ये तेरा प्रेस नही, न हीं मै तेरा संपादक , हुह पानी चाहिए " अपहरण कार्यकर्ता ने जवाब सुनाया.
"अरे भाई संपादक से तो पानी भी नहीं मांग सकते हम, कौन जाने जहर मिला के पिला दे, कम से कम आप इतने निर्दयी नहीं होगे, एसी आशा के साथ आपसे पानी ही माँगा है, कोई आपके गैंग मे शामिल होने को तो नहीं कह रहा हूँ. "
लेखक कि ये बाते सुन अपहरण कार्यकर्ता फुला न समाया, उसका भी महसूस होने लगा कि कम से कम वो इसके संपादक से जादा दयावान है, अतः पानी के साथ साथ बिस्कुट भी मंगवा दिया.
लेखक नाराज हुआ, "पानी के साथ बिस्कुट ?? लगता है आपलोग अपने आपको पुराने वाले गब्बर का अनुगामी मानते हैं, अरे ये मोर्डन एज है, आजकल पानी के साथ क्वार्टर चलता है, चिकन चलता है.आप आधुनिक कार्यकर्त्ता हो आधुनिक बनो. यहाँ तक कि खुद आपके गब्बर जी ने भी कभी पानी के साथ बिस्कुट नहीं लिया होगा.
आधुनिक बनने के चक्कर मे इंसानी कारोबारी ने लेखक कि डिमांड पूरी कर दी, अरे भाई बात आधुनिक बनने कि थी, कैसे लांछन लेता कि वो शोले के दशक का है, जहाँ आजकल सफेदपोश नेतावो का जलवा है. आजकल वैसे भी कोई खुद को गवांर कहलाना कैसे बर्दाश्त करे, सच मानिए इस आधुनिकता से पुराने वालो को सामंजस्य बैठाने मे बड़ी समस्याएं आ रही हैं. अपने तिवारी जी को ही देख लीजिए, यदि अपने समय मे नियोजन अपनाते, तो खाक आज कि आधुनिक रक्त पहचान यंत्र कुछ पर पाता, अरे भाई जब क्रान्ति ही नहीं पैदा हो तो दबाने का सवाल कहाँ ??
लेखक महोदय ने जम के पानी और एलाएंस का मजा लिया, और जब मूड जम गया तो लेखक महोदय भूल गए कि बंधक है. बोला "भाई ये बताओ आदमी तो नेक लगते हो, अपहरण क्यों ?? मै तो लेखक आदमी हूँ, विचारों के अलावा कोई फिरौती भी न दे सकूंगा, और विचार मेरे अपने कमाए हुए हैं जो सिर्फ मेरे पास ही होते है, सो यह मेरे विचार मेरे घर वाले भी मेरी एवज मे देने से रहे.. रही बात परिवार वालो के पैसे कि तो वो भी मिलने से रहा, पैसे कि एवज मे मेरे तुम्हारे पास ही रहना वो ठीक समझेंगे, उनको खुशी भी होगी, कम से कम तुम्हारे साथ रह के कोई उद्द्यम तो करूँगा,"
"चुप बेवकूफ" कार्यकर्त्ता गुर्राया : आज के ज़माने मे नेकी और बदी कि क्या पहचान?
"चुप बेवकूफ" कार्यकर्त्ता गुर्राया : आज के ज़माने मे नेकी और बदी कि क्या पहचान?
किसने कहा कि मैंने फिरौती के लिए तुम्हारा अपहरण किया है ? अरे इसका एडवांस मै तेरे मोहल्ले वाले से ले चुका हूँ,
क्या बात करते ?
हाँ उनकी शिकायत थी, तुम सबको दिक् करते हो अपनी रचनाये सूना सूना के कोहराम मचा रखा है, लोग महगाई और भ्रस्टाचार से वैसे ही त्रस्त हैं ऊपर से तुम्हारा रचानाचार.....आजिज आ गए थे वो, उन लोगो ने पुलिस से भी कम्प्लेंन कि, लेकिन जाना कि मुलजिम लेखक है तो बड़ा बड़ा सरदर्द समझा, और उनकी कार्यवाही करने कि हिम्मत नहीं हुई.
सोसाईटी वालो ने भी तुम्हारे खिलाफ सचिव को कम्प्लेंन किया , लेकिन वो बिचारा तुम्हे समझाने न जा सका उसको तो तुम वैसे भी गाहे बगाहे पकड़ के अपनी रचनाये सुना दिन रात खराब देते थे , कहीं समझाने जाता और एकांत पा, पूरी किताब पढवा देते तो बिचारा कही मुह दिखाने लायक नहीं रह जाता, लोग कहते देखो कैसा इंसान है सचिव , गया था समझाने और खुद दस्त कि बिमारी लगवा लाया. डाक्टर को भी न बता पाता लाज के मारे कि क्या खाया क्या पिया, और डाक्टर ये कत्तई नहीं मानते कि यदि लेखक किसी का भेजा का खा के अपना पेट दिमाग भरता है तब भी सामने वाले को ही दस्त लगती है.
क्या बात करते ?
हाँ उनकी शिकायत थी, तुम सबको दिक् करते हो अपनी रचनाये सूना सूना के कोहराम मचा रखा है, लोग महगाई और भ्रस्टाचार से वैसे ही त्रस्त हैं ऊपर से तुम्हारा रचानाचार.....आजिज आ गए थे वो, उन लोगो ने पुलिस से भी कम्प्लेंन कि, लेकिन जाना कि मुलजिम लेखक है तो बड़ा बड़ा सरदर्द समझा, और उनकी कार्यवाही करने कि हिम्मत नहीं हुई.
सोसाईटी वालो ने भी तुम्हारे खिलाफ सचिव को कम्प्लेंन किया , लेकिन वो बिचारा तुम्हे समझाने न जा सका उसको तो तुम वैसे भी गाहे बगाहे पकड़ के अपनी रचनाये सुना दिन रात खराब देते थे , कहीं समझाने जाता और एकांत पा, पूरी किताब पढवा देते तो बिचारा कही मुह दिखाने लायक नहीं रह जाता, लोग कहते देखो कैसा इंसान है सचिव , गया था समझाने और खुद दस्त कि बिमारी लगवा लाया. डाक्टर को भी न बता पाता लाज के मारे कि क्या खाया क्या पिया, और डाक्टर ये कत्तई नहीं मानते कि यदि लेखक किसी का भेजा का खा के अपना पेट दिमाग भरता है तब भी सामने वाले को ही दस्त लगती है.
लेखक बोला भाई ऐसा न करो , "लेखक समाज का आईना होता है, सूरत से ऊपर सीरत दिखता है , तुम मुझे बार दोगे तो किसी का लेखन मे विश्वाश नहीं रह जाएगा. तुम्हारा नाम भी इतिहास मे भैन्सान्छारो मे लिख दिया जायगा, जरा जरा सोचो क्या तुम्हारे माँ बाप के अरमान नहीं होंगे कि एक दिन तुम्हारा नाम भी स्वर्णाक्षरों मे लिखा जाए ?? "
कार्यकर्ता बिदका "अरे भाई कोई अपनी बदसूरत सीरत देखना चाहता है क्या ? ऐसा होता तो सिंगापूर मे रहने वाली अवैध बच्ची आज उत्तर प्रदेश के मंत्रालय के देख रेख मे होती, रोहित, तिवारी के गोद मे होता, मनु सिंघवी के पास दो दो बेगम होती. भाई एक बात तो है तू है बड़ा अज्ञानी लेखक नहीं तो इतना जरुर मझता कि यदि अपना खुद का चेहरा गंदा हो तो तो आईना देखने से इन्फिरीयारटी कोम्प्लेक्स आ जाता है. विज्ञापन नहीं देखता क्या, उसमे भी बताते हैं कि ऐसे मे आईना देखना वर्जित है,अन्यथा कुछ वैसा होता है जैसा सूर्यग्रहण को नंगी आँखों से देख ली जाएँ.
जहाँ पूरा समाज ही गन्दा हो आईना कौन देखना चाहता है ?? बड़े लेखक बनाते फिरते हो आजकल तो ये भी खा के आईना दिखाते हैं और कितना किससे खा चुके हैं उस हिसाब से आईना दिखाते हैं, तुम लोग आईना भी दिखाते हो तो किसको ? दिखाते हो लोग भूख से मर रहें, लेकिन ये नहीं दिखाते कि क्यों मर रहें हैं, उन मरने वालो पे कहानी लिख देते, लेकिन उन मारने वालो पे नहीं, गेहूं रहा है दिखा देते हो, लेकिन किनकी वजह से ये नहीं दिखाते, किसी भी देश यदि कोई महिला रास्ट्रपति हो जाये तो ज़माने को गर्व से बताते हो कि महिला शाश्कतिकरण हो रहा है , यदि वही महिला दूसरे महिला के बलात्कारी कि सजा माफ कर दे तो चुप हो जाते हो,
ये कहो कि लेखन का राजिनितिकरण हो गया है, सो ऐसे आईने को टूट जाना ही बेहतर है जो खुद गंदे हो गएँ हो."
बिचारे अपहरणकर्ता ने एक लंबी हाँफ के बाद अपनी बात समाप्त कि, गला सुख चला था, बगल मे रखा सोमरस एक ही बार मे गटक डाला. लेखक उसका मुह विस्मय से देख रहा था. आजकल अपहरणकर्ता भी कितने जागरूक हो गए हैं, कितना कुछ मालुम हैं इनको अपने व्यवसाय के अलावा, काश ऐसा आम आदमी भी हो जाए तो क्या बात है. कुछ देर बोला बोला " भाई मै उस तरह का नहीं हूँ " .
"तो मै उस तरह का कहाँ हूँ " अपहरणकर्ता बोला .
"तो फिर " ??
अब अपहरणकर्ता के आँख मे आँसू आ गए पोछते हुए बोला " भाई मै किडनैपर नहीं हूँ, जिस देश का वर्तमान और भविष्य ही किडनैपरो के हाथ मे हो वहाँ किडनैपिंग भी बहुत चमकदार रोजगार नहीं रहा अब. मै भी तुम्हारी तरह लेखक था, लोगो ने मेरा बड़ा तिरस्कार किया, हालत ये थी कि गद्य कोई पढ़ने को तैयार नहीं और कवितावों को हिकारत कि नजर से देखते थे, मैंने अजीज आ कर घर बार छोड़ दिया, अब यहाँ गुमनामी कि जिंदगी बिताता हूँ, मोहल्ले वालो से संपर्क कर किसी दिक् करने वालो लेखक को पकड़ लाता हूँ कुछ मोहल्ले से मिल जाता है, और अपनी भड़ास भी निकाल लेता हूँ आज आपके ऊपर निकाली, बदले मे एक दो रचनाये थमा देता, आपको भी अब छोडता हूँ मेरी एक दो रचनाये लेते जाईये, किसी संपादक को थमा दीजियेगा कह दीजियेगा अपहरणकर्ता का लेख है, नहो छापेगा तो उसका अपहरण हो जाएगा, और जब छाप जाएँ तो उसके पैसे मेरे एकाउंट मे डाल दीजियेगा " अपना एकाउंट नो कि पर्ची लेखक को देते हुए कहा .
लेखक महोदय छूट गए लेकिन उनको कोई खुशी नहीं हुयी, अब ये लेखक महोदय खुद कभी कभार अपनी भड़ास निकलने उस अपहरणकर्ता के पास चले जाते हैं. बदले मे धमकी भरे पत्र के साथ अपनी रचनाये छपवाते हैं और मिल बाँट के खाते हैं. आखिरकार गठबंधन यहाँ भी हो गया..
सादर
कमल
7 comments:
क्या बात है!!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 25-06-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-921 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बड़े लेखक बनाते फिरते हो आजकल तो ये भी खा के आईना दिखाते हैं और कितना किससे खा चुके हैं उस हिसाब से आईना दिखाते हैं, तुम लोग आईना भी दिखाते हो तो किसको ? दिखाते हो लोग भूख से मर रहें, लेकिन ये नहीं दिखाते कि क्यों मर रहें हैं, उन मरने वालो पे कहानी लिख देते, लेकिन उन मारने वालो पे नहीं,
आपने तो वर्तमान लेखकों को ही आईना दिखाने का काम कर दिया कमल भाई, बहुत ही अच्छा लेख है, बधाई
हिन्दू मुस्लिम विषयों से इतर आपके विचार पढ काफी अच्छा लगा
क्या बात क्या बात क्या बात......
मैं भी सोचता हूँ लिखना..... पर कुछ लोगों को पढ़ कर अपनी कलम को कहता हूँ..... अभी थोडा और सीख ले....:):)
उत्कृष्ट |
बहुत बहुत बधाई |
Bahut hi mazedaar....
Bhadhas nikaalne ka naya tarika....
जबरदस्त....
बढ़िया प्रवाह के साथ उत्सुकता बनी रही.अति सुंदर.
Post a Comment