नारद: सेलेक्शन कमेटी की चूक : ओलम्पिक

Saturday, August 4, 2012

सेलेक्शन कमेटी की चूक : ओलम्पिक


ओलम्पिक मे भारत की दुर्दशा ये दर्शाती है, की भारत अब खेल कूद से ऊपर उठ चूका है, खेल -कूद तो निठ्ठलों का काम है, बुध्ध्जिवी देश की जनता को बस देश दुनिया पे नजर रखनी चाहिए, न की खुद शामिल होना, कभी किसी बुध्ध्जिवी को प्रायोगिक रूप मे  आजतक कुछ करते देखा है ??? 

अपने प्रधानमन्त्री भी एक बुध्धिजीवी  है, शायद ही किसी ने कुछ करते देखा हो?  आजादी के बाद देश प्रगति पे था और बुध्द्जिवियों की खेती की जा रही थी, तो कुछ लोगो का रुझान "कुछ" खेलो मे था, बेहतरीन सफलता भी मिली, लेकिन  कालांतर मे ब्लड टेस्ट से डोम्पिंग मे पकड़ लिए, बदले मे उन्हें एक जीता जागता मेडल मिला, अपने खिलाडी महाराज बड़े उदार थे, भागते फिरते थे, प्रदर्सन मे अव्वल आने  के बाद भी इन्होने मेडल को स्वेच्छा  से त्याग दिया, बोले देश का देश को समर्पित, लेकिन मेडल भी बहुत जिद्दी निकला, बोला हम तो आपको ही डिजर्व करते हैं..  विश्व इतिहास मे शायद पहली बार किसी मेडल ने खिलाडी के लिए क्लेम किया है.. ऐसा है अपना देश, महान भारत, जहाँ खिलाडी फर्स्ट क्लास प्रदर्शन के बाद भी मेडल नहीं स्वीकारता जबकि मेडल खुद दौड़ा दौड़ा जबरजस्ती सीने पे चढ़ कोदो(मूँग) दरता है.  खैर ये तो था उस ज़माने के खेल जिसका मेडल अब मिला.

और तो और अपने अन्ना जी भी मनमोहन के मित्र होने जा रहे हैं, डेढ़ साल से करेंगे करेंगे लोकपाल लेंगे नहीं तो जान दे देंगे, मर जायेंगे मिट जायेंगे, सरकार हिला देंगे, लेकिन हाय रे पेट, भूख ने ऐसा हिला दिया की भगत सिंह का भूत १९४२ का  गांधी बन केजरीवाल से असहयोग आन्दोलन कर भाग बैठा..और नेहरु वाले भूत ने अरविन्द को  लेडी माउंटबटन एडविना  समझ मोहब्बत का इजहार किया. 

कालांतर मे सरकार ने खेलो पे खूब ध्यान दिया, खेलो ने खूब प्रगति की, कलमाड़ी जी इसके एक बेहतरीन उदाहरण  है, विश्व मे पहली बार किसी आयोजक ने खिलाडियों के खिलाड़ी बन अपने  बेहतरीन प्रदर्शन से देश का नाम ऊँचा किया. बोले इतने खिलाडियों को जब हम खुद खिल्वायेंगे तो हम खुद क्यों न खेले, बस खेल दूसरा था, अपनी अपनी पसंद.

अब आईये लन्दन पर, एक दो खिलाड़ी जो बुध्ध्जिविता से उब कर खेल वाले  खिलाड़ी बने तो उनको मिला क्या, कांस्य या चांदी, लेकिन इनके साथ अफसरों की चांदी जरुर  हुयी, फ्री मे लन्दन विसिट, बोले जीत गए ताली बजायेंगे, हार गए तो हमें क्या तुसाद गैलरी और लन्दन ब्रिज तो देख ही लिया.

वास्तव मे जानबूझकर अधिक मात्र मे  ऐसे खिलाड़ी भेजे गए जिनमे बुध्ध्जिविता जादा हो उससे इन अफसरों का ही फायदा था, जादा हारेंगे तो अगली बार फिर कहीं और जायेंगे, एक और ट्रिप पक्का.

वास्तव मे ओलम्पिक मे भेजने से पहले सरकार और अफसरों को पुरे देश मे खिलाडियों की खोज करनी थी, फेसबुक से , ट्विटर से जैसा की आजकल अन्ना टीम करती है, अरे भाई इन सब साधनों से जब  जनता जुटाई जा सकती  है तो खिलाड़ी ढूढना कौन सी बात है, लेकिन नहीं.. सरकार को आम तौर पर आम जनभागी नहीं चाहिए होता है .

सुबह कोने वाली दूकान पर चाय नाश्ता कर रहा था तभी, मेरे पड़ोस के पडोसी चले  आये, बोले यार देखो सारे देश इतना चांदी सोना लूट रहे हैं एक अपना भारत है ..

मैंने कहा तो ??

"तो क्या ?? मोहल्ले का "आदेश" क्या बुरा है, छंटा हुआ बदमाश है, पितौल चलाना जानता है, सोने से कम पे नहीं मानता, या तो निशाने से सोना लाता, न जीतता तो वही पितौल दिखा के ले आता.  या फिर "धमरुवा" को ले जाना था, आज भी गुलेल से सही आम तोड़ लेता है.".

मैंने सहमति मे हाँ हिलाई, उनकी आदत है, जो उनकी सहमति मे सर हिला दे उसके चाय नाश्ता का बिल वो खुद भर देते है.

फिर कहा "भागने की प्रतियोगिता मे अपने अन्ना जी को ले जाना था, जो देल्ही से मुंबई , मुंबई से रालेगन , राले गण से भर देल्ही, और फिर देल्ही से दूसरा ट्रेक पकड़ सकता है उसके सामने तो पि टी उषा भी फेल है , पक्का सोना  आता, जो न जीत पाते तो फोर्ड वाले कुछ सहायता कर देते इस मामले मे". \

मैंने फिर सहमति मे सर हिला दिया .

"तैरने वाले मे केजरीवाल को ले जाना था, इसमें वही जीत सकता है जो दूसरों को डुबाने का माद्दा रखता हो, इसने तो पुरे जनता को डूबाया और खुद तैर के भाग लिया.".

मैंने फिर सहमति मे हाँ की,

भईया कुल आज के २० रूपये और हफ्ते का मिला के १३०, चाय वाले की आवाज आयी..

मैंने देने के लिए जेब मे हाथ डाला, तभी सर हिलाने का मुवावजा देने के लिए शर्मा जी ने कहा, "आप जाओ सिंह साहब, मै दे दूँगा अभी मै कुछ देर और बैठ ओलम्पिक का जनमत करूँगा".

मैंने फिर सहमति मे सर हिलाया, समय हो चुका था, लिखने का. 

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

खिलाड़ियों का चयन ठीक से नहीं हुवा सच में .. माहि तो मेडल की भरमार लग जाती .... हा हा .. अच्छा व्यंग है ...