नारद: साँप

Monday, December 19, 2011

साँप


झुक जाता है सर मेरा, जब कोई मंदिर दीखता है ,
करता  लेता हूँ इबाबत जब कोई मस्जिद दीखता है ,
प्रेयर , करके इसा की, कुछ और आनंद ही आता है ,
स्वर्ण मंदिर देख, सर नतमस्तक हो जाता है,

शायद यही है  व्याख्या धर्म कि, जो ये अज्ञानी कर पाया,
ग्यानी हमें बनना नही , जिन्होंने धर्म भेद फैलाया,

सुना है ग्यानी आजकल , संसद में बैठते हैं,
धर्म को अधर्म बना, इस देश को डसते हैं ,

तो दोस्तों आप ही बताओ उन्हें ग्यानी कहूँ सांप,
जिनका काम है डसना उसको , जिसके आस्तीन में पलते हैं,


(कमल - १९ , १२ , २०११ )

3 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

क्या सांप हैं जी!

Rajesh Kumari said...

janta ko dasne vaalon ko to saanp hi kaha ja sakta hai.bahut khoob likha.

Anju (Anu) Chaudhary said...

वाह ...सही है धर्म का ये सच्चा ज्ञान ...सटीक विश्लेषण