नारद: हार की जीत

Sunday, March 20, 2016

हार की जीत

महान लेखक सुदर्शन जी क्षमा याचना करते हुए उनका शीर्षक चुराता हु (अपनी सज्जनता का ख्याल रखते हुए वर्ना लोग तो यहाँ लेख के कलेवर बदल कर अपने नाम से चाप लेते है) . बचपन में एक कहानी पढ़ी थ “हार की जीत” सारी कहानी बाबा भारती के घोड़े के इर्द गिर्द घुमती थी, ५ नंबर का एक प्रश्न भी आया था छमाही में, जवाब भी दिए थे, पास भी हुए थे. घोडा सुलतान, डाकू खड़ग सिंह और बाबा भारती कालांतर में समाज से कल्टी कर दिए गए. उनकी कहानी गयी और ८०-९० के दशक में एक बार फिर घोड़ो ने कान्तिशाह फिल्मो के दवारा जनता के दिलों में घर वापसी की. यहाँ तक की छोटे बच्चे ऐसी फिल्मो को देंख ले तो आपस में भागम भाग खेलते समय “कड़बक कड़बक” की आवाजें निकालते. कान्तिशाह के हर फिल्म के डाकू का साथी एक घोडा हुआ करता था जिसपे बैठ भीमा, दाद्दुवा, सांगा इत्यादि डाकू और आज के बुध्दजीवियों के नजर से देखें तो लाल सलाम वाले क्रांतिकारी लोग अपने कार्य बिना लेबर-ला के झंझट के ख़ुशी ख़ुशी मनमाफिक अधिकार लुट के क्रान्ति की अलख जगाया करते थे. कभी कभार प्रेम लीला करने के लिए या किसी किशोरी को छेड़ने या उससे विशेषाधिकार लेने के लिए भी घोड़ो को बराबरी का सहभागी बनाया जाता वो घोड़े आज होते तो डाकुवों के साथ साथ रेप में साथ देने की एवज में उसपे भी दफा ३०२ या षड्यंत्रकारी या षड्यंत्र में दात देने वाले टाइप का मुक़दमा घोषित हो जाता, और रविश को उन डाकुवों के साथ साथ घोड़े की भी लड़ाई लड़नी पड़ती, पूछ के “कौन जात हो" घोड़े अभी भी चर्चा में है, खैर चर्चे में तो गधे भी है, किस्म किस्म के, कहीं किसी मिडिया हॉउस में जो स्वयं अपना मुह काला करने निसंकोच सक्षम है, कहीं किसी यूनिवर्सिटी में तो कही किसी प्रदेश के विधान सभा के, लेकिन इन गदहों को ऑटो अपग्रेड सुभीते के लिए घोड़ो का नाम दे दिया गया है और उसकी अब बाकायदा ट्रेडिंग होती है “हॉर्स ट्रेडिंग”. अब मुद्दा ये है की घोड़े नाराज है की उनका नाम गधो को क्यों नहीं दिया गया ऊपर से ही चबाने पड़ते है, जबकि गधे, गधे होते हुए भी मलाई काट रहे और तुर्रा ये की घोड़ो का नाम भी छीन रहे. गधे इस बात से नाराज है की क्या गधों की कोई इज्जत नहीं? कोई पहचान नहीं? इस्तमाल उनका होता है लेकिन नाम किसी और का? वो भी अपने गधाधिकारों की लड़ाई के लिए अपने किसी जात भाई या किसी रविश, बरखा या पीपीबी (पुण्य प्रसून बाजपाई) का मुह ताक रहे हैं, लेकिन कोई उनके तरफ नहीं देखता, इंसानी चोलों के सारे गधे सिर्फ इंसाननुमा गधो की ही बात करते दिखाई दे रहे है. इन गदहा घोडा पचीसी में किसी जीत है और किसकी हार तय कर पाना उतना ही मुश्किल है जितना कोंग्रेस, क्म्युन्स्ट और वामपंथियों में अंतर ढूंढ लाना, फिलहाल शो चालु आहे. सादर कमल कुमार सिंह

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