कौवा चला हंस की चाल मोदी की तरह ही एक प्रसिद्द कहावत है, चुनाव से पहले जनता के लिए कौवा था कोंग्रेस और रंग बदलने वाला आपा, और कोंग्रेस के लिए कौवा थे नरेन्द्र मोदी जिन्हें लगता था की मोदी एक ऐसे कौवे हैं जो हंस का आवरण ओढ़े हुए जनता को बरगला रहे है.
मामला जो भी हो, लेकिन जनता ने फैसला सुनाया और, और मोदी को भारी बहुमत से भारत का सिंहासन सौंपा जिसकी उम्मीद भारत की कोई पार्टी नहीं कर सकती थी.
सारी चीजों को समझने के लिए हमें सब कुछ दो भागो में बाटना पड़ेगा,
१ . चुनाव पूर्व
२. चुनाव बाद
१. चुनाव पूर्व :
ये चुनाव निश्चित ही भाजपा के नाम पर न होक मोदी के नाम पर था, और मोदी के वोटरों में दो तरह के लोग थे.
१. कट्टर हिंदूवादी : ऐसे जो हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान का सपना बस हिंदुत्व धर्म के आधार पर रखते थे. इस श्रेणी के लोगो को लगता था था की मुस्लिम हिंदुवो के अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे है, इनके न होने पे उन्हें उनके अधिकार जादा मिल पायेंगे, जबकि वो भूल जाते थे, की अतिक्रमण मुस्लिम नहीं बल्कि सरकार उनके सधे हुए वोट बैंक के कारन खुद पीठ सहलाई थी. यही बात इस प्रकार के हिंदुवादियों को एक होकर मोदी के पक्ष में वोट करने के लिए विवश किया क्योकि इनको भी लगता था की गुजरात दंगा मोदी के इशारो पे हुआ था.
२ .लिबरल हिन्दू : इस वर्ग में वो लोग आते हैं, जो भारत के विकास में कोंग्रेस को एक बहुत बड़ा रोड़ा मानते थे, और गाँधी परिवार को खतरनाक, क्योकि इस परिवार के रहते कोंग्रेस में ही गैर गाँधी परिवार में ढंग का नेता पैदा ही नहीं हो सकता था. जो सिर्फ और सिर्फ समानता चाहते थे, एक कानून, एक जैसा व्यवहार, एक सामान अधिकार. मुसलमानों के बिना नहीं मुसलमानों के साथ.
कोंग्रेस ने जो तुष्टिकरण का जो गाजर घास फैलाया था, इससे ये वर्ग अजीज आ चूका था. ये वर्ग देखता था की किस तरह से मुस्लिमो की हर जायज नाजायज बात मान ली जाती है. ये वर्ग देखता था, किस तरह मुजफ्फरनगर में दंगा होने के बाद किस बेशर्मी से सिर्फ समुदाय विशेष की पूछ परख होती थी.
मोदी ने इन दोनों वर्गों साध इनके अंगुलियों को कमल के निशाँ वाले बटन की तरफ मोड़ लिया. ध्यान रहे की इस चुनाव में भी मोदी को मुसलमानों का २% वोट भी हासिल नहीं हुआ है. हाँ हिन्दू जाती जरुर इकठ्ठी हो गयी.
२. चुनाव बाद :
अब जबकि नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन गए है, जनता जरा भी मौका दिए बिना इनको प्रधान मंत्री न मान, अलादीन का चिराग मान रही है, जो चिराग में से बहार निकले, और जो हुक्म मेरे आका कह के कोंग्रेस के ६० सालो की इकठ्ठी की गयी, तुष्टिकरण विष्ठा, घोटाले की गन्दगी, अराजकता का माहौल ठीक कर दे. जो की बिलकुल गलत है.
लेकिन, कुछ चींजे है जो जो बिना चिराग का जिन्न बने भी जनता में विश्वाश बनाया रखा जा सकता है. लेकिन मोदी सरकार के वो भी नहीं कर पाने में देख जनता सकते है, कम से कम वो वोटर जनता जो उन्हें चिराग का जिन्न नहीं मानता.
जो चुनाव पूर्व ये कहता था की वो किसी भी प्रकार से तुष्टिकरण नहीं करेगा भले ही वो चुनाव हार जाए, उसका मंदिर से घन्टे उतारे जाने पर चुप रहना, इस वर्ग के वोटर को व्यथित करता है.
लॉर्ड्स में मैच जितने के तुरंत बाद ट्वीट कर बधाइयां देना, और पूर्ण बहुमत के बावजूद अमरनाथ पर सन्न मार चुप्पी इस श्रेणी के वोटरों के समझ से परे है.
इजरायल के खिलाफ वोटिंग, वो भी तब जब संसद में बहस कराने मुकर चुके हो, यानि रात के अँधेरे में सब कुछ जैसा की कोंग्रेस के चलन में होता रहा है.
राजनीति ऐसी हो जो आम आदमी के समझ में आये। और बात सिर्फ वोटिंग की ही नहीं है, बल्कि रोजेदार के रोटी पे भोकाल और संसद में चर्चा और अमरनाथ यात्रियों पे हमले के विरोध में मुर्दा बने रहने जैसे कई मुद्दे है जिस पर सरकार की प्रतिक्रिया का इन्तजार आम सरोकारी इंसान को था और आगे रहेगा.
कालेधन और और कश्मीर में ३७७ पर सरकार का स्टैंड अभी पता नहीं चल रहा तो कुछ कहना उनको जिन्न मानने के बराबर ही होगा लेकिन जिन चीजो को बैलेंस किया जा सकता है उन चीजों को तुष्टिकरण के के तराजू पे चढ़ता देख मोदी का लिबरल वर्ग दुखी है.
पूर्वांचल में एक कहावत है, "ननदिया के बोला ता पतोहिया के कान होला", कोंग्रेस के बुरी तरह से ख़ारिज हो जाने के बाद भाजपा को इसका संज्ञान लेना चाहिए क्यों की जल्द ही बैलेंस करने योग्य चीजो को बैलेंस नहीं किया गया तो नतीजा आने वाले विधानसभा चुनावों में जरुर दिखने लगेगा.
सादर
कमल कुमार सिंह
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