दिल्ली में मकान मिलना मोक्ष मिलने के बराबर है, एक अद्द्द मकान जहाँ मिला वही आप अपने आपकी हालत वैसी हो
जाती जैसे जेहादियों को जन्नत मिल गयी. दिल्ली में इस खाकसार देशी मुजाहिर को भी इसका
ख़ासा अनुभव है .
मकान ढूढने के लिए आपको
श्री कृष्ण की तरह सोलह कला सम्पन्न होना
आवश्यक है, कम से कम मकान देने वाले की
आवश्यक अपेक्षाएं इतनी या इससे कुछ आगे की होती है. है इतने पर भी पुलिस का
वेरिफिकेशन करना आवश्यक होता है, आज श्री कृष्ण होते तो उनका दिल जरुर टूट जाता. वही किरायेदार
इसका खासा ख्याल रखता है की जहाँ मकान मिले वहां वहां के आस पड़ोस रहने वाली बालिकाए भी मकान की तरह या जादा खुबसूरत हो जहाँ रहने के आलावा इश्क करने का काम भी बखूबी किया जा सके.
वैसे हम कई पराक्रमियों को जानतें है जो अपने ज्ञान का उपयोग कर
दोनों परम स्थितयों को प्राप्त कर चुके
है.
जो रिश्ता संसद में पक्ष और
विपक्ष का होता है उससे कम मकान मालिक और
किरदार का रिश्ता तो नहीं ही होता.पक्ष कहता है हम किराया
बढ़ाएंगे, विपक्ष कहता है साल के बीच में बढ़ाना तो सनद में नहि लिखा था. फिर विपक्ष
कहता है, आपने दरवाजे पे लगे दीमक के
बारे में क्या किया ? इस महीने ही ही प्रस्ताव दिया था नया पेंट लगवाने का. नल की टोंटी भी टूटी हुई है, पानी की किल्लत
है, बियर पिने को मजबूर करती है. अब जिस दिन माकन मालिक और किराए दार में सुलह की
सनद लिखा दी जाएगी उसी दिन संसद में पक्ष
विपक्ष में सुलह होगा और देश तरक्की
करेगा, अब ये कब होता है राम ही जाने.
गुलाम अली की भासा में कहा जाए तो डेल्ही शहर में भी घर है ,
जिसमे हजारो लोग के अपने घर हैं, वो बात अलग है की ऐसे हजारो लोगो की नजर पड़ोस के घर या छत पर बनाये रखते हैं. लेकिन हम अभी तक राजा बलि का कलियुगी वर्जन हैं. महीने के
पहले दिन ही मकान मालिक वामन अवतार ले
मेरा जेब नाप जाते हैं. राजा बलि निश्चित ही भाग्यशाली थे जो विष्णु से वन टाईम सेटलमेंट कर लिया, और हम बलि
से भी सौ गुना पराक्रमी जो हर महीने जानबूझ कर जेब नाप्वाने के लिए तैयार है. कुवारी
लड़की की तरह महगाई भी घास फुंस की तरह बढती जाती है और इनकम किसी बेहुदे इमानदार
के इमानदारी की तरह अडिग. आफत ये की बीच बीच में ज्वार भाटा की तरह मिलनेवाला
इंसेटिव भी बस भाटा ही बन रह जाता है ज्वार तो कभी आता ही नहीं.
इसमें द्वापर के एक कार्पोरेट ट्रेनर कृष्ण का हाथ है. पुरातन काल
में मैनेजमेंट गुरु वेदव्यास के पास एक व्यापारी
समूह पंहुचा. वेदव्यास उस समय दाढ़ी
को हिला हिला उसकी मजबूती चेक कर रहे थे मानो समुन्द्र मंथन में बलि का बकरा वासुकी
नाग को नहीं बल्कि उनके दाढ़ी को बनाया गया था. वैसे उस समय वो अविवाहित रहे होंगे,
अविवाहित आदमी अपने बालो और दाढ़ी को ही
छेड़ सकता है. देवताओं को देख दाढ़ी को छेड़ना बंदकर अपनी दिव्य दृष्टी उठायी, “बोलो
क्या काम है?” देवता बिना चुके कह उठे “
गुरुवर हमारे एम्प्लोयी पगार और इंसेंटिव बढाने की मांग करते हैं इसके बिना कोई भी
भाला, तीर धनुष इत्यादि बनाने को तैयार नहीं है, सारा काम ठाप्प पड़ा हुआ है, अमेरिकवादी
भक्त लोग तपस्या कर अश्त्र् शश्त्र की डिमांड करते हैं, एसा रहा हो तो, हम भी वर पूरा करने के रोजगार से
बोजगार हो जाएगे, और दिवालिया हो आपकी तरह
मैनेजमेंटगुरु बनाने को मजबूर होना पड़ेगा.
उन दिनों वेदव्यास की दाढ़ी
आजकल के नवयुवतियों के बाल की तरह लम्बी थी, उसमे शैम्पू कंडिशनर लगता भी था या
नहीं, ये शोध का विषय है. माना जाता है ये अर्थिंग का काम करती थी ,जो आसपास के
वातारण से ज्ञान सोख दाढ़ी के रास्ते दिमाग को आपूर्ति करती थी.
वेदव्यास व्यस्त थे या सरकारी कर्मचारी की तरह टरकाने की गरज से
दायें और अंगुली दिखा दी जहाँ कृष्ण बासुरी बजाने के बाद पर्स से निकाल राधा का
फोटो देख रहे थे.
देवता दल पहुचे व्यथा
दुहराई.
कृष्ण ने शंका पूर्वक देख
मुस्कराए, फिर मन्त्र दिया, और मातहतो को सुनाने के लिए कहा गया, मन्त्र था, “कर्मणे
वाधिकारस्त , माँ इंसेटिव पगारम कदाचन: “
फिर बोले, “अब चुकी यह मेरी जबान से निकला है सो जनता अब चुप रहेगी, सरकार के
फरमान निकलने के बाद कोई कुछ बोलता है क्या ?
देवता खुश,लगाया उपाय जो काम कर गया. बाद में वो देवता लोग “ हैवेन अर्थ कल्चरल एक्सचेंज
प्रोग्राम “ के तहत पृथ्वी पे आ
मुंशी मैनेजर बन गए, इस्लामिस्ट की तरह वह यहाँ के रंग ढंग और संस्कृति में
नहीं ढले आज भी अपने को भगवान् समझते हैं और
जहाँ तहां कटौती करते हैं .
हाँ अब आईये मुद्दे पे,
क्या था ? मोक्ष , नहीं मकान, हलाकि बात
एक ही है.
एक बार ‘मकान एक खोज” के
हमने भी गली गली की धुल फांकी जिससे गलिया
धुल मुक्त और साफ़ सुथरी हो गयी, हालाकि ये साफ़ सफाई आजकल बेरोजगार भी बखूबी करते
हैं. या यूँ कह सकते हैं सरकार साफ़ सफाई चाहती है इसलिए इन्हें नवयुको को बेरोजगार
रखती है.
काफी कार्यकर्त्ता प्रयास करने के बाद टिकट रूपी एक
पता मिला जहाँ पहुचने पे पता चला की मकान मालिक जी भगवान् को रिश्वत देने की
प्रक्रिया में है. एक हाथ में आग लगी अगरबत्ती, और दुसरे हाथ में घंटा लिए भगवान्दो को घूरे जा रहे थे, बीच बीच में बगल में रखा सुखा लेकिन मजबूत नारियल की तरफ भी देखते थे मानो कह रहे हो अबकी इक्षा पूरी न की तो यही नारियल पैर की जगह कहीं और फोड़ दूंगा. दो घंटे तक घंटे तक भगवान् को धमकाने के बाद उन्होंने हमारे मुखमंडल को निहारा.
वह लम्बे वालो एक औरतनुमा मर्द था. शायद देखते ही समझ गया था की मई क्यों आया हूँ . नाक में कानी अंगुली घुसा
के नाक से अंगुली साफ़ करते हुए बोला, “लड़की नहीं लाओगे”, अचानक धमाक से बम फोड़ते हुए उसने मेरी नब्ज पे हात रख दिया था. मैंने पूर्व में
कितनी कोशिश की थी की कोई माकन मालिक ये शब्द कहे और मई मन मसोस कर रह जाऊं हाय अब
नहीं ला सकता, लेकिन जब लेकिन जब मुद्दा ही न हो तो अफ़सोस किस बात का ?हलाकि घर पर
प्रेयसी लानो वालो को मई टनो गालियाँ देता, जिसको सुनकर कोई विद्वान गाली पुराण या
या गाली – ये – हदीस लिख जाए तो भविष्य
में उत्तर प्रदेश के नेतावो के इस “विशेष
भासा शब्दकोष” की “कुंजी” बन सकती थी .
“नहीं नहीं आंटी मई उन
लंपटो(ऊपर से, मन से उन सौभाग्शाली) में
से नहीं, जो आफिस की बजाय घर पर अवैध कार्य करते हैं” मैंने दांत निपोर
के कहा. वैसे भी वर्तमान सरकार जैसी मेरी
स्थिति नहीं थी की बाहरी ऍफ़ डी आई
घर में लाता.
फिर काफी देर तक इधर उधर
(नौकरी और तनख्वाह मिलने की तारीख की बाते करते रहे. फिर नाक में से अंगुली निकाल
बनियान में पोछते हुए अगली शर्त रखी “हम लोग शाकाहारी है, हमारे घर में मांस आज तक
नहीं पका, तुम भी नहीं पकाओगे.” मुझे लगा
गोया फ़्लैट किराये पे नहीं बल्कि लड़की के साथ ढेर सारा दहेज़ दे अपनी बात मनवाने की कोशिश कर रहे हों. हँह, शाकाहारी, क्या भेजा मांस में नहीं आता, मापने लायक लायक कुछ होता तो ५ एकड़ खा चूका था . क्या जमाना आ गया है , कभी
सुना था बिहार के एक मुख्यमंत्री
माँसाहारी से शाकाहारी हो चुके है,
गाय बकरा छोड़ उसके चारा को खाना शुरू कर दिया है, और यहाँ यह दूसरी प्रजाति, शाकाहार के नाम मेरे दिमाग का बाल्तकार किये जा
रहे है .
"जी, मुझे बनाने नहीं आता”, अपने दातो को दुबारा बाहरी दुनिया दिखाते हुए
बोला.
इसके बाद उन्होंने दो चार
क्लाज और रखे जैसे की आमतौर सभी धूर्त रखते हैं और हम उनके शर्तो को जहर की तरह
शंकर बन आत्मसात करते रहे.
मुझे वैसे भी उनकी
सारी बात मानाने में भलाई लगने के कई कारन
थे, एक तो मुझे एक नए फ़्लैट की शख्त जरूरत थी दूसरा इनका लड़का जो इनके बगल में खड़ा मुझे लगातार घूरे जा
रहा था, ६ बाई ३ का एक बढ़िया क्षेत्रफल
रखता था , उनकी साड़ी शर्ते मनानी जरुरी ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य वर्धक भी थी . बाद
में सुनने में आया की वह एक प्रतिभाशाली
लुच्चा है, और उसकी दोस्ती एक स्थानीय नेता से भी है और इसी गति से कर्मठ रहा तो
भविष्य में उसका प्रमोशन बाद गैंग्स्टर
बनान तय है, और यदि लड़के ने दिमाग लगाया तो नेता जी को निपटा के उनके स्थान पर
टिकट भी ले सकता है, नेता जी भी इसी विधि से किराने की दूकान बेच, अपने पथ
प्रदर्शक को निपटा नेता बने थे जैसा की
आमतौर पर आजकल के अधिकंश्तात नेतान्नोमुख
लोग करते हैं . उदहारण के तौर पर केजरीवाल
को लिया जा सकता है जो अन्ना को निपटा नेताबाजी का भरपूर मजा ले रहे है .वास्तव
में वह एक जिम्मेदार व्यक्ति था, जिम्मेदारी के साथ ठेका ले एक मुश्त वोट डलवाना,
जिम्मेदारी के साथ सुनदर स्त्र्री देख दिल पे काबू न कर पाना, जिम्मेदारी के साथ
बिना बात के लड़ना उसके विशेष रुचियों में से एक था, सारी बतकही यहाँ बता नहीं
सकता, बाकि आप लोग अनुभव से सूंघ सकते है आपके ऊपर छोड़ता हूँ.
सब मिला के वह कमरा मुझे
मिल गया है, कुल मिला के दो साल का कारावास
उसी कमरे में काट चूका हूँ, अब उस मकान
मालिक के लफंगे रत्न को किसी के गले मढने की तयारी की जा रही है, फलतः मुझे कमरा
खाली करना है, और एक बार फिर मोक्ष की खोज में निकलना है.
कमल कुमार सिंह
1 comment:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (07-03-2013) के “जुल्म” (चर्चा मंच-1207) पर भी होगी!
सूचनार्थ.. सादर!
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