नारद: सेकुलरों का राजधर्म

Sunday, September 8, 2013

सेकुलरों का राजधर्म



मैंने टी वी पे कई फिल्मे एसी देखि जिसमे डाकू का एक गिरोह होता है, और इन डाकुवो का एक अड्डा भी होता है, वो सारे डाकू हफ्तों तक भेस बदल कर इधर उधर लूट, पाट हत्या करते है, लेकिन सरदार के नियम के अनुसार एक निश्चित दिन इकठ्ठा हो सरदार को सब कुछ अर्पित करते है, फिर उनका हिस्सा बाटा जाता,

 कभी कभार उसी "अड्डे"  पे कई योजनाये बनती है, कहाँ कब कैसे लूट पाट  करनी है ? कहाँ कब किसकी हत्या करनी है , कौन कौन उसके रास्ते मे आ रहा है? और अड्डे से निकल कर होता है हमला. लूट पाट, मार काट, बालात्कार, आगजनी. और ये सब करने के बाद जब पुलिस दौडाए तो वापीस अड्डे मे घुस जाना और वही से गोली बारी करना. 

 इनके सरदारों को सेट्टिंग भी होती थी, गाँव के कुछ सांपो जैसे विषैले लोगो से  सांठ गाँठ, डाकू उसको प्रधान बनाने मे मदद करते और और ये उन डाकुवो कि पुलिस इत्यादि से बचाने संरक्षण देने मे. इनकी मंशा पुरे इलाके - क्षेत्र मे अपना अधिकार जमाना होता है, डाकुपन फैलाना होता है जिसमे हार्डकोर का काम सम्हालते है "अड्डे वाले" डाकू और सोफ्टकोर यानि जनता जनार्दन के बीच कि कड़ी होते हैं संपोले  विषैले जैसे इंसान दोनों कि मंशा एक ही होती है राज करना., जब कभी जनता संपोलो से गुहार लगती है कि आप तो चौधरी है हमने  आपको जिताया है आप हमरी रक्षा करें तो संपोले दलील देते हैं , वो डाकू भी हमारे भाई है, हम उन्हें मुख्य धारा मे लाना है, आदि आदि, गाँव वाले बिचारे अपना सा मुह ले के चुप होते है, वही डाकू अपना डाकूपण दिखाते हुए न जाने किस प्रकार कि "हक" कि बाते करते है. 

और ये खेल चलता रहता है, गाँव के सीधे साधे लोग इन मुठ्ठी भर  डाकुवों और संपोले के खेल मे पिसते रहते हैं, लेकिन उनका सीधापन ही उन्हें खाता रहता है, वो जादा होने के बावजूद भयग्रस्त रहते हैं,  क्योकि उनका स्वभाव लुट पाट, हत्या बलात्कार नहीं होता, न ही वो कर सकते है,  तभी कहीं से कोई बागी बनता है, वो गावँ वालो को एक करता है, फिर भी उसके खिलाफ प्रपंच चलाये जाते है, परेशानियां खड़ी कि जाती है, गाँव वालो को डराया धमकाया जाता है, लेकिन फिर भी विजय उसकि होती है क्योकि वो  सत्य के साथ होता है 

एसी फिल्मे आपने भी कई देखि होंगी, और इस तरह के कई कहानिया सुनी होंगी,  होंगी ??  अरे होंगी क्या ? अभी लाईव देखिये न .. अभी भी तो दिख ही रहा है.. नहीं ?? 

साम्प्रदायिकता का सांप ऐसा है जो किसी भी विकास को डस लेता है. और इस देश मे एक तबका ऐसा भी है जो चोरी के बाद सीना जोरी भी करता है, और जब तक उस सीने पे वजनी बठ्करे से प्रहार नहीं किया जायेगा तब तक वह तबका सीनाजोरी कर सर उठाता रहेगा. 

इन तत्वों को सहारा देते जो दीखते हैं जो अपने को सेकुलर कहते हैं, सांप के जहर का इलाज है लेकिन सेकुलरों का नहीं, यदि आपके एक दरवाजे पे एक कुत्ता और एक सेकुलर आ जाय तो कृपया कुत्ते को रोटी दें, लेकिन अब आप कहेंगे कि कोई सेकुलर तुम्हारे दरवाजे पे आयेगा क्यों ? तो आते हैं भाई, बिलकुल आते है, यूपी वालो के दरवाजो पे श्वान समूहों ने स्वांग रचकर रोटी ले ली, खा के मोटे और ताकतवर हो गए, सत्ता मिल गयी, अब वहाँ क्या हाल है पूरा देश देख रहा है.  कमोबेश अधिकतर सेकुलर पार्टियां यही करती है, 

जम्मू कश्मीर के किश्तवाड मे भी सेकुलरों का राज है, वहाँ क्या हुआ आज तक किसी को पता नहीं, और मिडिया उस समय एक बधूवा मजदुर दिखी  जिसके हाथ पाँव ही नहीं काट दाये गए बल्कि जीभ तक काट के उसके कानो मे भर दिए गए ताकि वो न बोल सके न सुन सके, मिडिया ने खुद अपने बैन का मुद्दा तक नहीं उठाया, कही कोई चर्चा नहीं. वहाँ भी शुरुवात एक सेकुलर स्थल से हुयी थी. अब समझ मे आता है कि क्यों  अमेरिका पुलिस द्वारा सेकुलर स्थलों कि निगरानी करने कि पहल कि गयी. भगवान जाने भारत सरकार को कब अक्ल आयेगी.  पता नहीं गुजरात कि तर्ज पे किश्तवाड के लोगो को सजा कब मिलेगी ? फिर भी ये सेकुलर है. इनका "नॉन सेकुलरों"  को साम्प्रदायिक कहना कुछ वैसा ही लगता है जैसे किसी  वेश्या का किसी दूसरे नारी के चरित्र पे अंगुली उठाना. 

पिछले साल यूपी मे रमजान के दौरान हर लगभग हर शुक्रवार और उस महीने मे कई दंगा हुआ, और शुरू होता था सेकुलर स्थल से, माफ करिये जहाँ से लोग निकल कर इतने उन्मादी हो जाए वह सेकुलर स्थल डाकुवों के अड्डे से कम नहीं, और न हीं उसको  किसी भी प्रकार स्थल मानना चाहिए, हाँ उसको "अड्डा" कह सकते हैं, जैसे कुछ अड्डे चम्बल मे डाकुवो ने विकसित कर रखे है, जहाँ सबकी जाने मे रूह कांपती है क्योकि उनका  भी धर्म अलग है, "डाकू धर्म" उनपे भारतीय कानून काम नहीं करता. इसलिए उनके अपने वहाँ अपने डाकू धर्म के कानून होते है, और सरकार ये नहीं कह सकती कि चम्बल या एसी जगहों पे जहाँ डाकू रहते हों वहाँ सिविल कोड ही होने चाहिए. क्योकि सरकार वही है जिन विषैलों कि बात ऊपर सीन मे कि गयी थी. 


हाल मे मुजफ्फरनगर मे एक लड़की को छेड़ने कि घटना का का विरोध करने पे दो भाईयों को पिट पिट कर मार दिया गया, उसके विरोध के लिए पंचायत बुलाई गयी, लेकिन एम्बुश लगा के उन पर आक्रमण किये गए वो भी अत्याधुनिक हथियारिओं के साथ. और तो और एफ आई आर उन मा बाप के खिलाफ लिखा गया जिनके बेटी,बेटो कि हत्या हो गयी.  

मिडिया तब तक चुप थी जब तक मामला सोशल मिडिया मे जन के नहीं उछला, ये तो उसको भी पचा जाते "खास किस्म के चूरन" के साथ लेकिन मामला तब बिगड गया जब एक मुस्लिम और हिंदू पत्रकार मारा गया. और दिखाया भी है तो खाने के बाद बस एक पाचक कि तरह, असली खाना तो इनका अभी आश्राम बना है, शायद आशाराम  जैसा इंसान इनके लिए जादा महत्वपूर्ण  बजाय कि दसियों जानो कि चिंता करने कि, इस समय मिडिया का सबसे बड़ा दुःख ये है कि ये हालत गुजरात मे क्यों नहीं बन रहे ? 

बावजूद इसके धर्म निरपेक्षता , गंगा जामुनी तहजीब और भाई चारा का हवाला दिया जाता है, गंगा -जमुनी तहजीब समझ मे नहीं आता ?  वास्तव मे  "गंगा - जेहादी" तहजीब सही टर्म है. क्योकि गंगा तो समझ मे आता है जो एक तहजीब से संबंध रखता है और दूसरा जेहादी और जेह्दाइयों का कोई धर्म नहीं होता. क्या अब  भी गंगा - जामुनी तहजीब कहना वाजिब है ? 

रही बात भाईचारा कि तो भाड़ मे जाए एसी भाईचारा जिसमे एक पक्ष बस "भाई" कहता रहे और  भाई दूसरे पक्ष को "चारा" मान उसका मनमानी तरीके से भक्षण करता रहे.  

खैर ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक हम सब एक न  हो जाएँ और एक होकर उस गाँव वाले बागी को नेता मान कमान सौंप  दें ताकि इन सांपो के जहर का इलाज और डाकुवो को आत्म समर्पण करवाया जा सके और गाँव मे सुख और शांति आये. 

सादर 

कमल कुमार सिंह.  

4 comments:

रविकर said...

चोरों के सरदार पर, लगा बड़ा आरोप ।
आरोपी खुद हट रहा, क्वारा बबलू थोप ।

क्वारा बबलू थोप, कोप क्यूँकर वह झेले ।
कब तक आखिर बैठ, गोद में माँ की खेले ।

देता गेंद उछाल, कालिया किंवा लोके ।
अब तो मोहन मस्त, साथ बैठा चोरों के ।

Neeraj Neer said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (09.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

पूरण खण्डेलवाल said...

सटीक !!

राजीव कुमार झा said...

हकीकत का सुन्दर विश्लेषण http//dehatrkj.blogspot.com