नारद: ब्रहमेश्वर सिंह मुखिया : आधुनिक परशुराम

Friday, June 1, 2012

ब्रहमेश्वर सिंह मुखिया : आधुनिक परशुराम




कौन जनता था की तारीख १  जून की सुबह एक एसे ब्राहमण   योद्धा की नृशंश  हत्या कर दी जाएगी जिसने अपनी   पूरी जिंदगी  किसानो के हित में  और  माओवादियों के खिलाफ लड़ते बिता दी और जान भी दी तो किसानो के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए. 
आगे बढ़ने से पहले मई कुछ बातो को साफ़ करता चलूँ. छोटी जाती में जन्म लेना कोई अपराध नहीं  है, ठीक उसी तरह बड़ी जाती में जन्म लेना किसी भी तरह से बुराई नहीं है. जाती या जन्म के आधार पर जुल्म करना कितना सही है कितना गलत ये तो विज्ञ लोग ही बता सकते हैं.  

मैंने बहुतो को देखा है की वो दलित सम्बन्धी  अधिकारों की वकालत करते देखा है ( मै भी इसके अंतर्गत हूँ) लेकिन इसका ये मतलब नहीं की सवर्ण पे जातिगत आधार पे या सम्प्प्नता के आधार पे आक्रमण किये जाएँ .  किसी का  अभी अपने अधिकारों के लिए लड़ना जायज है लेकिन इसका ये मतलब नहीं की जो चीज हमारे पास नहीं है उसे दूसरो से बलात  छीन ली जाए, चाहे वो दलित वर्ग हो या सवर्ण.  

इसको एक उदहारण  से और समझा जा सकता है, यदि किसी की आय चालीस हजार मासिक है और दुसरे की एक लाख, तो चालीस हजार वाला अपनी छमता बढ़ा कर अपनी आय एक लाख करने का अधिकार रखता है, लेकिन इसके बजाये यदि वो एक लाख पाने वाले व्यक्ति को मार कर यदी उसकी जगह हथिया लेता है तो यह निश्चय ही निंदनीय  है. 

इसी क्रम  में एक दौर वो भी था जब नक्सलीयों और माओवादियों ने बंगाल  को अपनी नफरत के आग से जलाने के बाद उनका विस्तार बिहार की होने लगा, इसी क्रम में उनकी नजर पूर्वी  उत्तर प्रदेश के कुछ इलाको पे भी थी.  थोड़े ही समय में नक्सलियों ने इसे दलित समर्थक होने का रंग रूप दे दिया, जिससे दलितों का कुछ भी  भला तो नहीं हुआ बल्कि माओवादियों ने अपनी टोपी जरुर सीधी की. 
 माओवादी और नक्सली   रातो रात जमींदारों /भूमिहारो/किसोअनो  के गाँव पे हमला बोल गाँव गाँव का साफ़ कर  देते, लोग अपनी मात्रभूमि, जमींन, गाँव छोड़ दूसरी जगह विस्थापित होने को मजबूर हो गए.  और जो लोग अपने जगह को किसी कारणवश नहीं छोड़ पाए वो पूरी की पूरी  रात  मवोवादियों और नक्सलियों के भय और  आक्रांत में जगने  को मजबूर थे.  गाँव वाले समयसारिणी के अनुसार पहरा देते. क्योकि उस समय  इन किसानो को न पुलिस से कोई सहायता प्राप्त थी न ही लालू के जंगल राज से.बल्कि नक्सलियों ने अपनी निजी अदालतें  लगा अपने आप को सरकार और अदालत से ऊपर घोषित कर रखा था.  नक्सली जब चाहते  किसी भी खेत में अपना लाल झंडा गाड़  देते, जो की सूचक होता था की इस जमीन पे अब उसके खेत के मालिक का की अधिकार नहीं रह गया है जिसका वह है, बल्कि उस खेत के साथ वो नक्सली  जो चाहे करें.  इस तरह से किसानो की जमीन उनसे अलग होती  चली गयी, हजारो एकड़ जमीं बंजर होती चली गयी , किसानो की तो रही नहीं और न ही नक्सलियों ने उसे की उपयोग में लाया.  

जनता के पास बस दो ही विकल्प बच गए या तो वो अपनी गाँव जमींन  छोड़ कहीं और विस्थापित हो जाए या तो नक्सलियों के हाथो मारे जाएँ,  तब एसे समय में ब्र्हमेश्वर जी ने एक सुरक्षात्मक सेना का गठन  किया जिसको नाम दिया "रणवीर सेना"  शुरुवात में इसमें भूमिहार और बड़े किसानो ने हिसा लिया लिया बाद में नक्सालियों के हिंसा को देखते हुए इसमें राजपूत और श्रीवास्तव भी जुड़ते चले गए.  ये सेना गाँव की सुरक्षा  की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू क्या क्योकि उनके पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था, या तो वो मर जाए या सब छोड़ जाये. तब रणवीर सेना ने इसका उपाय सोचा.

हम शांति चाहते हैं, जंग नहीं, 
यदि शांति है जंग से तो जंग ही सही.  

 रणवीर  सेना ने इसका उपाय ईंट का जवाब पत्थर से देना ही उचित समझा इसके आलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था जब सरकार खुद ही लुटेरी बन चुकी थी और पुलिस पंगु.  रणवीर सेनाओ के कार्यवायियों  के बाद नक्सली कुछ सहमे, लोगो को उनकी जमीन वापिस मिल गयी, लोग वापस लौटने लगे. और रणवीर सेना ने गंगा पार ही नक्सलियों की कमर तोड़ दी, जिससे वो उत्तरप्रदेश के पूर्वी इलाके को न झुलसा पाए. 

 आज मिडिया उनको २०० से अधिक हत्याओं का दोसी बता रही है,  इस बात को छुपा के की वो हत्याएं किसकी की गयी थी और वो कौन थे ?? और किसलिए की गयी ??  शायद मिडिया आज अपने अधकचरे ज्ञान से किसी का सच्चा चेहरा छुपा झूठ के  आईने   में दिखने को ही अपनी बहादुरी समझती है.  जा के पाँव न फटे बिवाई वो क्या साने पीर परायी.  

किसान और समाज के अधिकारों के लड़ते हुए मुखिया जी ने नौ साल जेल में भी बिताये, जिसमे से उन्हें अधिकतर मामलों में बरी कर दिया, जेल से छूटने के बाद उन्होंने "राष्ट्रिय किसान संगठन" बना कर  एक बार फिर से किसानो के हित की लड़ाई शांति और आग्रह  पूर्वक  करने की सोची थी  लेकिन शायद लोगो को अमन चैन पसंद नहीं, एक जून को सुबह तड़के उनकी हत्या कर दी गयी , इसमें कोई बड़ी बात नहीं यदि फिर रणवीर सेना ईंट का जवाब पत्थर से दे. 

आज खुशियों की कोई दुहाई देगा 
कोई मौत पे रहनुमाई देगा , 
चाँद सूरज जो बना दाग दीखाई न देखा, 
एक आंसू भी गिरा तो सुनायी देगा, 
एहसान फरामोश हो भी जाओ तो क्या , 
कारनामे अक्श मेरे , 
मौत के बाद भी दिखाई देगा 

सादर 
कमल कुमार सिंह 

5 comments:

Dipanshu Ranjan said...

22 अपराधिक मामलो में से 16 मामले में उन्हें अदालत ने बरी कर दिया था......
ये भी एक तथ्य है
शायद ये उनके आलोचकों को पसंद नहीं आ रहा हो.....

इनकी लगभग 100 बीघे पुस्तैनी जमीं थी और गावं में एक मकान जो अब शायद कुछ टुकरे ही बचे हैं और उनके घर की तो कई बार कुर्की कर चुकी है पुलिस..... ये दिखाता है की ब्रह्मेश्वर जी का इस युध्ह में कोई नीजी हित नहीं था....

नमन है मुखिया जी को...

Arun sathi said...

कमल ही बहुत ही सटीक और संतुलित आलेख पर सच के साथ। दुर्भाग्य यही है कि बौद्विक लोग इसके बारे में नहीं बता सकते, कल तो मेरा भी खून खौल गया जब तथाकथित एक बौद्विक ने हत्या की खुशी मनाई।

Arun sathi said...

कमल ही बहुत ही सटीक और संतुलित आलेख पर सच के साथ। दुर्भाग्य यही है कि बौद्विक लोग इसके बारे में नहीं बता सकते, कल तो मेरा भी खून खौल गया जब तथाकथित एक बौद्विक ने हत्या की खुशी मनाई।

मन के - मनके said...

यह,जो आज हम दोराहे पर खडे हैं,यह सब हमारी समाजिक-राजनैतिक
व्यवस्था का दिया हुआ कोढ है.
कब कोई,मसीहा इस धरा पर उतरेगा और,इन घावों से रिसते मवाद को धो पाएगा?

Narayan Jha said...

Very same thing for the society, how people will survive in unsafe condition, once bramheshwar is died another thousand bramheshwar will be born... our purpose is to safe our society 1st then our state and then our nation.

Regards