"जोखुआ" हाँ यही कहते थे हम लोग उसको.
शरीर से हट्टा-कट्टा, जिस पर मै कभी कभी जल भून भी जाता था जब मेरे रुआबी पीता श्री मुझे ताना देते, " देख ओकर, मजदूर बाप के नून रोटी खा के पहलवान भयल बा , एक तय हैं कि पेड़ से घी चुवावले तबो मुष्टि.
सच बात तो थी, वो दस साल में भी चौदह से कम का कहीं से न लगता था, और उसी के हम उम्र हम भी मानो संतूर लगा लिए हों, न उम्र बढती थी न शरीर, संग में चलता तो दुश्मन टोली दूर से भागती थी.
वो साथ रहता तो दो - दो पैकेट पार्ले जी पे लगा क्रिकेट का मैच हम लोग आसानी से बेईमानी कर के जीत लेते थे और दुश्मन टोली हाथ मलते रह जाती .
हर परेशानी में साथ होता, दिमाग तो ऐसा गजब चलाता कि आज अन्ना भी गच्चा खा जाते उससे.
हमें पिता जी बाग का अनार तोडने न दिया करते ,बोलते जब पक जाए तब तोडा जाएगा, और निशान के लिए हर आनार पे प्लास्टिक बाँधा करते और रोज गिना करते थे.
लेकिन हम कहाँ मानने वाले थे सो उसको नेवता दिया, उसने कुछ जुगाड फिट किया, अब हम रोज छक के अनार उड़ाते और पिता जी को पता भी न चलता था. आज जब पिता जी को लगा कि अब अनार उतारना चाहिए तो गए बाग झोला झक्कड ले के.
अकसर वो स्कुल से हमारे साथ घर ही चला आता था और रोटी पानी निपटा के अपने घर जाता था आज भी मै जब स्कुल से जब घर आया तो जोखुआ भी साथ ही था, अचानक मेरी नजर पिता जी पे पड़ी तो साँस गुलाटी खाने लगा, गुस्सा तो उनका ऐसा था जैसे आज अन्ना को लोकपाल के न मिलने पे कोंग्रेस पे आता है.
पिता जी ने झोला ला के पटक दिया सामने , निकला मिट्टी का ढेला, मुझे तो कुछ समझ न आया पर जोखुआ खी खी कर के हँसने लगा, दोनों कि जम के पिटाई हो गयी, जितना अनार खाया था सब चमड़ी पे झलक रहा था.
हुआ ये था कि वो प्लास्टिक उतार के अनार तोड़ लेता और उसकी जगह मिट्टी का ढेला बाँध देता.
पेड़ पे चढ चर्चा करना उसका पसंदीदा कार्य था, जिसकि भागीदार टोली भी होती थी, सबके अपने अपने चिन्हित डाल थे, जैसे सारे मंत्री अपनी विचारधारा इसी समय रख सकते मानो डालो के हिलने से नए विचारों का प्रवाह आ जाता हो .
दुश्मन टोली को कैसे मजा चखाना है, या साधू बाबा को कैसे चिढाना है, या फिर दूसरे के खेत का गन्ना अपने मेंड पे ला के कैसे चूसा जाए, सारी योजनाये इसी समय तय होती.
दो महीने बाद महीने छात्र वृत्ति प्रतियोगिता थी सो सबकी तयारी शुरू थी, मै भी लगा था जी जान से, लेकिन जोखुआ उदास था कई महीनो से स्कूल कहाँ गया था वो ? रोज स्कूल के समय से घर से रोज निकलता लेकिन कही जा के खेलता कूदता, स्कुल खत्म होने के समय हम लोगो के साथ हो वापिस हो लेता, सब समझते जम के पढाई कर रहा.
अब कलई खुली हजरत कि, मै मन ही मन खुश था, उसके खुरापाती दिमाग कि वजह से मेरे मन भी जलन पैदा होती थी कभी-कभी , मै भूल गया कि न जाने कितनो के बाग मैंने उसके सहयोग से उजाडा था, अब मौका मिला था मुझे सो कैसे छोड़ देता... ??
मैंने सुझाव दिया,कहा "सुन पंडित जी कहते हैं रोज सुबह वाला पानी यदि बबूल के जड़ में चालीस दिन तक डाला जाये तो जिन्न प्रकट होता है जो मन चाही मुराद पूरी करता है, लेकिन शर्त ये कि उस समय कोई तुझे देखे न, नहीं तो सब भंग हो जायेगा".
अब क्या था, जोखुआ बाग् बाग हो गया, वो रोज सुबह यज्ञ में लग गया, मै मन ही मन अपनी कुटिल चाल के कामयाबी पे प्रसन्न भी था. वो रोज सुबह चार बजे भोर में उठता , खेत से वापस आते ही मुंशी जी वाले बाड़े में लगे बबूल के पेड़ को पानी दे के इक्कीस बार चक्कर लगाता और खुश होता कि आज भी उसे किसी ने नहीं देखा.
चालीसवें दिन मै घात लगा के बैठा था, जैसे ही पानी डाल के चक्कर लगाना शुरू किया मै सामने आ गया, "भूत भूत " करके भागने लगा तो मैंने पकड़ लिया, वो हैरान "ब्रूटस इट्स यू " के तर्ज पे हैरान हो के कहा, " तुम" ?? और जोर जोर से रोने लगा ......
आज बरसो बाद जब उसके घर गया तो बारी मेरी थी, मै जोर जोर से रो रहा था और वो शांत, निश्छल, निर्भाव, जमीन पे पड़ा था, किसी बुजुर्ग कि आवाज आई, "मिट्टी जल्दी ले चलो नहीं खराब हो जायेगा" ......
*मिट्टी = लाश
कमल , १३ दिसंबर २०१२
8 comments:
kamal bhai...good one...padne ke baad gaun ke dosto ki yaad aa gayi...!!
kamal bhai...good one...padne ke baad gaun ke dosto ki yaad aa gayi...!!
What happen with Jokhua , did he sucide ?
ओहो ...आँखे नाम कर गया आपक लेख ...''जोखुआ'' को श्रदांजलि
बहुत ही सुंदर रचना बॄटस दाउ टू कर दीजियेगा। विवरण तो प्रेमचंद सा लिखा बन पड़ा है बौत ही अद्भुत आशा है ऐसी ही लेखनी निरंतर चलती रहेगी
एक नायब प्रस्तुति.. भावनाओ के विस्लेसन मैं माहिर हैं आप कमल भाई.. और चरित्र चित्रण के उस्ताद.. इस कालजई लेख के लिए बधाई (अन्ना को न लाते तो भी इस लेख पर कोई फर्क नहीं पड़ता..)
सुन्दर अंतर्स्पर्शी लेखन आदरणीय कमल भाई...
सादर..
Bahut Sunder likhe ho kamal bhai..
Gaon ki yaaden taza ho gayi..
Post a Comment