने से पहले मई कुछ बातो को साफ़ करता चलूँ. छोटी जाती में जन्म लेना कोई अपराध नहीं  है, ठीक उसी तरह बड़ी जाती में जन्म लेना किसी भी तरह से बुराई नहीं है. जाती या जन्म के आधार पर जुल्म करना कितना सही है कितना गलत ये तो विज्ञ लोग ही बता सकते हैं.  

मैंने बहुतो को देखा है की वो दलित सम्बन्धी  अधिकारों की वकालत करते देखा है ( मै भी इसके अंतर्गत हूँ) लेकिन इसका ये मतलब नहीं की सवर्ण पे जातिगत आधार पे या सम्प्प्नता के आधार पे आक्रमण किये जाएँ .  किसी का  अभी अपने अधिकारों के लिए लड़ना जायज है लेकिन इसका ये मतलब नहीं की जो चीज हमारे पास नहीं है उसे दूसरो से बलात  छीन ली जाए, चाहे वो दलित वर्ग हो या सवर्ण.  

इसको एक उदहारण  से और समझा जा सकता है, यदि किसी की आय चालीस हजार मासिक है और दुसरे की एक लाख, तो चालीस हजार वाला अपनी छमता बढ़ा कर अपनी आय एक लाख करने का अधिकार रखता है, लेकिन इसके बजाये यदि वो एक लाख पाने वाले व्यक्ति को मार कर यदी उसकी जगह हथिया लेता है तो यह निश्चय ही निंदनीय  है. 

इसी क्रम  में एक दौर वो भी था जब नक्सलीयों और माओवादियों ने बंगाल  को अपनी नफरत के आग से जलाने के बाद उनका विस्तार बिहार की होने लगा, इसी क्रम में उनकी नजर पूर्वी  उत्तर प्रदेश के कुछ इलाको पे भी थी.  थोड़े ही समय में नक्सलियों ने इसे दलित समर्थक होने का रंग रूप दे दिया, जिससे दलितों का कुछ भी  भला तो नहीं हुआ बल्कि माओवादियों ने अपनी टोपी जरुर सीधी की. 
 माओवादी और नक्सली   रातो रात जमींदारों /भूमिहारो/किसोअनो  के गाँव पे हमला बोल गाँव गाँव का साफ़ कर  देते, लोग अपनी मात्रभूमि, जमींन, गाँव छोड़ दूसरी जगह विस्थापित होने को मजबूर हो गए.  और जो लोग अपने जगह को किसी कारणवश नहीं छोड़ पाए वो पूरी की पूरी  रात  मवोवादियों और नक्सलियों के भय और  आक्रांत में जगने  को मजबूर थे.  गाँव वाले समयसारिणी के अनुसार पहरा देते. क्योकि उस समय  इन किसानो को न पुलिस से कोई सहायता प्राप्त थी न ही लालू के जंगल राज से.बल्कि नक्सलियों ने अपनी निजी अदालतें  लगा अपने आप को सरकार और अदालत से ऊपर घोषित कर रखा था.  नक्सली जब चाहते  किसी भी खेत में अपना लाल झंडा गाड़  देते, जो की सूचक होता था की इस जमीन पे अब उसके खेत के मालिक का की अधिकार नहीं रह गया है जिसका वह है, बल्कि उस खेत के साथ वो नक्सली  जो चाहे करें.  इस तरह से किसानो की जमीन उनसे अलग होती  चली गयी, हजारो एकड़ जमीं बंजर होती चली गयी , किसानो की तो रही नहीं और न ही नक्सलियों ने उसे की उपयोग में लाया.  

जनता के पास बस दो ही विकल्प बच गए या तो वो अपनी गाँव जमींन  छोड़ कहीं और विस्थापित हो जाए या तो नक्सलियों के हाथो मारे जाएँ,  तब एसे समय में ब्र्हमेश्वर जी ने एक सुरक्षात्मक सेना का गठन  किया जिसको नाम दिया "रणवीर सेना"  शुरुवात में इसमें भूमिहार और बड़े किसानो ने हिसा लिया लिया बाद में नक्सालियों के हिंसा को देखते हुए इसमें राजपूत और श्रीवास्तव भी जुड़ते चले गए.  ये सेना गाँव की सुरक्षा  की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू क्या क्योकि उनके पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था, या तो वो मर जाए या सब छोड़ जाये. तब रणवीर सेना ने इसका उपाय सोचा.

हम शांति चाहते हैं, जंग नहीं, 
यदि शांति है जंग से तो जंग ही सही.  

 रणवीर  सेना ने इसका उपाय ईंट का जवाब पत्थर से देना ही उचित समझा इसके आलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था जब सरकार खुद ही लुटेरी बन चुकी थी और पुलिस पंगु.  रणवीर सेनाओ के कार्यवायियों  के बाद नक्सली कुछ सहमे, लोगो को उनकी जमीन वापिस मिल गयी, लोग वापस लौटने लगे. और रणवीर सेना ने गंगा पार ही नक्सलियों की कमर तोड़ दी, जिससे वो उत्तरप्रदेश के पूर्वी इलाके को न झुलसा पाए. 

 आज मिडिया उनको २०० से अधिक हत्याओं का दोसी बता रही है,  इस बात को छुपा के की वो हत्याएं किसकी की गयी थी और वो कौन थे ?? और किसलिए की गयी ??  शायद मिडिया आज अपने अधकचरे ज्ञान से किसी का सच्चा चेहरा छुपा झूठ के  आईने   में दिखने को ही अपनी बहादुरी समझती है.  जा के पाँव न फटे बिवाई वो क्या साने पीर परायी.  

किसान और समाज के अधिकारों के लड़ते हुए मुखिया जी ने नौ साल जेल में भी बिताये, जिसमे से उन्हें अधिकतर मामलों में बरी कर दिया, जेल से छूटने के बाद उन्होंने "राष्ट्रिय किसान संगठन" बना कर  एक बार फिर से किसानो के हित की लड़ाई शांति और आग्रह  पूर्वक  करने की सोची थी  लेकिन शायद लोगो को अमन चैन पसंद नहीं, एक जून को सुबह तड़के उनकी हत्या कर दी गयी , इसमें कोई बड़ी बात नहीं यदि फिर रणवीर सेना ईंट का जवाब पत्थर से दे. 

आज खुशियों की कोई दुहाई देगा 
कोई मौत पे रहनुमाई देगा , 
चाँद सूरज जो बना दाग दीखाई न देखा, 
एक आंसू भी गिरा तो सुनायी देगा, 
एहसान फरामोश हो भी जाओ तो क्या , 
कारनामे अक्श मेरे , 
मौत के बाद भी दिखाई देगा 

सादर 
कमल कुमार सिंह