नारद: चचा का पान

Wednesday, March 28, 2012

चचा का पान


बात सन २००३ कि है जब मैंने काशी  हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था.  यूँ तो मै इस विश्वविद्यालय से काफी समय से जुड़ा था, लेकिन नेपथ्य से वो यूँ कि स्नातक जो  कि किसी और मस्तालय से कर रहा था,  के साथ साथ मै यहाँ के इन्द्रालय (फैकल्टी ऑफ परफोर्मिंग आर्ट )  में संगीत कि शिक्षा (डिप्लोमा) लेने आता था जो  अधूरी रह गयी, गुरु अरविन्द जी ने अथक परिश्रम किया था कि वायलिन सीख जाऊं यहाँ तक की  घर बुला के व्यक्तिगत मार्ग दर्शन  भी दिया लेकिन मेरा कोमल ह्रदय अँगुलियों के साथ सामंजस्य न बना सका.

 कक्षा में घुसने से पहले ही अन्य विभागों का चक्कर लगाता , वादन विभाग के  कोयलों कि कूंक, नृत्य विभाग के पायलो कि छमछम के आगे वायलिन कंधे पे रखने वाला एक बोझिल यन्त्र मात्र सा लगता.

 मै उन विभागों के छात्रों को जो कि अनुपात में लगभग १००:१ के अनुपात में रहे होंगे, द्वेष और हिकारत कि दृष्टि से देखता.
"इनको पता क्या पता कि महिला शश्क्तिकरण क्या होता है जो शुरू से ही अल्पसंख्यक बन के रहने का आदि हो. अरे जब इन जैसे गधे गा सकते हैं तो मै क्यों नहीं ?? भले न न सीख पाऊं तो क्या कम से कम महिला आरक्षण का विरोध कर पुरुष शाश्क्तिकरण कि मांग तो हो ही सकती है", 
ये सोचते हुए मै भूल जाता कि तब मै  किसी और अन्य विभागों के छात्रों तो द्वारा डोम द्रष्टि से देखा जाऊँगा. जो मौके मिलते ही मुझे पिटने के ताक में रहेंगे.  
कुछ दिन पहले ही मैंने एक घटना देखि थी जिसमे दो छात्रों में मार पिट कि नौबत आ पहुची थी. 

पहला : "अबे किस बात के दोस्त हो? मैंने कह दिया न कि लाल वाली मेरी है, तो कहे उसके पीछे लगे हो, साले  चोरकट . 
दूसरा : तुम पिछली साल भी ऐसे ही किये थे, कुछ कर तो पाए नहीं उसके प्रेमी से पिटे वो अलग, खेलब न खेलाईब, खेल्वे बिगाडब" साले तुम्हारी  बात मान के हम उसको छोड़ दिए थे, कुल भलमंसाहत खाली हमही से. अबकी पहले परचा हम भरे हैं, सीट भी हमारी है. 

"देखो समझा देते हैं कायदे से हो जाओ यहाँ पढ़ने आते हो कि ये सब करने, चाचा जी से कह देंगे" पहला बोला 
"तो तुम्हे क्या मामा जी ने लौंडियाबाजी के लिए नाव लिखवाया है"  दूसरे ने काउंटर अटैक  किया. 

बात बढ़ते-बढ़ते मार पिट तक आ पहुचीं. बड़ी विकट स्थिति थी, दोनों उसपे अधिकार जमाए जाते थे लेकिन उस चिर सुंदरी निर्दोष यौवना को कहाँ पता था कि वो किसकी ?? बिचारी चुप चाप अपने लेडीबर्ड से आती जाती थी उसको क्या पता था उसने अनजाने में ही किसी "भारत -पकिस्तान" के लिए अपने आप को "कश्मीर" बना लिया है, जिसका निवासी कोई और ही था. 
खैर बात आई गयी हो गयी, सब एक से एक नमूने यहाँ थे कोई शंका समाधान के स्थान पे भी सुर संधान करता ,कोई पुरुष हो के भी इस तरह का व्यव्यहार करता मानो दुनिया को बताना चाहता हो स्त्री पुरुष में अब कोई भेद नहीं.  

धीरे धीरे एक साल निकल गया, पहली साल मै कछुन्नर से पास तो हो गया. अब राजस्थान में मदार के पौधे को ही पेड़ कहते हैं, मेरे लिए इतना ही काफी था. दूसरे साल मेरी हिम्मत जवाब दे गयी, आँखों से आँसू आ गए, अब तो इस परिसर को अलविदा कहने का समय आ गया. 

लेकिन मेरे नास्तिक होते हुए भी ईश्वर कि कृपा मुझपे थी ये मुझे तब पता चला फिर से भगवान ने अपने इस नास्तिक पुत्र को विश्वविद्यालय का प्रवेश आमंत्रण पत्र भिजवाया. 

काउंसिलिंग में "पि". के. ( संज्ञान हो कि ये नाम है विशेषण नहीं ) "ए के" गुरु जी  बैठे थे, ज्ञान दिया  "क्यों भविष्य बर्बाद करना चाहते हो यहाँ आके? कहीं और जाओ", लेकिन मै भी मंदार पर्वत कि तरह अटल था, सुर असुर कितना भी मंथन करवा ले क्या मजाल मै डिगता.    
कुछ दिनों बाद पता चला कि हमारा विभाग, दोनों गुरुजन को "रंगा-बिल्ला" के विशिष्ट नामकरण से अलंकृत किया था. जो शायद आज भी अपनी परम्परा बनाये हो. 

अब तो मजे ही मजे थे. फिर से वही दिन आ गए बस विभाग बदला था, वही मैत्री रेस्टुरेंट, बाबा भोले का विश्वनाथ मंदिर,  गुल बाबा का नलका. यहाँ प्रवेश लेते ही छात्र आध्यात्मिक हो जाते, हो भी न क्यों ?? एक तो भोले बाबा कि नगरी ऊपर से मंदिरों से पटा इतना बड़ा विश्वविद्यालय.

 पढाई के साथ साथ छात्र साधक बन सुबह विश्वनाथ मंदिर में पूजा और शाम गुला बाबा के पास अर्चना में बिताते थे, यदि ईश्वर ने प्रसन्न हो के एक आध सहयोगी राधा दे देता था, तो साधक तत्काल कृष्ण बन मधुबन कि ओर प्रस्थान कर देता था जो कि इसी विश्वविद्यालय का एक उपवन क्षेत्र है, और तब तक साधना करता था जब तक अभीष्ट फल कि प्राप्ति नहीं हो जाती. 

 बस एक चीज नयी थी यहाँ मेरे लिए,  पीपल का पेड़ जिसके नीचे बैठ के चचा पान लगाया करते थे. नाम तो नहीं ध्यान आ रहा है लेकिन मै भी कभी कभार गुरुजनों से नजर बचा के (नाम मात्र का जिसको आप इग्नोर कह सकते हैं) पहुच जाता था. चचा थे भी मजेदार, उनसे कोई भी  भी विद्वान  किसी भी विषय पे शास्त्रार्थ कर सकता था, चुकी मै अल्प ज्ञानी था अतः पूरा ध्यान पान पर ही लगाता,

"का चचा जल्दी  देब्बा"  मै कहता, 
"काहे नहीं बचवा, हम बईठल  काहे बदे हई, लगावत हई , तोहरो लगावत हई." चचा 

जल्दी द , टाईम नाही हौ, 
"तब जा दूसरे से लगवा ल", चचा 
नाही जौन  बात तोहरे में हौ दूसरे में मजा नाही आवत, तब्ब हम रोज आ जाईला टाईम पे.अब नाटक नाही सबके  दे ल , खाली हमार टाईम खराब करल.
"लगावत हाई  हो, रुका तईं सा, अरे कायदे से लगाईब तब्बे पूरा मजा आई न. हाली हाली में काम खराब होला." चचा 
आजकल सुनत हई बड़ा दूर दूर से लोग आवलन तोहार लेवे, जईसन सबके दे ल , वईसन मत दिहल जाएँ, तईं कायदे क दिहल जाएँ आज, बहुत मूड बनल हौ. 

दूर दूर क का ?? हम त ससुर जोर्ज बुशओ का लगा देयी, जा के पूछा अपने प्राक्टरन से बड़े मन से ले लन कुल, हर विभाग के दमी क लगाईला, का डीन , अउर का प्रोफ़ेसर, सब हमसे लगवा के खुश हो जालन . आउर त आउर अब पढ़े वाली लडकी भी लगवा के जालीन.  तब, ई होला न हो कला. हम अपने काम का मास्टर आदमी हई , तब्बे न सब दीवाना भयल हौ हमार ये बुढौती में. नेता सारन देश के  चुना लगा के डेरालन और हमसे देश भर चुना लगवा के खुश होला.

और फिर मै चुपचाप चचा का 'पान" मुह ले के मुस्कराता हुआ अपने रास्ते बढ़ जाता. 


सादर 
कमल 
२८/०३/२०१२ 


4 comments:

रविकर said...

बढ़िया हास्य --

नारद तो बदनाम है, लगा लगा के चून ।
रंगा-बिल्ला खुब बचे, होत व्यर्थ दातून ।

होत व्यर्थ दातून, मगर हमने मुँह धोया ।
टांग वायलिन खूब, गीत-संगीत डुबोया ।

तपता रेगिस्तान, हरेरी दिखी मदारी ।
दोस्त खींचते टांग, ताकता रहा करारी ।।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब नारद जी,
सुंदर बेहतरीन प्रस्तुति,....

MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,

Udan Tashtari said...

बढ़िया संस्मरणात्मक आलेख...

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही संस्मरणात्मक आलेख...!!!

संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com