नारद: बलात्कार का बलात्कार

Sunday, December 23, 2012

बलात्कार का बलात्कार


बलात्कार शब्द जह इंसानियत पर एक धब्बा ही नहीं बल्कि गढ्ढा है वहीँ बालात्कार का बालात्कार करना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सम्मान जनक कृत्य है.  ये क्रिया कुछ खास  किस्म के बुध्दजीवियों द्वारा की जाती है. 
बाल्तकार का बालात्कार करने से बालात्कारी का कुछ बिगड़े या न बिगड़े लेकिन इन ख़ास प्रकार के बुध्ध्जिवियों की दिमागी वर्जिश तो हो ही जाती है, मानो बालात्कार या इस प्रकार की कोई दुर्घटना होना इनके लिए एक सुनहरा अवसर लाता है, दिमाग की बत्ती जलाता है,  यदि बालात्कार न हुआ होता तो हम बता नहीं पाते की हमारा धर्म कितना महान है, इसमें सजाये बहुत ही बेहतरीन,स्वादिस्ट, लाजवाब  और उम्दा किस्म है , आज के "आई एस आई" मार्क के गारंटी से भी बेहतर. मानो यदि ये धर्म होता तो बालात्कारी के अंग मे चिर काल तक की शिथिलता होती,  हद है भाई  किसी बात की, ये सज्जन लोग पीड़ित से सहानुभूति और संवेदना दिखाने की जगह, इसको सीढ़ी बना अपने "होली" प्रोडक्ट का प्रचार करते हैं, कौन जाने कहीं कुछ बिक जाए. मानो कोई दुर्घटना न हो होके, मेला या "फेस्ट" का आयोजन हुआ हो, बेच लो जितना बेचना हो, कर लो मार्केटिंग, नहीं टार्गेट पूरा नहीं होगा.  माल भले ही रेपर में लिपटा हुआ कचड़ा हो.  

एक भाई साहब ने तो  "इस्लाम में बालात्कार" पे  "दो बाई पांच"  का पूरा लेख ही लिख डाला जैसे यहाँ हमेशा बालात्कार ही होते हो. खाना - पीना सोने  की तरह ही बालात्कार भी एक जीवन का एक अभिन्न अंग हो. क्योकि जहाँ धुप हो   छाते वहीँ लगाये जाते हैं.  मेरे समझ नहीं आया की ये बड़प्पन बता रहे हैं,  दिनचर्या. 

 मैंने एक मित्र "जेब अख्तर" जी  के लेख में पढ़ा था की बंगला देश में यदि एक किसान की बीवी और मवेशी बीमार पड़ते हैं, तो किसान मवेशी के बचने की दुआ पहले मांगता है। वजह। वहां के बाजारों में एक सेहतमंद मवेशी (गाय, बैल वगैरह) की कीमत १५ से २० हजार रुपए तक होती है। जबकि इसी बाजार में आपको एक औरत महज ५ से १० हजार में मिल जाएगी। इसलिए फायदे का सौदा मवेशी को बचाना ही है। दूसरे अगर किसान की बीवी मर जाती है, तो दोबारा विवाह में उसे दान-दहेज भी मिलता है। जो कि मवेशी के मरने के बाद मुमकिन नहीं है। वही कर्गिस्तान में औरतों का अपहरण कर बलात्कार करना एक सामाजिक रश्म से जादा कुछ नहीं वहां की सरकार भी इस अपराध को मूक रहकर सहमती देती है, यदि कोई कहीं पकड़ा भी गया, तो मामूली जुरमाना भर ही लगता है. इसी तरह एक जगह रूस के पास है चेचेनया, जहाँ विवाह के लिए औरतो का अपहरण या बलात्कार हो जाना बहुत ही आम बात है, कुछ देशों में तो औरतो का बकयादा बाजार लगता है.  और इसी तरह के हालत और भी मुल्को में हैं. ध्यान देने योग्य बात ये है की इन सभी देशो शरियत है. मैंने पहले भी कहा था हम बेहतर है कहने की बजाय कुछ बेहतर करने की कोशिश कीजिये फिर "रिलिजन मार्केटिंग" की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. 

कुछ मुसलमान भाई बहनों ने कहा की बालात्कारियो की सजा शरियत के हिसाब से हो, कड़ी से कड़ी, इसमें कोई बुराई भी नहीं, अपराधियों को कड़ी सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन क्या शरियत ये गारंटी भी लेता है की अपराधी को १०० प्रतिशत शुद्ध जहन्नम ही मिलेगा? जैसे "लक्जरी जन्नत" दिलाने और "सौ प्रतिशत शुध्द इश्वर" दिलाने का लेता है.शरियत का नियम है जैसे को  तैसा या पीड़ित के परिवार के मर्जी के मुताबिक, पीड़ित या उसका परिवार चाहे तो उसे कम कर सकता है.  जो हर तरह से जायज है होना भी चाहिए ताकि अपराधियों में खौफ  हो की जो उसने पीड़ित के साथ किया है कौन जाने पीड़ित उससे भी बुरी सजा मुकर्रर करे, लेकिन यही जैसे को तैसा या पीड़ित के मर्जी के हिसाब से महाभारत में भी उल्लेख है जब द्रोपदी ने अपनी इक्षा से दुशाशन को दंड देने का संकल्प लिया था. खैर ये तो रहा एक "रिलिजन मार्केटिंग" की पालिसी. 

एक तरफ तो युवावों का एक हुजूम संवेदना, दुःख और विरोध प्रकट करने कही पर लाठिया और पानी की बौक्षारे खा रहा हैं. और ये युवा किसी संगठन से नहीं,किसी धर्म विशेष से नहीं, किसी  सवर्ण या दलित जात से नहीं, न ही किसी राजनितिक प्रेरणा से, वरन ये सिर्फ युवा हैं जो अपना आक्रोश प्रकट रहे है, वहां कोई किसी से नहीं पूछ रहा तुम किस जात से हो? किस धर्म से हो?  जिसको दबाने के लिए सरकार की तमाम धाराएं भी नाकाफी है, ये वही युवा है जिनको हम "माल्स" "मल्टीप्लेक्स" में आनंद  मानाने वाला या पार्को में आमोद प्रमोद करने वाला "कूल द्युड्स" कहते हैं.आज इन युवावो ने ये बता दिया है की "कूल द्युड्स" आनंद मानाने के लिए ही नहीं बना, बल्कि सामाजिक जेम्मेदारी लेना भी जानता है. यदि ये सडको पे आ जाए तो सरकार के "धारा" को "पसेरी" बना सरकार, के मुह पर मार सकता है. लेकिन जब सरकार बेशर्म हो जाए तो उसपर कुछ भी असर नहीं होता, आज के हालत देखने के बाद तो यही लगा की इंडियागेट "लीबिया" है और सरकार "गद्दाफी".इस स्थिति में आक्रोश प्रकट करने तक तो ठीक है लेकिन लाठी या बौछार खाना  नहीं क्योकि इनके दिल का दर्द मर चूका है वो आपका दर्द क्या जानेगा? कुछ दिन बाद सब  चुप हो जायेंगे ... बाद में फिर वही सिनेमा वही माल्स . चुनाव के समय फिर इसी सरकार को वोट दे देंगे जो लाठी चार्ज करवा रही है.  क्या फायदा  इन पर  चोट करनी हो तो इस सिस्टम और सरकार के खिलाफ वोट करो, यदि किसी चीज का हल पानी में भीगना है तो, मछलियान और मगमछ्छ दोनों ही देश के सिरमौर होते, हलाकि की आज देश में मगरमच्छ तो है, लेकिन मच्छलियों को खाने के लिए.  


 नेताओं का ये मिथक टूटना जरुरी है की भीड़ बहुत मासूम होती है,  इनको कुछ पता नहीं होता, इनके मासूमियत को ये कभी भी वोट का शक्ल दे सकतें हैं. इनको ये बताना होगा की हमारी चोट तुम्हारे लिए भगवान् के लाठी की  तरह ही होगी जिसमे कोई आवाज नहीं होती, लाठी के जगह मुहर से काम लो.  चीखने चिल्लाने या हुजूम  जुटाने से सरकार सहम तो सकती है वो भी थोड़ी देर के लिए, लेकिन न्याय नहीं मिल सकता. यदि इन सब से  कुछ होता तो भेड का भी राज  भारतीय जनता के दिल में होता,  बजाय की संसद और देश के.  इन पर चोट करो, इनके खिलाफ वोट करो. सरकार द्वारा फेके गए पानी में भीगने से अच्छा है सरकार पर ही पानी फेक के इनकी गर्मी शांत करो. पानी पिने से बेहतर है "पानी पिलाना".

जहाँ एक तरफ धर्म जाती और जात भूल युवा चीख रहा है वहीँ कुछ लोग अटकले लगा रहे हैं, की लड़की दलित थी या सवर्ण, यदि दलित होती तो  शायद इतना चीख  पुकार न मचता. भाई पीड़ित बस पीड़ित होता  है ,क्या  किसी ने उससे  पूछा था क्या ? बहन तुम सवर्ण हो या दलित?  या किसी ने सिक्का उछाल के पता किया था "हेड" आया तो सवर्ण, "तेल" आया दलित ? क्योकि उस  समय तो वह बोलने की स्थिति में ही नहीं थी. यह तो एक प्रकार जन आक्रोश  है, जो बाल्तकार के हद से ऊपर अत्याचारियों के हैवानियत से उपजा है, क्या  वो जो दरिन्दे थे उस  समय उसकी जात  पूछी होगी ? क्या उनमे से आधे से जादा दलित थे इसीलिए सवर्ण जान लड़की के साथ  बालात्कार के बाद है हैवानियत की हद कर दी, या एक दलित यदि दलित लड़की का बाल्तकार करे तो तो कुछ डिस्काउंट देगा?  

हद है किसी चीज की क्या सवर्ण जाती में पैदा होने से ही व्यक्ति "इनबिल्ट" "ऑटोमेटिक" और "बाई डीफाल्ट" 'दलित विरोधी' हो जाता है ?  आजकल  मई खुद बड़ी शंका में हूँ , दलित  मेरे कई दोस्त हैं जो मुझसे किसी भी मामले में कम नहीं है, और न ही  उनको मई अपने से कम मनाता हूँ , लेकिन पता नहीं क्यों लगता है की यदि उनके  किसी भी गलत बात का विरोध कर दूँ तो मई " दलित विरोधी" हो जाता हूँ. मई आजकल शंका में हूँ इन "तथाकथित" दलित भाईयों  की गलत बातो का विरोध करू या न करू ? इसको सही या गलत के पैमाने से देखा जायेगा या सवर्ण दलित के ? वैसे मेरी तरह ये भी "कन्फ्यूज" है,  या ये कहिये इनमे जो जितना जादा पढ़ा लिखा है वो उतना ही कन्फ्यूज होता जा रहा है. कभी ये बुध्द को सिरमौर बनाते हैं तो कभी "हरिनाकश्यप" को अपना पूरखा, यानि बुध्द और हरिनाकश्यप में कोई सम्बन्ध है, क्योकि एक इनमे  पुरखा है और एक अग्रज.  यदि आज के दलित भाईयों का मध्य माना जाय तो स्वर्ग में जरुर बुध्द जी हरिनाकश्यप के पाँव छुते होंगे, बुजुर्ग  जो ठहरे.

ये सब देख, एक खास  मानव जाती को एक ख़ास मानव जाती से मुक्त  कराने वाले अम्बेडकर  जी अपना सर धुनते होंगे की जिस सवर्णों से इनकी मुक्ति दिलाई थी ये उन्ही अनुयायी बन गए, और जिस राक्षस जिंदगी से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न किया था उसी को पुरखा बता रहें हैं. 

देखने वाली बात ये है की आज का दलित किसी भी मामले में पुराने  शोषण करने वाल ब्राह्मणों से कम नहीं है .पहले ब्राहमण होने मात्र से दलितों का शोषण करते थे, और आज सवर्ण जाती में पैदा होने मात्र से वह  "शोषक"  हो जाता है,  हक छीनने  वाला लुटेरा, और जुल्म करने वाला आततायी हो जाता है, और अपने आप को  खुलेआम दुर्वचन कहने का लाईसेंस भी दिलवाता है. तो दलित किस तरह से अलग हुए उस  जमाने के ब्राहमणों से ??  कुछ तो खुले आम कहते हैं की हम पुराना बदला ले रहें है,  यानि यदि हम मानते है की जो हुआ वो गलत था, लेकिन ये नहीं, शायद ये यही मानते हैं की जो शोषण हुआ वो सही हुआ, तबभी हमें  मौका मिला, या शोषक होने की राह पर कोई भी अँधा हो जाता है. ?? मुझे कभी कभी ये शंका होती है कही ये जानबूझकर  तो  शोषित नहीं हुए फिक्स डिपोजिट की तरह की बाद  भविष्य में वसूल के साथ बदला लेंगे. क्योकि इने से अधिकतर  की बातों से  बराबर के अधिकार और हक़ की बाते कम, और  इतिहास को  इंगित कर बदला लेने की बाते जादा कही जाती है. इस प्रकार के दलित (?) बुध्दजीवी  किसी भी प्रकार से पुराने जमाने के ब्राह्मणों से कमतर नहीं मान सकते है, क्योकि विद्वेष ये भी फैलाते हैं . 

एक बात और गौर करने लायक है, जिन ब्राह्मणों  को मंदिरों का ठेकेदार बता कर एक सूत्रीय "कोसो कार्यक्रम" आयोजन होता है वही दूसरी तरफ उसी मंदिर से सम्बन्धित अन्य व्यवसायियों को बाईज्जत बरी बस इसलिए कर दिया जाता हैं क्योकि वो ब्राहमण नहीं है, शायद वहां भी दलित एक्ट काम करता हो . देश में  किसी भी मंदिर में चले जाओ,  ब्राह्मण १०० , या २०० मांगे तो उसको आधा दो तो जादा बकझक नहीं करता क्योकि और भी ग्राहक सम्हाल्नाने है, भीड़ जादा होती है. वही दूसरी तरफ मुंडन करने वाले नाई  को आप एक रुपया कम दें तो  वो गुस्से से आग बबूला हो जाताहै मानो बाल के बाद आपकी गर्दन तक कलम कर देगा.   उसी मंदिर में नाई होता है, उसी मंदिर में कहार भी होता है, एवं अन्य  गैर ब्राहमण लोग भी होते हैं जो मलाई बराबर खाते हैं लेकिन गाली तो सिर्फ ब्राहमण ही सुनेगा. कई गैर ब्राह्मणों को तो मैंने ब्रह्मणों के लिए एजेंटी तक करते देखा है, ख़ुशी ख़ुशी, बाद में आधा आधा. और ये मई हवाई  बाते नहीं बल्कि इसको दलित और सवर्ण दोनों ने महसूस किया होगा, यदि नहीं किया है तो अब से जब भी जाएँ गौर करें. 

वास्तव में जाती पाती का स्थान ब्राह्मणों ने क्यों बनाया कैसे बनाया पता नहीं, न ही मई इसमें जाने की जरूरत समझाता हौं , लेंकिन इसका बस एक ही पहलू है, एसा भी नहीं  है . पुराने जमाने में चमड़े के व्यवसायी को उसके  जाती की संज्ञा दी गयी, यहाँ वह विशेष वर्ग फेल हो गया, दलित हो गया,  जाती के आधार पर नहीं बल्कि "मैनेजमेंट " में, आज वही जब  सवर्ण  १००रुपये का चमडा उतार उसकी ब्रांडिग कर  १००० से १० हजार में बेचता है तो  जूते का उद्योगपति कहलाता है. अब किसने कहा था की आप एसा न करो. अब सोचिये जिस बाल्मीकि जयंती को दलित भाई मानते हैं उसी की किताब को ये मैनेज नहीं कर सके और यदि ब्राह्मणों ने इसे मैनेज  कर  व्यवसाय बना लिया ? वो जमाना आज की तरह आधुनिक तो नहीं था, लेकिन जहाँ चाह वहां राह. आज आपको कौन  रोकता है ? न उस समय कोई रोकता था, तो आपने सहा और यहि है आपका सबसे बड़ा गुनाह. मतला ये है, की इंसान किसी भी जाती में पूज्य हो सकता है, जाती कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, भीम राव अम्बेडकर का जिसने भी उनका विरोध किया उसने मुह की खाई. वो  किसी जाती के मोहताज नहीं थे.  न तो द्रोणाचार्य ठीक था जिसने जाती पाती के आधार पर एकलव्य का अंगूठा काट डाला न ही, न ही दलित के  आड़ में हत्याए करने वाला आज  के बीसियों  गिरोह.

 जब भी कोई किसी दुर्घटना में पीड़ित होता है  तो दर्द सबको होता है,  न की सवर्ण,  दलित, हिन्दू मुसलमान धर्म या मजहब देख के .   

डर लगता है मुझको सही बात कहने से!
कोई देख न ले उसको, हिन्दू या मुस्लिम के चश्मे से.(kamal)
सादर 
कमल कुमार सिंह 
२३  / दिसम्बर / २०१२ 

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