डब्बल गाँव का एक सीधा साधा लड़का था, मेहनती, जुझारू, बुध्धिमान, आज्ञाकारी, बडो का सम्मान करने वाला, बस उसमे एक कमी थी, इस साल वो तीसरे बार हईसकूल की परीक्षा मे बैठ रहा था. आज की डेट मे कहे तो, दो बार के फेल्यौर ने उसको मनमोहन घोषित कर दिया था, सब तरह से उम्दा लेकिन परिणाम विहीन.
भक्त आदमी थे, सुबह चार बजे से छः बजे तक पूजा, छः बजे से आठ बजे तक गाय गोरू, आठ बजे से दस बजे तक पुरे गाँव भर ढूंढ ढूंढ सभी बच्चो बच्चियों को सकुल भेजते थे, जब तक इनका खुद का स्कुल लेट हो जाता था.
लेकिन आप अब्राहम लिंकन से प्रभावित थे, " वो तो रात मे स्ट्रीट लाईट के नीचे भी पढ़ लेता था, तो मै लेट हुआ तो क्या?? कक्षा के सामने गुरु जी के मुह को देख के समझ जाऊंगा की वो क्या बोल रहे है, तुमने एकलव्य का नाम नहीं सुना ?? वो तो मूर्ति तक से सलाह ले लेता था, तो क्या मै जीते जागते गुरु की भाव भंगिमा नहीं पढ़ सकता?
आप सर्वश्रेष्ठ थे, ऐसा आप मानते थे, बाकी आपके श्रेष्ठता को ध्यान रख दूर से कल्टी हो जाते थे. "अबे देखो आ रहा है, खसको नहीं तो तीन घंटा खराब", जो खसक लेते आपके ज्ञान से वंचित रह जाते, जो गलती से फँस जाते वो कान मे रुई डाल आपकी सारी बाते ग्रहण कर लेते. आप जानते थे की लोग अज्ञानी है सो कभी कभी चुपके पाँव आ उनको आश्चर्य जनक रूप से ज्ञान दे जाते, जिससे उनके ज्ञान का कोटा हफ्ते तक पूरा हो जाता , वो आपके रास्ते मे कई हफ्ते तक नहीं आते.
आपके माता पिता को आप पर बड़ा गर्व था, हमारे घर के सामने अक्सर आपकी योग्यता का परिचय दे जाते "अरे दो साल हईसकुल मे फेल हुआ है तो का ?? हर साल चार कुंतल गेहूँ की पैदावार इसकी देख रेख मे होता है, एक ये आपका विवेकवा है (घर का मेरा नाम विवेक ही है ) दिन भर कापी गोदता है, किताब उलट पुलट के उसके पन्नों को परेशान करता है". जैसे डब्बल जी का ज्ञान गावँ के बच्चे लेते थे उसी प्रकार उनके पिता श्री का ज्ञान हमारे घर के लोग भी ले तत्काल उनको गुड पानी पीला सादर विदा करते, सादर इसलिए की जरा भी उनको एहसास हो की की "सादर" नहीं हुआ तो कुर्सी मगाने लग जाते. सो गाव के सभी लोग उनका बड़ा सत्कार करते थे.आजकल शनि का सत्कार भी सभी करते है सिर्फ शनि को टरकाने के लिए.
आपको जब एक साल पढके फेल होने का अनुभव हो चूका था तो उन दिनों मै हाईस्कूल पास कर ग्याराव्ही के लिए एक अदद स्कुल खोज रहा था. हमारे गावं की सरहद जहाँ खत्म होती थी वही एक बड़ा इंटर कालेज था जहाँ आप पढते थे, आप मेरे पास आये, " अरे यही नाम लिखा लो पास हो जाओगे " मैंने कहा आप कहाँ हुए ?? मै आपकी तरह "हाईस्कूल अनुभवी" नहीं होना चाहता. तब आपकी भुजाएं फडक उठती और कहते " तुम्हे क्या लगता है ? साल के अंत मे, ये तीन घंटे का पन्ना गोदना मेरे योग्यता को परख लेगा? " तभी मै कहता "गुरु आपकी वाणी मे बड़ा ओझ है, आप नेता बन जाओ, लेकिन भाषण बिना माला पहने मत दिया करो, क्रेडिट खराब होता है." तब आप प्रसन्न हो गए और गोलगप्पा खिलाने का प्रस्ताव दिया, पहली बार मेरे मन का काम किया. मुझे टेक्निक पता चल चुकी थी, इसी टेक्निक के सहारो मैंने कई सालो तक गोलगप्पा खाया और दोस्तों भी खिलाया.
वैसे आपकी बात मुझे भी जाँच गयी थी, घर के पास का कालेज, घंटी बजाने की आवाज आये तब भी पहुँच जाओ, घर बगल मे सो रुआब गाठने का मजा अलग, "कालेज हो जिसके घर के सामने, सिकंदर भी फेल उसके सामने" की तर्ज पे मूड बन गया. लेकिन भाई साहब को पसंद न था की मै गाव के कालेज मे पढू, "जो भी हो कल्याण सिंह के जमाने मे ७०% बिना नक़ल लाना आसान काम है क्या ?? " तुम शहर के सबसे बढ़िया कालेज मे पढोगे." मै समझ गया, आगे अन्धो मे काना राजा जैसी हालत होने वाली है.
बनारस का एक नामी कोलेज था "उदय प्रताप स्व्यत्शाशी कालेज" १९०९ मे बना, २५० एकड़ मे फैला यह कोलेज देश के किसी भी विश्वविद्यालय से टक्कर ले सकता है (सिवाय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के) यहाँ शिशु बम, गदहिया गोल (आज का एल के जी , अपर के जी ) से ले के शोध तक की पढाई एक ही परिसर मे की जा सकती है. इसी परिसर मे इंटर तक की पढाई का भव्य परिसर परिसर के शुरुवात मे पड़ता था.
उस ज़माने मे (शायद आज भी) यहाँ प्रवेश के लिए बड़ी मार-काट थी, और उस समय मै गाँधीवादी था, सो अहिंसा को ध्यान रख प्रवेश परीक्षा छोड़ दी, जिससे भाई साहब बड़े नाराज हुए, लेकिन वो ठीक ठाक आँख वाले को काना राजा बनाने की ठान चुके थे, पेशे से वकील जो थे.
सो अपने प्रभाव का प्रयोग किया. राम्लालित सिंह जी (नाम जानबूझ कर सही नहीं दे रहा, आजकल सरकार का भरोसा नहीं), जो वही पे शिक्षक थे और उत्तर प्रदेश के क एक बहुत ही मशहूर लेखक थे ( अंग्रेजी ग्रामर के) ,उनसे कह मेरा नाव लिखवा दिया गया. सच बताये तो कत्तई वो कालेज मुझे पसंद नहीं था, एक तो अनजान जगह (उस समय १५ किलोमीटर का जगह भी अनजान लगता था) ऊपर से मै हाफ पैंट पहनने वाला आदमी, यहाँ साले सभी फुल पैंट पहनते थे, रेंजर साईकिल से चलते थे, सीधी हैंडिल के साईकिल पे पता नहीं क्या साधते थे पुरे कैम्पस मे घूम घूम के.
कहते हैं महाराजा गोंडा उदय प्रताप जी के कोई संतान नहीं थी, सो उनके जीवन जीवन का लक्ष्य हजारों जुझारू बच्चे पैदा करने का था, बिना खुद जुझारू बने, सो इस कालेज का निर्माण कराया, ठीक उसी समय महारानी के भी कोई संतान नहीं थी, उन्होंने भी बीड़ा उठाया. महाराजा को लडके पसंद थे, और महारानी को लडकी, सो लडको के लिए "उदय प्रताप कालेज " और लड़कियों के लिए "रानी मुरार कालेज" का निर्माण हुआ जो एक ही परिसर मे था.
महारानी जानती थी, की महाराज के लड़के महराज की ही तरह जुझारू होंगे और हमरी लडकियों के परिसर के सामने चौबीस घन्टे खड़े होंगे, इनमे से कोई एक भी पास हो गया तो इनके बच्चे कहा जायंगे ?? सो उसी परिसर मे एक बच्चो का परिसर भी है जिसको "शिशु विहार " कहते है .
महारानी का अंदेशा गलत भी नहीं था. उदय प्रताप के लडके कक्षा खत्म होते है रानी मुरार के के गेट पे खड़े हो जाते , और छांटना शुरू कर देते, " लंबी वाली मेरी, छोटी वाली तेरी" कभी कभी तो दो पक्षों मे मार भी हो जाती, और बिचारी लंबी और पतली इन दोनों लडको की मारा पीट देख निकल जाती, शायद उनको पता तक न था की ये जो भविष्य के नेता लड़ाई कर रहे है उनकी संसदीय सीट हम ही है. "मुर्गा जान से गया, क़त्ल करने वालो को इल्म भी न हुआ". इस प्रक्रिया मे "रानी मुरार" की न जाने कितनी लड़कियों का अपने मा बाप से मोहभंग "उदय प्रताप" के लडको ने कर दिया, सो उनके साथ भाग खड़ी हुयी. आज कल शिशु विहार इन्ही लोगो के काम आता है, "डबल एलुमनी वेटेज" के तहत.
खैर प्रवेश हो चूका था, मै हाफ पैंट के सहारे अपनी तशरीफ़ सायकिल के सिट को समर्पित कर १५ किलोमीटर की एक तरफा दुरी रोज तय करनी शुरू कर दी.
कालेज १० बजे का था, घर से मै ८ बजे निकलता था, डेढ़ घंटे जाने मे लगते थे, और आधे घन्टे समोसा लौंगलता मे, एक दिन निकला ही था की दूर से "आप" लोटा ले के वापसी कर रहे थे (उन दिनों गावों मे शौचालय सबके यहाँ नहीं होते थे) मै बड़े धर्म संकट मे पड़ा, अपने जो रोक लिया तो सब दिन खराब, एक ही रास्ता, कही दाए बाए से कोई पगडण्डी होती तो कटा लेता, लेकिन दोनों तरफ गेहू के हरे भरे खेत, वापसी करू और आप देख ले तो आपकी नाराजगी से गोलगप्पा मैनेजमेंट भी खराब. उपाय सुझा, जैसे ही पास पंहुचा सधे तरीके से साईकिल गिरा दी , पेट पकड़ लिया "गुरु जरा लोटा देना मामला गडबड हो गया है एकाबैक, इमरजेंसी है," गुरु लोटा दे पुलिया पे बैठ गए शायद इस आश मे की हल्का हो तो मेरे ज्ञान का वजन सहने लायक हो जायेगा, "अरे बैठो मत जाओ, निपट के लोटा झोला मे रख लूँगा, पेट गडबड है , कौन जाने रस्ते मे एक दो बार और काम आये, शाम को वापिस दे दूँगा" मैंने कहा.
गुरु लोटा दे और बिना ज्ञान दिए भारी मन से घर की ओर रवाना हुए ताकीद के साथ की शाम को आग से शुध्ध करके देना, उसके वैज्ञानिक कारण ... " बात खिचने ही वाले नजाकत देखते हुए मैंने कहा " गुरु तुम्हारे ज्ञान के चक्कर मे पैंट खराब हो जाएगा" .
किसी तरह मै आपसे समय और जान छुड़ा वहाँ से निकल लिया, हाँ जो समय "आपके" साथ लगा था उसको मैंने समोसा और लौंगलता का त्याग कर एडजस्ट कर लिया था.
(वैसे तो ये लेख मैने कोशिश कर किसी तरह पूर्ण कर दी है , यदि आप लोगो को अच्छी लगे तो इसका अगला भाग भी आएगा, लेकिन आप लोगो के प्रतिक्रिया के बाद)
कमल कुमार सिंह
No comments:
Post a Comment